आरक्षण बनाम शिक्षा में सुधार

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पिछले दिनों पांचजन्य साप्ताहिक में सरसंघचालक श्री मोहन भागवत का एक साक्षात्कार छपा, जो मुख्यतः दीनदयाल जी के विचारों पर केन्द्रित था। उसमें एक जगह उन्होंने कहा कि आरक्षण का लाभ जिन्हें मिलना चाहिए था, वह उतना नहीं मिल पा रहा है। अतः इस बात की समीक्षा होनी चाहिए कि डा. अम्बेडकर की भावना के अनुरूप यह व्यवस्था अधिकाधिक उपयोगी कैसे हो ? इसके लिए उन्होंने अराजनीतिक लोगों की समिति बनाने का सुझाव दिया।
श्री मोहन भागवत राजनेता नहीं हैं। उनका भविष्य में भी उधर जाने का इरादा नहीं है। इसलिए वे देश, धर्म और समाज के हित में बात कहते हैं, चुनाव के हित में नहीं; पर हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखने वालों ने इसे लपक लिया। बिहार के चुनाव की मारामारी के बीच भा.ज.पा. विरोधियों को लगा कि इस विषय पर गरीब जातियों को भड़काकर अपने पाले में ला सकते हैं। बस फिर क्या था, अभद्र भाषा के प्रयोग में माहिर लालू जी माई के दूध को याद करने लगे, तो नीतीश जी ने कुछ सभ्य भाषा में इस पर नरेन्द्र मोदी को चुनौती दे डाली। हर बैंड में सबसे आगे एक बड़ा शामिल बाजा होता है। उस पर ही बैंड का नाम लिखा रहता है। उसमें कोई स्वर तो नहीं होता, फिर भी वह बीच-बीच में बोलता जरूर है। नीतिश और लालू जी के इस बैंड में राहुल बाबा भी शामिल बाजा बन गये।
इससे भा.ज.पा. और नरेन्द्र मोदी परेशान हो गये। उन्हें हर सभा में इसकी सफाई देनी पड़ी। संघ वालों ने भी कई तरह से स्पष्टीकरण दिये। अतः विकास के नाम पर लड़ा जा रहा चुनाव फिर जातिवाद पर केन्द्रित हो गया। पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित, महादलित जैसे शब्द फिर से चुनावी सभाओं में गूंजने लगे। मोदी अपने अखाड़े में लालू और नीतीश को खींचना चाहते थे; पर मजबूरी में उन्हें उनके अखाड़े में ही उतरना पड़ा।
लेकिन कम तो मोदी भी नहीं हैं। उन्होंने संसदीय अभिलेखों से नीतीश का वह भाषण निकाल लिया, जिसमें वे पांच प्रतिशत मजहबी आरक्षण का पक्ष ले रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खींची गयी 50 प्रतिशत की रेखा के कारण यह पांच प्रतिशत गरीब जातियों के कोटे से ही जाना था। इससे नीतीश सफाई की मुद्रा में आ गये। कुल मिलाकर चुनावी परिदृश्य खेल की प्रतियोगिता न होकर युद्ध के मैदान जैसा हो गया। असल में आरक्षण द्रोपदी के उस अक्षय पात्र की तरह है, जिसमें से जितना चाहे खाओ, पर वह समाप्त नहीं होता। आरक्षण की राजनीतिक रोटी से हजारों लोग पेट भर चुके हैं, फिर भी वह अभी बाकी है।
लेकिन समय-समय पर आरक्षण समाप्ति की मांग उठती रहती है। ऐसे में इसके समर्थक भी ताल ठोककर मैदान में आ जाते हैं। कभी-कभी यह संघर्ष हिंसक हो जाता है। विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की संस्तुतियां लागू करने से उठा बवंडर बहुतों ने देखा है। सरकारी नौकरियां लगातार घटने के बावजूद इनके लिए मारामारी हो रही है। नेताओं को युवकों की नहीं, अपनी राजनीति की चिंता है। गुजरात में हार्दिक पटेल का आंदोलन इसकी ताजी कड़ी है।
आरक्षण की बात बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसी है। अतः इस पर एक अन्य पहलू से भी विचार जरूरी है। डॉक्टर मरीज को ठीक होने के लिए दवा के साथ परहेज और कुछ विशेष खानपान बताता है। हमने आरक्षण रूपी दवा तो ली; पर इसके साथ की चीजें भुला दीं। दवा को ही भोजन समझने से जो समस्याएं होती हैं, वे अब दिखायी दे रही हैं।
आरक्षण का उद्देश्य हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक विषमता को दूर करना था। इसके लिए कुछ प्रयास शासन को करने थे और कुछ समाज को; पर दोनों ने ही अपनी भूमिका का ठीक निर्वाह नहीं किया और ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ अतः आरक्षण के समर्थक हों या विरोधी, सबको शिक्षा और चुनाव प्रणाली सुधारने का प्रयास करना चाहिए। इससे समाज का वातावरण ठीक होगा और 20 साल बाद आरक्षण की जरूरत ही नहीं रहेगी।
पहले शिक्षा की बात करें। इसमें सुधार के लिए चार सूत्रों पर काम करना होगा। ये हैं अनिवार्य, समान, निकट और मातृभाषा में शिक्षा। प्राचीन भारत में ऐसा ही होता था; पर अंग्रेजों ने ये व्यवस्था तोड़ दी। उन्होंने गुरुकुल और पाठशालाएं समाप्त कर अंग्रेजी को बढ़ावा दिया। सत्ता उनके पास होने के कारण अंग्रेजी शिक्षित लोगों का महत्व बढ़ता गया। इन चार सूत्रों के आधार पर ये व्यवस्था ठीक की जा सकती है।

