भारत को एक वैश्विक खेल शक्ति बनाने का संकल्प करें / लालकृष्ण आडवाणी

हाल ही में सम्पन्न हुंए लंदन ओलम्पिक खेलों में भारत के प्रदर्शन से मुझे खुशी भी हुई और दु:ख भी। खुशी इसलिए कि 2012 के ओलम्पिक में हमें प्राप्त 6 पदक – दो रजत और चार कांस्य – अब तक के हमारे इतिहास में सर्वाधिक हैं। यदि कोई चाहे तो इस तथ्य से भी राहत महसूस कर सकता है कि 2008 में बीजिंग ओलम्पिक में प्राप्त पदकों से यह दुगुने हैं। इस उपलब्धि पर मैं भी अन्य भारतीयों की तरह प्रसन्नता महसूस कर रहा हूं। अत: लंदन में इन सभी 6 पदकों – विजय कुमार को शूटिंग में रजत, फ्री स्टाइल कुश्ती में रजत जीतने वाले सुशील कुमार, शूटिंग में गगन नारंग द्वारा कांस्य, महिला बॉक्सिंग में कांस्य जीतने वाली एम सी मेरीकॉम (मणिपुरी मां जो राष्ट्र की प्रशंसा का पात्र इसलिए बनी कि उसने दिखा दिया कि वह स्वर्ण पदक जीतने की क्षमता रखती है), योगेश्वर दत्त द्वारा कुश्ती में कास्य, और महिला बैडमिंटन सिंग्लस में 22 वर्षीया हैदराबाद की साइना नेहवाल जिसने अपनी प्रतिभा, साहस और दृढ़ इरादे से करोड़ों भारतीयों का दिल जीता, द्वारा कांस्य पदक – जीतने वालों को मेरी हार्दिक बधाई। साइना ने प्रदर्शित किया कि वह बैडमिंटन में चीन के एकाधिकार को चुनौती देने की निश्चित रूप से क्षमता रखती है।

मेरे पार्टी अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी, मेरे पार्टी सहयोगी डा. विजय कुमार मल्होत्रा और केंद्रीय खेल मंत्री श्री अजय माकन के साथ-साथ मुझे भी देश के लिए प्रशंसा अर्जित करने वाले इन विजेताओं का अभिनन्दन और सम्मानित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

इन छ: विशिष्ट खिलाड़ियों के साथ-साथ लंदन जाने वाला भारतीय खेल दल एवं वे सभी कोच जिन्होंने इन खेलों के लिए हमारे लड़के और लड़कियों को तैयार किया – सभी पृथ्वीराज रोड स्थित मेरे निवास पर एक छोटे मगर प्रभावी कार्यक्रम में उपस्थित थे।

जैसाकि शुरू में ही मैंने कहा कि मैं दु:खी भी हूं। 1.2 बिलियन लोग, जो दुनिया की आबादी का एक-छटा हिस्सा बनते हैं, केवल 6 पदक – और वह भी इस बार कोई स्वर्ण नहीं जीत पाया जबकि बीजिंग में अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण जीता था – एक निराशाजनक तथ्य है। इसका अर्थ यह निकला कि लंदन में दिए गए कुल 962 पदकों में से भारत केवल 0.06 प्रतिशत ही जीत पाया। वस्तुत: अब तक के हुए ओलम्पिक खेलों में भारत मात्र 26 पदक ही जीत पाया है। इस तथ्य की तुलना कीजिए अमेरिका (जनसंख्या 31.5 मिलियन) ने 104 पदक; चीन (जोकि जनसंख्या के मामले में भारत से जरा सा आगे है) ने 88 पदक; और यहां तक कि ब्रिटेन (जनसंख्या: 62 मिलियन) ने 29 स्वर्ण सहित 65 पदक जीते। जोकि उसके द्वारा बीजिंग ओलम्पिक में जीते गए (47 पदकों जिसमें से 19 स्वर्ण थे) से ज्यादा हैं।

