ख़ालसा पंथ का उदय तथा श्री गुरु गोबिन्द सिंघ जी के दिशा-निर्देश


30 मार्च सन् 1699 को वैषाखी के दिन श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने आन्नदुपर (पंजाब) में, सभी सिक्खों को एकत्र कर एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया। प्रातः भजन-कीर्तन के पश्चात् उस ऐतिहासिक दिवस पर, श्रद्धालुओं के अपार जन-समूह के सम्मुख हाथ में नग्न तलवार लिए श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने उच्च स्वर में कहा – “है कोई ऐसा जो देश-धर्म के लिए अपने शीश का बलिदान दे सके?” इस बात से पूरे जन-समूह में स्तब्धता छा गई। जब गुरु जी ने दूसरी तथा तीसरी बार वही मांग की, तो लाहौर निवासी भाई दयाराम ‘खत्री’ ने उठकर कहा, “सच्चे पातशाह मेरा शीश प्रस्तुत है.” इसी प्रकार भाई धर्मचंद जाट, दिल्ली, भाई हिम्मराय रसोइया, जगन्नाथपुरी, भाई मोहकमचंद धोबी, द्वारका एवं भाई साहिबचंद नाई, बिदर (कर्नाटक) ने भी अपने षीष गुरु जी को भेंट किये। इन पाँचों के सिर गुरु जी ने धड़ से अलग कर उन्हें पुनर्जीवित किया। पाँचों बलिदानियों को निकट के खेमे में ले जाकर, सुन्दर वस्त्रों एवं षस्त्रों से सुसज्जित करके, अपने साथ खेमें से बाहर लाये तथा उन्हें ‘पंज-प्यारे’ कहकर सम्मानित किया।
निर्मल जल से भरे एक सर्वलौह के बर्तन में गुरु जी ने सर्वलौह के खंडे (एक छोटी एवं दोधारी तलवार) से मंथन करते हुए, गुरुबाणी द्वारा ‘अमृत्’ तैयार किया। श्री गुरु गोबिन्द सिंघ जी ने जाति-पाँति के भेदभाव को मिटाकर, एक ही बर्तन से पंज-प्यारों को ‘अमृत्पान’ कराया, जिसे सिक्ख-धर्म में ‘खंडे की पाहुल-संस्कार’ कहा गया, और उन्हें ‘ख़ालसा’ की पदवी से सम्मानित किया। इसके पश्चात् गुरु जी ने पाँच प्यारों से, उसी बर्तन में पुनः अमृत् तैयार करवाया, और उन पंज-प्यारों से स्वयं भी ‘अमृत्पान’ किया तथा उन पंज-प्यारों से वही दीक्षा ली जो उन्होंने पहले उन पाँचों को दी थी – वह प्रतिज्ञाएं स्वयं कीं जो उनसे करवायी थीं। गोबिन्द राय से गोबिन्द सिंघ बने, उन पाँचों को भी ‘सिंघ’ पदवी से अलंकृत किया।
इस प्रकार श्री गुरु गोबिन्द सिंघ जी ने उपस्थित जन समुदाय को संबोधित करके बताया, कि कायरता एवं भगवान में विश्वास परस्पर विपरीत हैं, और जहाँ इन दोनों का दौरा-दौर हो वहाँ धर्म का प्रादुर्भाव असंभव है। उन्होंने देशवासियों एवं सिक्खों के सम्मुख यह बात स्पश्ट शब्दों में कही, कि अत्याचार और तानाषाही के सम्मुख झुकना अधर्म है, और यह उपदेश दिया कि “तलवार उठाना एवं तानाषाही से टक्कर लेना, जब अन्य साधन न रह गये हों, प्रत्येक दृश्टिकोण से धर्म है।” यह भी खुलकर कहा कि कायरता एवं लाचारी घोर पाप है, और यह धर्म-निश्ठा के सर्वथा विपरीत है।
इस प्रकार के प्रेरणा-पद आदेशों का ही चमत्कार था, कि अकिंचन जन-समुदाय को ‘संत सिपाही’ बना दिया, जिनका धर्मानुराग, पराक्रम और निश्ठा की गाथाएँ चिरकालिक स्मरण की जाएँगी।
अंग्रेज़ इतिहास लेखक-मिस्टर जे. डी. कंनिघम के कथनानुसारः
“श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने एक पराजित जाति की सोई हुई शक्ति को, फिर से उत्तेजित करते हुए सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए, आवेशमय उत्कंठा से भर दिया, जो गुरु नानक जी द्वारा प्रस्तुत की गयी उपासना की विशुद्धता का यथोचित विस्थार थी।”
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की प्रतिभा के अंतर्गत, सांसारिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण का समावेश हुआ। उनकी चिंतनधारा में इन दोनों की कोई सीमा-रेखा न थी, प्रादुर्भूत होने के लिए शक्ति का कोई इंद्रिगोचर रूप होना अवष्यम्भावी था। इसलिए वस्तु-स्थिति का आदिमरूप आँख से ओझल नहीं किया जा सकता था। गुरु जी ने ‘ख़ालसा’ को ‘त्रिरत्न’ से अलंकृत किया। उनके इच्छापत्र में ‘त्रिरत्न’ की देन-देग, तेग, फ़तेह-को पूर्णरुपेण समझने के लिए, इसे विशाल परिकल्पना एवं पूर्ण विस्तार के परिपेक्ष में देखना होगा।
