हरिकृ ष्ण निगम
आज देश की राजनीति जिस तरह करवटें ले रही है और आरक्षण की चुनावी लाचारियों ने इस समस्या पर विमर्श के स्तर को इतना गिरा दिया है कि कुछ लोग धर्म के आधार पर भी आरक्षण की आवश्यकता को निर्लज्जतापूर्वक संविधान-सम्मत मानने लगे हैं। इसी तरह प्रकाश झा की हाल ही ‘आरक्षण’ फिल्म ने दशकों के बाद इस दबे मूद्दे और आरक्षण की चुनावी मजबूरियों की फिर पोल खोल दी है। राजनीतिक सच इतना खोखला होता है कि वह असुविधाजनक कड़वा सच नहीं पचा पाता है। इस फिल्म में मंडल-मसीहा के मुखर पक्षधरों ने आरक्षण बनाम के योग्यता के वर्तमान-विमर्श को संवेदनशील वर्गों के आमने-सामने ला खड़ा किया है।
आरक्षण का मुद्दा हर रोज कुछ नया मोड़ लेता ही दीखता है और निरंतर लगाए जाने वाले आरोप-प्रत्यारोप एक ओर देश के उपेक्षित चेहरों को राजनीतिक मोहरा बनाते दीखते हैं वहीं दूसरी ओर बुध्दिजीवियों का दुराग्रही दिवालियापन सामाजिक समरसता को भंग करने पर तुला हुआ है। एक ओर शुद्र, दलित, हरिजन, पिछड़ा आदमी, उपेक्षित जाति और अनेक और तिरस्कृत वर्ग सभी को सब्जबाग वे लोग दिखा रहे हैं जो उनके लिए प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे हैं पर उनमें से हर नेता की चुनावों के समय घोषित संपत्ति करोड़ों की निकलती है। यह धनराशि उनके दल की नहीं, निजी है। पिछड़ी जातियों को उनकी स्थिति का एहसास दिलाने के लिए कदाचित वे उन्हें वे आईना दिखाते रहेंगे। जो अनंतकाल तक एक राजनीति ढाेंग बनकर रह सकता है। जाति के दल-दल से परे सबसे उपेक्षित और अभिशप्त तो एक गरीब है वह चाहे किसी क्षेत्र या जाति का हो उसकी गरीबी ही उसका सबसे बड़ा पाप है। शुद्र आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो हमारे यहां साधारण मजदूर की दशा अमेरिका के अश्वेतों से भी गई गुजरी हुई है। प्रश्न केवल गरीबी, अशिक्षा और तिरस्कार का ही नहीं है। वह अन्याय के विरूध्द बगावत करने पर भी मजबूर हीे तो उसे राजनीतिक दलालों के माध्यम से ही जाना होगा जिनकी नइ्र संपन्न पीढ़ी उन पर पिछड़ेपन के दाग को धोने के बजाय उसे एक माध्यम बनाकर अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रहना चाहता है।
आजादी के दशकों बाद भी आज के गांवों में रहने वाले करोड़ों इंसानों और गाय-बैलों में कोई अंतर नहीं है। यद्यपि उनकी दुहाई देकर राजनीति की सीढ़ियों पर चढ़ने वाले अपराधिक छवि वाले राजनेता सब जगह है जो सबसे पहले उन्हीं का शोषण करते हैं और सच तो यह है कि उन्हें गरीबी और अन्याय के साथ अप्रत्यक्ष रूप से जीना सिखाते हैं। सह-आस्तित्व का सिध्दांत शायद यहीं पर सबसे सच्चे रूप में लागू होता है।
आप स्वयं चारों ओर देखिए, पिछड़े समाजों की स्थिति और उन्हीं के बल पर पनपे नेताओं की नई समृध्दि व उनका अहंकार आपको विस्मित भी करेगा और शर्मिंदगी भी महसूस करा सकता है। गत पांच दशकों में न तो कांग्रेस ने या किसी और दल ने इस समस्या की वस्तुस्थिति समझने की कोशिश की है। वे सिर्फ वोटों के लिए जातिवाद को जिलाते रहे थे। राजनीतिवाजों का असली एजेंडा और मंतव्य चाहे शिक्षा हो या स्वास्थ्य या कोई भी कल्याणकारी कदम रहा हो, घोर जातिवाद जीवित रहने वाले जिस उन्माद से सेकुलरवाद की बातें करते हैं वह पाखंड जैसा है।
युवा छात्रों के उच्च शिक्षा के संस्थानों में आरक्षण ने असली मुद्दे से हमें भ्रमित करने की कोशिश की है। सर्वाधिक विपन्न वर्ग के हितों को फिर अनदेखा करते हुए यह सिर्फ वोटलोलुप कांग्रेस नेताओं का नया अवसरवादी खेल हैं। प्रसिध्द अर्थशास्त्री लार्ड मेघनाद देसाई ने जो स्वयं एक समय मार्क्सवादी प्रोफेसर थे, हाल में कहा कि देश में समानता और सामाजिक न्याय के नाम पर हम लगभग हर क्षेत्र में गुणवत्ता को नष्ट करने पर तुले हैं। वे उच्च शिक्षा के केंद्रों पर आरक्षण के विरोधी है। इसके बदले में वे अमेरिका