अनिवार्य शिक्षा – इसका अर्थ है कि लड़का हो या लड़की, पांच से 15 वर्ष तक के हर बच्चे को अनिवार्य शिक्षा दी जाए। चाहे उसकी जाति, वर्ग, आर्थिक स्थिति आदि कुछ भी हो। हमारी संस्कार प्रणाली में ‘विद्यारम्भ’ संस्कार हर बच्चे के लिए अनिवार्य था। अर्थात प्राचीन भारत में हर बच्चा पढ़ता था; पर फिर विदेशी और विधर्मी आक्रमण, जातिभेद और गरीबी ने ये व्यवस्था बिगाड़ दी। इस समय सरकारी विद्यालयों में दिन का भोजन गरीब बच्चों को वहां लाने में कारगर हो रहा है। बस उसे ठेकेदारों से लेकर ठीक हाथों में देना होगा।

समान शिक्षा – बच्चों में समानता और समरसता के संस्कार डालने के लिए समान शिक्षा जरूरी है। भारत में धनवान श्रीकृष्ण और गरीब सुदामा एक साथ पढ़ते थे। वे साथ-साथ गाय चराने, लकड़ी काटने, आश्रम की सफाई तथा गुरुसेवा आदि के काम करते थे। गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क थी। बच्चों की शिक्षा पूरी होने पर राजा गुरुकुल के अधिष्ठाता को भूमि, धन, गाय आदि देता था, तो किसान अन्न, फल, सब्जी आदि। गुरु और गुरुमाता सब शिष्यों से बराबर प्रेम करते थे। एकलव्य को ठुकराने वाले द्रोणाचार्य जरूर अपवाद हैं; पर यह भी ध्यान रहे कि वे धृतराष्ट्र के वेतनभोगी शिक्षक थे। अतः उनकी अनुमति के बिना किसी को नहीं पढ़ा सकते थे। पैसा लेकर पढ़ाने की कुप्रथा द्रोणाचार्य ने ही शुरू की।
डा. राममनोहर लोहिया ने भी समान शिक्षा की बात कही थी –
टाटा या बिड़ला का छौना, या हो नेहरू की संतान
या फिर चपरासी का बच्चा, सबकी शिक्षा एक समान।
क्या ही अच्छा हो यदि जिलाधिकारी और उसके चपरासी के बच्चे एक साथ पढ़ें। अभी तो महंगे विद्यालयों के चपरासी और चौकीदार के बच्चे भी कहीं और पढ़ते हैं। शासन ने जिन विद्यालयों को सस्ती भूमि दी है, वहां कुछ प्रतिशत गरीब छात्र लेना अनिवार्य किया है; पर इसके विरोध में विद्यालयों के मालिक बार-बार न्यायालय में चले जाते हैं। जहां ऐसे कुछ बच्चे लिये भी गये हैं, वे अमीर बच्चों जैसे कपड़े नहीं पहनते। उन जैसा खाना नहीं लाते। उन्हें छोड़ने और लेने कार या महंगी बसें नहीं आतीं। विद्यालय में कार्यक्रमों के लिए वे मोटा चंदा नहीं दे सकते। अतः वे हीनभावना से ग्रस्त होकर कक्षा में सबसे पीछे जा बैठते हैं। अमीरों के बच्चे उनसे बोलते और खेलते नहीं हैं। अर्थात वहां भी ऐसे बच्चों का एक अलग वर्ग बन जाता है।

