क्या शिक्षा बन पाएगा अधिकार ?

कपिल बी. लोमियो

जहाँ एक ओर माननीय सुप्रीम कोर्ट का शिक्षा सम्बन्धी अधिकार देकर सभी बच्चों, विशेषकर गरीब और वंचितो को, शिक्षा के प्रकाश से आलोकित करना है, वही कुछ निजी संस्थाऐं इस आदेश को अपने लिए घातक बताकर इसका पुरज़ोर विरोध करने पर आमादा है। कारण, एक तो निम्न आयवर्गीय परिवार के बच्चों को अपने ’’चमकीले’’ स्कूलों में दाखिला देकर उसमें लगने वाले ’’दाग’’ से चिंतित है, वही दूसरा 25 प्रतिशत सीटें (माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार) ऐसे बच्चों के लिए सुरक्षित रख वे उन सीटों को किन्ही धनाढ्य वर्गीय बच्चें को देकर उससे मिलने वाले सालाना आय से भी हाथ धोऐंगे।

देश में किस तरह से शिक्षा ने एक व्यवसाय का रूप ले लिया है, इसका अंदाजा आजकल हर गाँव, कस्बे, शहर में तेज़ी से खुलते इन स्कूलो को देखकर लगाया जा सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश सरकार पर एक तमाचा और सीख की तरह भी देखा जा सकता है, क्योंकि इस निर्देश को देकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आम जनमानस की उस अवधारणा को लगभग अपनी सहमति भी दे दी है जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए किसी निजी, अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्था की ओर रूख करता है। सरकारी स्कूलों का हाल किसी से छुपा नही है, जो मिड-डे मील और अपने शिक्षकों को मोटी पगार के रूप में किसी प्राइवेट स्कूल का तीन गुना या चैगुना खर्च कर रहा है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण और रोजगारपरक शिक्षा देने में पंगु साबित हो रहा है। कारण है इनके जीर्ण-शीर्ण भवन, जो कभी भी गिर जाते है, शिक्षकों का विद्यार्थियों को शिक्षा देने से ज्यादा केवल तनख्वाह लेने में रूचि, शिक्षको से शिक्षण कार्य के अतिरिक्त दूसरे कार्यो में सहभागिता आदि है। इसके अलावा जिस प्रकार से अन्य कोई सरकारी विभाग घूसखोरी का पर्याय बन जाता है, उसी तरह शिक्षा विभाग भी उससे अछूता नही है। कही मिड-डे मील का घोटाला तो कही पाठ्य पुस्तकों से सम्बन्धित घोटाला। केवल सरकारी स्कूल ही क्यों घोटालें में तो आजकल निजी इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट काॅलेज को भी काफी रास आ रहे है जिन्होने हजारों की तादाद में फर्जी छात्रांकन बताकर करोड़ो का छात्रवृत्ति और शुल्क प्रतिपूर्ति घोटाला कर दिया।

इन बातों को कुछ समय के लिए भुला भी दिया जाए तो भी इन वंचित छात्रों के लिए किसी मंहगे निजी संस्थान मे पढ़ना इतना आसान न होगा। एक तो ऐसे छात्रों को कहीं न कहीं हीन भावना जरूर घेरेगी जब वे उच्च मध्यमवर्गीय और धनाढ्य वर्ग के बच्चों के बीच अपने आपकों उनसे कही नीचा पाऐंगे, दूसरा यदि ऐसे छात्रों को कोर्ट के निर्देश पर निजी संस्थानों ने अपने यहाँ दाखिला दे भी दिया तो भी इस बात की आश्वस्ता नही होगी कि ऐसे बच्चों पर शिक्षकगण या स्कूल का प्रबन्धतंत्र समुचित ध्यान देगा चाहे वह शिक्षा हो या फिर शिक्षण से इतर अन्य गतिविधियों में। इसके अलावा सबसे अहम प्रश्न है कि क्या ऐसे बच्चों के अभिभावक इन निजी शिक्षण संस्थाओं की पाठ्य पुस्तकों का, जिनकी कीमतें हर साल बढ़ जाती है, का खर्चा वहन कर पाऐंगे? इसके अतिरिक्त तमाम तरह की अन्य गतिविधियों के खर्चे अलग से। जाहिर है सर्वोच्च न्यायालय को यह सुनिश्चित करने के साथ साथ निजी स्कूलों को यह भी निर्देशित करना होगा कि ऐसे बच्चों को न केवल निजी संस्थाओं में दाखिला ही मिले बल्कि अन्य बच्चों की तरह ही सम्मान से शिक्षा प्राप्त करने और अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास करने का भी मौका मिले।