मेरी उदासी उस समय और बढ़ जाती है जब मैं कुछे ऐसे देशों को देखता हूं जोकि भारत से काफी छोटे हैं मगर पदक तालिका में कहीं ज्यादा ऊपर हैं।

दक्षिण कोरिया जोकि 1960 के दशक तक विकास के संदर्भ में भारत से काफी पीछे था और जिसकी जनसंख्या सिर्फ 50 मिलियन है, ने 13 स्वर्ण सहित 28 पदक जीते हैं। यहां तक कि उत्तरी कोरिया, जोकि दुनिया का सर्वाधिक अलग-थलग देश, जिस पर एक तानाशाह कम्युनिस्ट शासन चलता है, भी कुल 6 में से 4 स्वर्ण जीता है।

प्रत्येक ओलम्पिक के पश्चात्, मैं एक अन्य छोटे कम्युनिस्ट देश (जनसंख्या 11.2 मिलियन) जोकि एक अलग प्रकार से अलग-थलग है यानी क्यूबा के प्रदर्शन को देखता हूं। खेलों में इसका प्रदर्शन सदैव प्रभावी रहता है। इस वर्ष भी क्यूबा ने अपनी पुरानी परम्परा को 5 स्वर्ण सहित 14 पदक जीतकर कायम रखा है।

गत् बुधवार (8 अगस्त) को नई दिल्ली से प्रकाशित हिन्दुस्तान टाइम्स के प्रथम पृष्ठ पर विश्व ओलम्पिक में, हाँकी में भारत के खराब प्रदर्शन पर बैनर हेडलाइन छपी है। हेडलाइन निम्न है:

ए न्यू लो फॉर (A new low so far)

इंडियन हॉकी: (Indian Hockey)

प्लेड 5; लॉस्ट 5 (Played 5: Lost 5)

बैनर के बाद एक सिंगल कॉलम में ‘बैड टु वर्स‘ (Bad to worse) शीर्षक प्रकाशित हुआ है और यह तुलना दी गई है:

एटलान्टा (अमेरिका) 1996 : फिनिस्ड 8

लंदन (ब्रिटेन) 2012 : विल प्ले साऊथ अफ्रीका

टू एवायड (12th) फिनिश

11 अगस्त, शनिवार को भारत दक्षिण अफ्रीका के साथ अंतिम मैच इसलिए खेला ताकि निर्णय हो सके कि दोनों में कौन 11वें और कौन 12वें क्रम पर रहेगा। ये दोनों टीमें अपने पूर्व के मैचों में एक भी मैच नहीं जीत सकी थीं। इस अंतिम मैच में भी भारत सबसे निचले स्थान पर रहा। दक्षिण अफ्रीका से 2-3 के मुकाबले हारने पर भारत का यह स्थान रहा।

गत् सप्ताह भारत के इस दयनीय प्रदर्शन ने मुझे मेरे करांची के स्कूली दिनों की याद दिला दी। उन दिनों यानी 1930 और 1940 के दशक में हॉकी में भारत का कोई मुकाबला नहीं था। वह दुनिया में सबसे शीर्ष पर थी। जिस सेंट पैट्रिक हाई स्कूल में मैं पढ़ा, वहां के दो अध्यापक हॉकी टीम में थे, जो ओलम्पिक में खेली थी। यह वह समय था जब हॉकी के जादूगर ध्यान चन्द ने दो मौकों पर टीम की कप्तानी की थी। श्री रूपसिंह उनके फुर्तीले सहयोगी थे।

1936 में बर्लिन ओलम्पिक में ध्यान चन्द की कप्तानी में भारत पांच मैच खेला। 38 गोलों से पांचों में जीता और केवल एक गोल अपने पर होने दिया और वह भी फाइनल में।

उस वर्ष ओलम्पिक में, हॉकी में भारत का प्रदर्शन का सार यह था:

भारत बनाम जापान 9-0

भारत बनाम हंगरी 4-0

भारत बनाम अमेरिका 7-0

सेमीफाइनल: भारत बनाम फ्र्रांस 10-0

फाइनल: भारत बनाम जर्मनी 8-1

विश्व ओलम्पिक प्रत्येक चार वर्ष बाद होते हैं। लेकिन 1936 के पश्चात् द्वितीय विश्व युध्द के चलते अगला ओलम्पिक 1948 में हुआ। 1936 की भांति, 1948 के लंदन ओलम्पिक में भी भारत स्वर्णं पदक जीता।

1928 से जब भारत ने ओलम्पिक में, हॉकी में जयपाल सिंह की कप्तानी में पहली बार भाग लिया तब से ओलम्पिक में भारत का रिकार्ड आठ बार स्वर्ण जीतने का रहा – एम्सर्डम (1928), लास एंजेल्स (1932), बर्लिन (1936), लंदन (1948), हेलसिंकी (1952) और मेलबॉर्न (1956) – (इन छहों ओलम्पिकों में लगातार) तथा बाद में टोक्यो (1964) और मॉस्को (1980) में।

और जहां तक हॉकी का सम्बन्ध है, उसमें 2012 में घटित घटनाक्रम से सभी का चिंतित होकर यह पूछना स्वाभाविक है: ”आखिर कहां हमसे चूक हुई? कैसे हम इस स्थिति को बदल सकते हैं?”

***

एक सवाल मेरे दिमाग में बार-बार उठता है कि क्रिकेट को छोड़, लगभग सभी अन्य अंतर्राष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में भारत क्यों पिछड़ा हुआ है? मैं क्रिकेट प्रेमी हूं, मेरे घर पर क्रिकेट सितारों का अक्सर आना रहता है क्योंकि वे मेरे क्रिकेट प्रेमी सुपुत्र जयंत के दोस्त हैं। हालांकि, सभी देशभक्त भारतीयों की भांति, मैं भी चाहता हूं कि अधिक से अधिक अंतर्राष्ट्रीय खेल टूर्नामेंटों, विशेषकर उसमें सर्वाधिक बड़े खेल-ओलम्पिक के पदक मंच पर गर्व से हमारा तिरंगा फहराए। यह क्यों नहीं हो रहा?

यह प्रश्न उस समय और जटिल हो जाता है जब हम अपने को स्मरण कराते हैं कि सन् 2012 में भारत आर्थिक रुप से वैसा कमजोर नहीं है जैसाकि कुछ दशक पहले था। आज हमारा देश विश्व अर्थव्यवस्था का एक मुख्य संचालक है। कम से कम भारत के कुछ हिस्से प्रभावशाली रुप से समृध्द हुए हैं, और कम से कम समाज का एक वर्ग, विश्व के सभी देशों के प्रभावशाली तबकों जैसा भौतिक सुख उठा रहा है। हमारा मध्यम वर्ग भी तेजी से फैल रहा है। सूचना प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में अब भारत को एक वैश्विक शक्ति माना जाता है। दुनिया भर में दर्शकों के चलते बॉलीबुड, हॉलीबुड से प्रतिस्पर्धा में है। फिर भी, दु:खद यह है कि यह सब अंतर्राष्ट्रीय खेलों में भारत के प्रदर्शन में अभिव्यक्त नहीं हो रहा।

मुझे लगता है कि एक ठोस और गंभीर बहस का समय आ गया है, उसके साथ ही भारत को दुनिया में एक खेल शक्ति बनाने हेतु सभी स्तरों पर आवश्यक कदम उठाने का। इस विषय पर मैं एक छ: सूत्री एजेण्डा सभी के सम्मुख रखना चाहता हूं।