और दूसरे देशों में लागू की गई ”सकारात्मक कार्यक्रमों” या ”अफरमेटिव एक्शन” की अवधारणा का समर्थन करते हैं। सदियों के रंगभेद के अन्यायों के विरूध्द इसका प्रयोग अमेरिका ने किया और कुछ अर्थों में हमारे देश की आरक्षण की राजनीति से यह कहीं बेहतर सिध्द हुआ है। सीधी सी बात है कि समाज में गरीबी चाहे ऊंची जाति का या पिछड़े वर्गों की हो वह सभी के लिए समान रूप से अभिशाप है। उपेक्षित किसी भी जाति या धर्म को हो सकता है। उनमें फर्क करना जनतांत्रिक पाखंड में रूपांतरित हो जाता है। गरीबी के बीच दीवारें खींचने वाले सिर्फ स्वार्थी और दंभी राजनीतिज्ञ हो सकते हैं, सच्चे समाज हितैषी नहीं। एक जाति को दूसरी जाति को संकीर्ण आधार पर भिड़ाना और चुनावी समीकरण बनाना देश के लिए महंगा सिध्द हो सकता है।
प्रसिध्द उद्योगपति रतन टाटा ने भी हाल में कहा कि सरकार द्वारा नियंत्रित प्रबंधन, शैक्षणिक एवं संगणक संस्थानों में प्रस्तावित आरक्षण-कोटे से देश टूट सकता है। आज की स्थिति यह है कि पिछले दौर के सरकारी आरक्षण की स्थिति से मध्यवर्ग ने येन-केन-प्रकारेण समझौता कर लिया था और वे युवा बाकी क्षेत्रों को छोड़कर आईआईटी, आईआईएम एवं मेडिकल की दुनियां में प्रतिद्वंद्विता का मूल्य बचा हुआ था। एक लेखक के अनुसार समानता का यह अर्थ नही है कि आप एक सक्षम धावक की जगह एक अपंग व्यक्ति को ओलंपिक दौड़ के लिए चुनें। राजनीतिक रूप से आप इस टिप्पणी को सही न मानें पर यह सिध्द करता है कि आज के युग में कड़वा सच गले के नीचे उतरना मुश्किल है।
शायद भारत ही अकेला ऐसा देश है जहां किसी शोध, सर्वेक्षण एवं अध्ययन व संभावित परिणामों को बिना समझे सामाजिक न्याय के लिए नारेबाजी की जाती है क्योंकि राजनीतिज्ञों को ताकत के श्रोतों पर हालत मे कब्जा करने का मंतव्य पूरा करना ही है। आरक्षण की अवधारणा में देश के हर नागरिक की पहचान उसकी जाति है। सामाजिक प्रणाली में दरारें पड़ती जा रही है और इसको प्रतिरोध का कभी कोई बौध्दिक आंदोलन न पनप सकेगा। आज का आरक्षण के प्रश्न पर सभी दल अपने मतभेद, विचार भेद भुलाकर चुनाव को ध्यान में रखकर एक विचारधारा के हो जाते हैं। यह उसी तरह की स्थिति है जैसे संसद और विधान सभाओं ामें जब उनको अपना वेतन, भत्ता, सुख-सुविधा बढ़ानी होती हैतब हम एक अभूतपूर्व वैचारिक एकता दिखाई देती है।
आज सारी दुनियां में भारत शायद अकेला देश है जहां सत्ता-लोलुप राजनीतिज्ञ प्रतिभा और योग्यता के साथ निःसंकोच खिलवाड़ कर रहे हैं, मात्र वोटों के लिए। सामाजिक न्याय के नाम पर जैसे एक समय ‘मंडल मसीहा’ वी पी सिंह ने जातीय आधार पर बहुसंख्यकों के वोट बांटे थे और जिनका उस समय संकीर्ण उद्देश्य देवीलाल के पिछड़े वोटबैंक में सेंध लगाना था उसी तरह चुनावों की पूर्वसंध्या पर यही दुष्चक्र हर बार कांग्रेस के अन्य कुछ दल हर बार चलाते हैं।
* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।
आरक्षण, संविधान की मूल प्रस्तावना में भारत के सभी नागरिकों को समानता और समान अवसर उपलब्ध कराने की दी गई गारन्टी का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। दलितों के मसीहा अंबेडकर ने भी विशेष परिस्थिति में इसे अधिकतम १० वर्षों तक ही लागू करने प्रावधान किया था, लेकिन वोट बैंक की राजनीति ने इसका न सिर्फ़ विस्तार किया बल्कि स्थाई बना दिया। अब तो इसका फ़ायदा दलितों में भी उसी वर्ग को मिल रहा है जिसने एक बार आरक्षण का लाभ ले लिया है। आरक्षण की नीति ने जाति व्यवस्था को संविधान सम्मत बना दिया है। प्रतिभा की इस तरह घोर उपेक्षा करके हम एक भ्रष्टाचारी भारत का ही निर्माण कर सकते हैं, सुपर पावर का नहीं। यह बात समझते सब हैं, लेकिन बोलने का साहस नहीं जुटा पाते। संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत के सभी नागरिक समान अवसर और समानता के अधिकारी हैं।