इसके अलावा इन बच्चों को शिक्षा दिलाने में एक और विकट समस्या है बहुत से ऐसे बच्चों का रोजगारों में संलग्न होना। बताने की जरूरत नही है कि हमारे देश में बालश्रम किस स्तर तक है। जहाँ तक किसी बच्चें का बालश्रम में संलग्नता का प्रश्न है तो सबसे प्रमुख कारण तो उसके अभिभावकों का गरीब होना ही है, जिस वजह से उन्हे अपने बच्चों को पैसा कमाने के लिए काम पर भेजना पड़ता है, निसंदेह इसमें कुछ अपवाद भी है जैसे कुछ जगहों पर ऐसे अभिभावक भी मिल जाऐंगे जो अपनी बुरी आदतों को पूरा करने के लिए अपने बच्चों की कमाई उपयोग में लाते है, लेकिन देश में ऐसे अभिभावक ज्यादा होंगे जो अपने बच्चें को एक अच्छी शिक्षा दिलाना तो चाहते है लेकिन उन के लिए पेट की आग ज्ञान की ज्योति से ज्यादा मायने रखती है। ऐसे में जरूरत यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वे बच्चें जो अपने घर के अकेले कमाने वाले है, उन घरों के बच्चों को शिक्षा देने के साथ साथ महीने के हिसाब से एक निश्चित राहत आर्थिक रूप भी मिलती रहें जिससे उन्हे अपने बच्चे को रोजगार में फिर न लगाना पड़े। साथ ही ऐसे अभिभावको को भी चिह्ति करना होगा जो अपनी आराम पसंदगी के लिए अपने बच्चों को काम पर लगाते है। ऐसे में अगर ये सामने आता है कि उन अभिभावकों को काम करने की इच्छा जरूर है लेकिन उनके पास काम नही है, तो उन्हे उनके योग्यतानुसार काम दिया जा सकता है, लेकिन यदि वे काम होने पर भी इच्छुक न हो, जैसी स्थिति हमारे देश में भिक्षावृत्ति में देखने को मिलती है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है, तब ऐसे अभिभावकों से उनका अभिभावक होने का अधिकार छीन कर उनके बच्चों को सरकार को अपनी देखरेख में रखना चाहिए क्योंकि ऐसे अभिभावक अपने बच्चों का कुछ भी लाभ नहीं करेंगे।

अच्छा तो यह होता कि सरकार अपने स्वयं के स्कूलों की शिक्षा को ठोस बनाए जिससे न केवल आमजन बल्कि उसके स्वयं के नौकरशाह और कर्मचारीगण अपने बच्चों को उन सरकारी स्कूलें में भेजे, लेकिन यह तभी हो सकता है जब सरकार ऐसे शिक्षक और अधिकारियों को चिह्ति करके अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे जो सरकारी विद्यालयों को केवल ’’सोने का अंडा देने वाली मुर्गी’’ समझते है। साथ ही अपने स्कूलों के पाठ्यक्रमों में आमूल-चूल बदलाव भी लाए जो न केवल समयानुकूल हो बल्कि जिसें ग्रहण कर इन स्कूलों के बच्चे भी निजी संस्थानों के बच्चों से शैक्षणिक क्षेत्र में कदमताल मिला सके।

यूं तो हमारे पूर्व राष्ट्रपति ने अपने सपने में आगामी कुछ सालों में विश्व शक्ति बनने का सपना है, वर्तमान संचार मंत्री ने भी शिक्षा के स्तर में आमूल-चूल परिवर्तन की वकालत की है, लेकिन अगर हम आज अपने वर्तमान, जो हमारे बच्चे है, को नही सम्भल पाए तो कल अपने जवान होने पर खुद स्वयं को और अपने देश को क्या भविष्य दे पाऐंगे इस ख्याल मात्र से ही डर लगता है।

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