1- अंतर्राष्ट्रीय खेलों में किसी भी राष्ट्र के अच्छे प्रदर्शन के लिए पूर्व शर्त यह है कि वह राष्ट्र पहले खेलों को जन गतिविधि बनाए। भारत को अपनी समूची जनसंख्या के लिए खेलों हेतु अवसर और सुविधाएं प्रदान करने के उद्देश्य से एक ‘राष्ट्रीय मिशन‘ शुरु करना चाहिए। जब तक खेलों के पिरामिड का निचला हिस्सा व्यापक और मजबूत नहीं बनता तब तक यह पिरामिड के उच्चतम हिस्सों पर पर्याप्त संख्या में खिलाड़ियों को नहीं भेज सकता जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलतापूर्वक खेल सकें। दूसरे शब्दों में, शिखर पर उत्कृष्टता हासिल करने के लिए निचले स्तर पर विस्तार होना एकदम अनिवार्य है।

2- इसके लिए खेल सुविधाओं का व्यापक स्तर पर निर्माण करना होगा। हमारी हाऊसिंग, बसाहट और शहरी योजना नीतियों में ही सभी के लिए खुला स्थान, खेल मैदान और खेल सुविधाओं का अर्न्तनिहित और अनिवार्य प्रावधान करना होगा।

3- मैं मानता हूं कि हमारी राष्ट्रीय नीति में स्कूल और कॉलेजों में खेल सुविधाओं के प्रावधान को अनिवार्य रुप से प्राथमिकता देनी चाहिए। भारत में खेल प्रतिभाएं तब तक पल्लवित नहीं हो सकती जब तक हमारे बच्चे और युवा बड़ी संख्या में खेलों में भाग नहीं लेते।

4- बार-बार इस पर जोर देना महत्वपूर्ण होगा कि खेलों को जन गतिविधि बनाने से ही एक स्वस्थ राष्ट्र बनेगा। फिटनेस और स्वास्थ्य को एक राष्ट्रीय आंदोलन बनाने के लिए इससे अधिक प्रभावी, कम लागत वाला और सर्व उपलब्ध योग ज्यादा कुछ और नहीं हो सकता। मैं यहां पिछले वर्षों में बाबा रामदेव द्वारा योग लोकप्रिय बनाने में उनके चमत्कारिक योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा। योग और प्राणायाम को सभी जगह और प्रत्येक आयुवर्ग के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

5- यद्यपि मैं भारतीय क्रिकेट का बड़ा प्रशंसक हूं, फिर भी मैं मानता हूं कि व्यापक चेतना और संसाधन आवंटन के मामले में क्रिकेट और खेलों के मामले में बड़ी और महंगी……..को दूर करना अब अत्यावश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कॉरपोरेट प्रायोजन, विज्ञापन, टीवी पर समय आवंटन इत्यादि नीति में एक मजबूत राष्ट्र-स्तरीय हस्तक्षेप।

6- अंत में, हमें याद रखना चाहिए कि खेलों में उत्कृष्टता राष्ट्रीय गौरव से मजबूती से जुड़ी है। मैं अपने अधिकांश राजनीतिक भाषणों में बार-बार यह कहता हूं कि हम 21वीं सदी को भारत की सदी बनाने का संकल्प लें। इससे मेरा तात्पर्य है कि भारत अर्थव्यवस्था, शिक्षा, विज्ञान और प्रोद्यौगिकी, कला एवं संस्कृति और वैश्विक कूटनीति में वैश्विक शक्ति बने। इसका यह भी अर्थ है कि भारत मानव विकास सूचकांक में शीर्ष राष्ट्रों में हो और वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांक में सबसे नीचे।

आज के ब्लाग के संदर्भ में, मैं 21वीं सदी को भारत की सदी बनाने के लिए एक और महत्वपूर्ण कसौटी जोड़ना चाहूंगा: कैसे शीघ्रता से भारत एक वैश्विक खेल शक्ति भी बन सकता है?

1 COMMENT

  1. अडवानी जी की पीड़ा हर देशभक्त भारतीय की पीड़ा है. आखिर हमारे पिछड़ने का कारण क्या है ? मुझे लगता है की जब तक इस देश की बाग़-डोर अपराधियों और महा भ्रष्ट लोगों के हाथ में रहेगी, तबतक देश किसी भी क्षेत्र में शायद ही आगे बढ़ पाए.

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