गणतंत्र दिवस और राष्ट्रीय उत्सव का मिथक

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गणतंत्र दिवस आ रहा है। पूरे देश में इसे मनाने की कोशिश शुरू हो जाएगी। गणतंत्र दिवस को हमारी सरकार और उसके अनुयायी राष्ट्रीय उत्सव कहते हैं। देश के सारे विद्यालयों और सरकारी संस्थानों में इस राष्ट्रीय उत्सव को मनाने की बाध्यता है। सवाल यह है कि उत्सव क्या बाध्यता से मनाए जाते हैं? एक ऐसा समारोह जिसे बाध्य करके मनवाया जाता हो, को उत्सव कहना कितना उचित है और एक ऐसे उत्सव को राष्ट्रीय उत्सव कहना कितना उचित होगा? ये सवाल हो सकता है कि आज के सरकारी शिक्षा और नौकरी में फंसे लोगों को देशद्रोहिता से परिपूर्ण लगें, परंतु जो इस देश की सनातनता और गरिमामय इतिहास से परिचित हैं, उन्हें इस अल्पजीवी, भारीदोषयुक्त और देश की अस्मिता व पहचान से दूर संविधान की स्थापना का समारोह एक सरकारी वितंडावाद से अधिक कुछ भी नहीं प्रतीत होगा। क्या इसे हम सरकार की विफलता नहीं कहेंगे कि साठ वर्षों बाद भी उसका राष्ट्रीय उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है?

होना तो यह चाहिए था कि वर्ष में कभी भी एक बार बैठ कर इस संविधान पर विचार-विमर्श किया जाता कि आज के दौर में यह कितना उपयोगी रह गया है और क्या हमें एक नए संविधान की आवश्यकता नहीं है। परंतु आज के कट्टरपंथी, सांप्रदायिक व समाजतोड़क लोगों की जमात हल्ला मचाने लगेगी कि इस संविधान से परे कुछ भी नहीं सोचा जा सकता। हमें जो कुछ भी सोचना है, वह इस संविधान के दायरे में रह कर ही सोचना है। परंतु वे इस बात का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हैं कि जब इस देश में लाखों वर्षों से चले आ रहे मनुस्मृति जैसे संविधानों को आपत्तिजनक होने पर छोड़ा जा सकता है तो इस संविधान को क्यों नहीं? वे यह बताने के लिए तैयार नहीं होते कि आखिर इस संविधान में ऐसा क्या है जिससे इस देश को कुछ फायदा हुआ हो? क्या इस संविधान के लागू होने के बाद देश में अलगाववाद घट गया, क्या इस संविधान ने शासकों की तानाशाही व निरंकुशता पर लगाम लगा दी, क्या इस संविधान ने आम आदमी को इतनी क्षमता दे दी कि वह अपने शासकों से कोई स्पष्टीकरण मांग सके, क्या इस संविधान ने हमारे देश के कानून-व्यवस्था की स्थिति को सुधार दिया? ध्यान से देखें तो इन सारे प्रश्नों का उत्तर नहीं में है। आज देश में जितने अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं, उतने 1950 में नहीं थे। आज कहने के लिए देश में लोकतंत्र है लेकिन वास्तव में देश की राजनीति में आम आदमी की भूमिका शून्य ही है। आम आदमी आज इतना असहाय हो गया है कि वह चाहे या न चाहे, सरकारें बन ही जाती हैं और नेतागण अपना पेट भरने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं। कानून-व्यवस्था की स्थिति तो इतनी खराब है कि उसकी चर्चा करना ही व्यर्थ है। सोचने की बात यह है कि यदि यह सब कुछ नहीं हो पाया है तो फिर इस संविधान की प्रासंगिकता क्या है?

गणतंत्र दिवस को यदि राष्ट्रीय उत्सव नहीं कहें, इसमें संविधान का अपमान नहीं है। इसे मनाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना राष्ट्र और उत्सव दोनों शब्दों के साथ मजाक करना है। इसे राजकीय उत्सव तो कहा जा सकता है परंतु राष्ट्रीय उत्सव कदापि नहीं। जो उत्सव देश के आम आदमी के मन को उत्साहित नहीं करता हो उसे राष्ट्रीय उत्सव कैसे कहें? वास्तव में स्वाधीनता प्रप्त करने के बाद अपने देश में एक नई संस्कृति विकसित करने और एक नया राष्ट्र गढने की कोशिश शुरू हुई थी। इसलिए इस देश के राष्ट्र से जुड़ी सभी पुरानी चीजों को दूर करने की कोशिश की गई। नए महापुरूष गढे गए, नया इतिहास लिखा गया, नए उत्सव बनाए गए। ये सारे प्रयत्न इस देश की प्राचीन अस्मिता को नष्ट करके एक नई अस्मिता गढने के लिए किए गए। यदि इस नई संस्कृति, राष्ट्र व अस्मिता में वास्तव में देश की भलाई होती तो उसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया होता। परंतु ऐसा नहीं था। आज हम देख सकते हैं कि पुराने जीवन-मूल्यों व परंपराओं और देश की सनातनता की उपेक्षा करने से समस्याएं बढी ही हैं।

इसलिए गणतंत्र दिवस को संविधान स्थापना के समारोह के रूप में मनाया जाता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना इस राष्ट्र का अपमान है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में कोई राष्ट्रीय उत्सव नहीं है। उदाहरण के लिए मकर संक्रांति एक राष्ट्रीय उत्सव ही है। इसे मनाने के लिए सरकार को कुछ भी नहीं करना होता है और यह पूरे देश में भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता है। कहीं पोंगल, तो कहीं बिहु, कहीं मकर संक्रांति तो कहीं टुसु के नामों से पूरा देश इसे मनाता है और सरकार द्वारा छुट्टी नहीं दिए जाने के बावजूद मनाता है। इसप्रकार के अनेक उत्सव हैं, जिन्हें राष्ट्रीय उत्सव कहा जा सकता है। इसलिए इस गणतंत्र दिवस पर आइए सोचें कि इस देश की राजनीति को इस देश की मिट्टी से कैसे जोड़ा जाए? सोचें कि आखिर क्यों बापू चाहते थे कि भारत की राजनीति धर्माधारित हो, सेकुलर नहीं?

-रवि शंकर

2 COMMENTS

  1. बिलकुल सही लिखा है आपने ,उत्सव तो स्वतः स्फूर्त ढंग से प्रकट होने वाला मन का उदगार है. उत्सव कभी कर्त्तव्य नहीं बन सकता और कोई भी देश लकीर का फ़कीर बन कर जिन्दा नहीं रह सकता है. निश्चय ही संविधान को सतत विश्लेषित होते रहने वाला उपक्रम बनाया जाना जीवंत राष्ट्र की निशानी है…अच्छा चिंतन….बधाई.

  2. सटीक और सारगर्भित लेख. ऐसे ही लेखन जारी रखे. मां सरस्वती की कृपा से भारत मां की सेवा-साधना जारी रहे यही सादर शुभकामनाएं.

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