निकट शिक्षा – इस बीमारी से निबटने का सूत्र है निकट शिक्षा। अर्थात हर बच्चे को पास के विद्यालय में ही पढ़ना चाहिए। डा. लोहिया कहते थे कि घर से एक कि.मी. के दायरे में स्थित विद्यालय में पढ़ना हर बच्चे का हक है; पर इन दिनों बच्चे सुबह छह बजे से टैक्सियों में बैठकर दस-बीस कि.मी. दूर पढ़ने जाते हैं। वे इतनी जल्दी शौचादि से निवृत भी नहीं हो पाते। अतः नहाना और नाश्ता तो बहुत दूर की बात है। मां फ्रिज में रखे रात के परांठे और सब्जी उसके डिब्बे में रख देती है, जिसे वह बनने के दस-बारह घंटे बाद खाता है। वह सप्ताह में दो-तीन बार शाम को नहाता है। ऐसे में उसका स्वास्थ्य कैसे ठीक होगा, यह सोचने की बात है।

मातृभाषा में शिक्षा – पूरी दुनिया में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाती है; पर भारत अब तक भाषायी गुलाम है। कोई यह नहीं बताता कि प्राचीन भारत में क्या हाथ-पैर नहीं टूटते थे; क्या मधुमेह या मोतियाबिंद जैसे रोग नहीं थे ? यदि हां, तो क्या इनका इलाज नहीं होता था ? यदि गणित नहीं था, तो चांद, सितारों और ग्रहों की गति कैसे नापते थे ? सौ साल बाद कुंभ की तिथियां शतवर्षीय पंचांग में आज ही देखी जा सकती हैं; पर अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को समाप्त कर दिया। आजादी के बाद नेहरू भी उसी राह पर चले और बाकी कसर राजीव गांधी ने पूरी कर दी।
अंग्रेजी का मोहजाल तोड़ने के लिए सरकारी नौकरी में अंग्रेजी को महत्व देना बंद करना होगा; पर दुर्भाग्यवश सभी दलों के अधिकांश बड़े नेता अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर हैं। ऐसे में गरीबों के वे बच्चे आगे कैसे बढ़ेंगे, जिनके मां-बाप अंग्रेजी नहीं जानते ?

इसलिए यदि आरक्षण समाप्त करना है, तो शिक्षा व्यवस्था सुधारनी होगी। न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि उच्च शिक्षा में योग्यता ही एकमात्र कसौटी होनी चाहिए। अतः पैसे लेकर मूर्खों को डॉक्टर और इंजीनियर बनाने वाली दुकानें बंद होनी चाहिए। सभी देशप्रेमियों को चाहिए कि वे अपनी ऊर्जा सही दिशा, अर्थात शिक्षा में सुधार के लिए लगाएं। जब सब बच्चे दौड़ के लिए एक रेखा पर खड़े होंगे, तभी पता लगेगा कि किसमें कितना दम है ?

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  1. आरक्षण हटना इस देश में मुमकिन नहीं , यह हमारे संविधान निर्माताओं की एक बहुत बड़ी चूक थी , उन्हें उस समय ही इसे आर्थिक आधार पर इसका प्रावधान करना चाहिए था , उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ियों की समझ व जिम्मेदारी पर कुछ ज्यादा ही विश्वास कर लिया यह तो सुप्रीम कोर्ट की दृढ़ता की वजह से बढ़ नहीं पा रहा लेकिन हमारी सरकारें तो हर तरह से इसे बढ़ाने पर तुली ही हैं चाहे वे किसी भी दल की क्यों न हो
    आरक्षण से मुक्ति पाने का तरीका एक मात्र यह है कि जो भी जाती इसे प्राप्त करना चाहे उसे दे दिया जाये लेकिन यह भी कह दिया जाये कि उसके बाहर उन्हें सामान्य कोटे में जाने का अधिकार नहीं होगा यह दोहरा लाभ नही मिलना चाहिए
    दूसरे एक परिवार में जब एक पीढ़ी ने आरक्षण लाभ ले लिया है तो भविष्य में उसे दूसरी पीढ़ी या अन्य को इसका लाभ नहीं मिलेगा अन्यथा कुछ परिवार ही अब की तरह फलते फूलते रहेंगे व अन्य ऐसे ही पिछड़े पड़े रहेंगे , क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ाने का सिलसिला रुकना चाहिए

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