बिहार के चुनाव परिणामों की प्रतिक्रिया

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

बिहार विधान सभा के चुनाव परिणाम आ चुके हैं । आठ नबम्बर को जब परिणाम आने शुरु हुये तो मैं कोलकाता में था । वहीं मैंने राजा राम मोहन राय फांऊंडेशन के अतिथि गृह में सुबह आठ बजे परिणाम सुनने शुरु किये । दस बजे तक मैं वहाँ बैठा रहा । तब तक भारतीय जनता पार्टी की बढ़त महागठबंधन से लगभग बीस पच्चीस सीटों पर ज़्यादा चल रही थी और विभिन्न चैनलों पर यह चर्चा शुरु हो गई थी कि भाजपा दो तिहाई बहुमत की ओर बढ़ रही है । दस बजे मैं गोल पार्क की ओर निकला , जहाँ मुझे नई शिक्षा नीति पर हो रहे एक सैमीनार में भाग लेने के लिये जाना था । चुनाव परिणाम जानने की उत्सुकता के चलते मैं सैमीनार के लिये काफ़ी लेट हो गया था । सैमीनार नौ बजे शुरु हो चुका था । लेकिन मैं अभी गोलपार्क पहुँचा भी नहीं था कि फ़ोन आने शुरु हो गये कि भाजपा , महा गठबंधन से पिछड़ रही है । लेकिन जब तक मैं गोल पार्क पहुँचा , जो साल्ट लेक सिटी से काफ़ी दूर है, तब तक समाचार आने शुरु हो गये थे कि भाजपा केवल पिछड़ ही नहीं बल्कि काफ़ी पिछड़ रही है । दो बजते बजते हल्ला पड़ गया था कि भाजपा केवल पचास साठ सीटों पर सिमट रही है । लेकिन अब आश्चर्य भाजपा के हारने पर नहीं बल्कि सोनिया कांग्रेस द्वारा २६ सीटें ले जाने पर व्यक्त किया जा रहा था और उससे भी ज़्यादा लालू के आर जे डी द्वारा ८० सीटें हथिया कर नीतिश कुमार के जेडी(यू) को भी ७१ तक टिके रहने के लिये विवश करने पर हो रहा था ।
अब मामला चुनाव परिणामों के गंभीर विश्लेषण पर आ टिका है । जीतने वाले पक्ष को , मैं क्यों जीता , इसका विश्लेषण करने की जरुरत नहीं होती , क्योंकि जीतने के तो हज़ार कारण गिनाए जा सकते हैं और आम तौर जीतने वाला पक्ष गिनाता भी है । लेकिन हारने वाले पक्ष की हालत ज़्यादा करुणाजनक होती है । उसे पराजय के कारण जानने के लिये बाक़ायदा पोस्टमार्टम करना होता है । यह सबसे ज्यादा कष्टकारक होता है । इतना ही नहीं यह पोस्टमार्टम भी पार्टी के भीतर के डाक्टरों को ही करना होता है । घर का डाक्टर निष्पक्ष रपट देगा , यह सदा संदेहास्पद ही होता है । भारतीय जनता पार्टी की पराजय को लेकर जो हाहाकार मचा हुआ है उसका एक कारण पोस्टमार्टम की ऐसी अधकचरी रपटें भी हैं । शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि यदि उनको मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाता तो यक़ीनन नतीजे कुछ और होते । यह ब्रह्मज्ञान भी उन्हें नीतिश कुमार के घर जाकर उन्हें बधाई देने के बाद ही हुआ । शायद नीतिश कुमार ने ही कह दिया हो कि , बिहारी बाबू यदि आपकी पार्टी ने आपको मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया होता तो आपकी आँधी के आगे तो मैं कहीं ठहर ही नहीं सकता था । बिहारी बाबू यानि शत्रुघ्न सिन्हा की सहज बुद्धि ने इस पर विश्वास कर लिया और उन्होंने बाहर आकर इसका हल्ला भी मचाना शुरु कर दिया । जबकि सिन्हा स्वयं भी अच्छी तरह जानते हैं कि जिन जातीय समीकरणों से नीतिश-लालू की जोडी चुनावों में हिट हुई है , उन समीकरणों में वे कहीं कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं देते । लेकिन जैसा कि कहा गया है , हारे हुये को राह चलता आदमी भी दो तीन उपदेश दे ही जाता है , फिर ये लोग तो घर के लोग हैं । उपदेश देने का अधिकार घर के लोगों को तो होता ही है । वैसे कोई कहता कि जीतन राम माँझी को मुख्यमंत्री के तौर पर उभारा जाता , तो भी मैं विश्वास कर लेता लेकिन शत्रुघ्न को मुख्यमंत्री घोषित कर देने से नतीजे बदल जाते इस पर शायद दिल से तो वे स्वयं भी विश्वास नहीं करते होंगे ।
वैसे इस प्रश्न पर एक और लिहाज़ से भी विचार करना ठीक रहेगा । मान लो यदि भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीत लेती , तब विश्लेषक आसानी से यह कह देते कि किसी को मुख्यमंत्री के तौर पर न उभारने का भाजपा को लाभ मिला क्योंकि यदि पार्टी किसी एक व्यक्ति को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर उभार देती तो प्रदेश के सभी नेताओं में अन्तर्कलह भी होती और पार्टी को हराने की कोशिश भी की जाती ताकि मुख्यमंत्री के तौर पर उभारा गया व्यक्ति मुख्यमंत्री न बन सके । अपना बात को पुख़्ता करने के लिये हरियाणा का उदाहरण तो आसानी से दिया ही जा सकता था , जहाँ पार्टी ने किसी को भी भावी मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया था और चुनाव जीत लिया था । दरअसल चुनाव परिणाम आ जाने के बाद विश्लेषण करने वालों को एक सुविधा होती है । उन्हें हवा में तीर नहीं छोड़ने होते बल्कि उस घटना का विश्लेषण करना होता है जो घटित हो चुकी है और ठोस परिणाम सामने पड़ा होता है । लेकिन जिस पार्टी को चुनाव लड़ ना होता है , उसे सारी रणनीति संभावना और अनुमान पर खड़े होकर ही बनानी होती है । वह रणनीति सही भी हो सकती है और ग़लत भी । पार्टी संभावना और अनुमान के धरातल पर खड़ी होती है और विश्लेषक ठोस परिणाम पर खड़े होकर लिखता है । रहा मोदी की प्रचार शैली का प्रश्न । यह प्रचार शैली कोई एक जिन में तो विकसित नहीं हुई । गुजरात के चुनावों में भी यही प्रचार शैली होती थी , पिछले लोकसभा चुनावों में भी यही शैली थी और इस बिहार चुनाव में भी वही प्रचार शैली थी । इसी प्रचार शैली से जब मोदी चुनाव जीतते थे तो सभी विश्लेषक इस शैली को भी जीत के कारणों में शामिल करते थे और अब जब इस बार पराजित हो गये , तो विश्लेषकों के लिये वही प्रचार शैली पराजय के कारणों में शामिल होने लगी ।
सतही विश्लेषण आसान होता है , क्योंकि आम तौर पर उस विश्लेषण में हार के वही कारण गिनाए जा सकते हैं जो किसी भी प्रान्त के चुनावों के विश्लेषण में नाम बदल कर प्रयोग किये जा सकते हैं । लेकिन एक बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाजपा को विकेन्द्रीकरण की नीति अपनानी होगी और प्रान्तों में प्रदेश स्तर का विश्वसनीय और प्रामाणिक नेतृत्व विकसित करना होगा । चुनाव शुद्ध प्रबन्धन कौशल से नहीं जीते जा सकते । हर चुनाव में प्रबन्धन तन्त्र की भूमिका होती ही है । लेकिन जब चुनाव जीत लिया जाता है तो कई लोग समझने और समझाने लगते हैं कि यह जीत प्रबन्धन तन्त्र के कारण ही हुई है । जबकि जीत में प्रबन्धन तन्त्र की भूमिका गौण ही होती है प्रमुख नहीं ।
लोकतन्त्र में लोक भाषा में लोक संवाद सबसे बड़ी बात है । लालू इसमें माहिर हैं । दिल्ली में बैठे लोगों को लालू की यह कला हास्यस्पद लग सकती है , लेकिन उसकी ताक़त को पहचानना होगा क्योंकि उसी के बलबूते लालू ने ८० सीटें जीत कर नीतिश को भी उसकी औक़ात बता दी है ।
देश में अभी भी नरेन्द्र मोदी की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता बरक़रार है । प्रान्तों में उसका लाभ उठाने की ज़िम्मेदारी प्रादेशिक नेतृत्व को ही निभानी होगी ।

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