‘देग’ अथवा ‘गुरु का लंगर’ का स्वरूप, आर्थिक क्षमता से ऊपर उठकर अपने भीतर प्रेम, संवेदना, दानशीलता और त्याग का समावेश कर लेना है।
‘तेग’ (शस्त्र) का अर्थ मात्र शारीरिक शक्ति नहीं, यह नैतिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है, जिसके द्वारा तानाशाही से लोहा लेते हुए अंत में उसे पराजित किया जा सका।
‘फ़तेह’ (जीत) के द्वारा ‘अकाल पुरख’ (निराकार ईश्वर) की सर्वोपरि विजय परिलक्षित होती है, क्योंकि अंतिम विजय भगवान की होती है और हमारी प्रत्येक विजय उसी में समा जाती है। इसीलिये श्री गुरु गोबिन्द सिंघ जी ने ख़ालसा को नव-निर्मित जयघोष ‘वाहेगुरु जी का ख़ालसा-वाहेगुरु जी फ़तेह’ से अलंकृत किया। इस जयघोष को प्रदान करने का गुरु जी का तात्पर्य यह था, कि किसी भी विजय के पश्चात् ख़ालसा में अहम् न जगे, ख़ालसा ईश्वर का है इसलिए प्रत्येक विजय भी ईश्वर की है।
निःसंदेह यह इच्छापत्र सिक्ख धर्म की बहुत बड़ी विरासत है। वास्तव में सिक्ख चिंतन की आधार-शिला इसी त्रिरत्न पर आधारित है – देग, तेग एवं फ़तेह।
पतन-काल में कोई भी जाति अथवा राष्ट्र, अपने उत्तराधिकार की अवहेलना करती हुयी छितराने लगती है।. ‘त्रिरत्न’ में जो चिर-सत्य परिलक्षित होता है, उसे पुनः दोहराने की आज जितनी आवश्यकता है, पहले कभी न थी।
आंतरिक पतन द्वारा भीतर से दुर्बल और बाहर से निष्टुर शत्रुओं द्वारा दबे हुए हमारे देश को, अपना आध्यात्मिक स्वास्थ्य सुधारने के लिये पहले के किसी युग में इतनी तलाश न थी।
परंतु आज सिक्ख, गुरुओं के दिशा-निर्देशों को भूलकर कर्मकाण्ड और अज्ञानता की इतनी गहरी खाई में गिर चुके हैं, कि उससे निकलना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। गुरुओं के उपदेशों से विमुख हो कर सिक्खों के क्रियाकलाप, केवल यहीं तक सीमित रह गए हैं-लंगर चलाना (वह लंगर नहीं जो दस गुरुओं द्वारा परिभाषित किया गया-ग़रीबों, भूखों के लिए वरन् केवल स्वयं बनाया, खा लिया), ‘गुरुद्वारों’ के नाम पर भव्य भवनों का निर्माण, और इन भवनों की आड़ में स्वयं के घरों का निर्माण तथा गुरुद्वारा प्रबंधन समितियों के पदों के लिये लड़ाई-झगड़े व छीना-झपटी। श्री गुरु ग्रंथ साहिब को मूर्तियों के समान पूजने तो लगे, परंतु उसमें गुरुओं, संतों, महापुरूषों द्वारा दी हुयी शिक्षा का पालन नहीं किया। जो लोग सिक्ख-पंथ से निष्काषित किये गये तथाकथित ‘बाबा वड्भाग सिंह’ जैसे, अन्य लोगों अथवा डेरेदारों के अनुयायियों द्वारा चलाई गई भूत-प्रेतों को झाड़ने वाली परंपरा के वाहक बने। महान वीर सेनानी, गुरुमत के प्रकाण्ड विद्वान तथा बह्मज्ञान की अवस्था को उपलब्ध, बाबा दीप सिंघ जी एवं महान बलिदानी भाई मनी सिंध जी को, भटकती आत्माएँ सिद्ध करना और उनके नाम से साधारण सिक्खों के खून-पसीने की कमाई को, गुरुद्वारों के भव्य भवनों की आड़ में भूत-प्रेतों को झाड़ने वाले अड्डों का निर्माण करने वालों ने, श्री गुरु ग्रंथ साहिब में सुरक्षित गुरु-ज्ञान का ‘अ’ ‘ब’ ‘स’ भी नहीं जाना तथा समाज में अंधविष्वास को बढ़ावा देना, परंतु फिर भी सीना ठोंक कर अहंकार से, स्वयं को गुरु के सिक्ख कहलाने में तनिक भी संकोच नहीं किया/करते।
सन् 1708 में श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने, गुरु ग्रंथ साहिब और पाँच प्यारों को प्रणाम किया तथा घोशित किया, कि भविष्य में श्री गुरु ग्रंथ साहिब ही सिक्खों के मार्गदर्शक होंगे। उनका यह वचनः
आज्ञा भई अकाल की, तभी चलायो पंथ.
सभ सिक्खन कौ हुकम है, गुरु मान्यो ग्रंथ.
आगे आने वाले समय का, स्पश्ट दिशा-निर्देश था। ईश्वरीय प्रेरणा से अभिभूत होकर भारत के पीडि़त एवं दलित समाज के उद्धार के लिए ही, उन्होंने ‘ख़ालसा पंथ’ का सृजन किया। किसी व्यक्ति विशेष को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त न करके, गुरु ग्रंथ साहिब में समाहित सिक्ख गुरुओं एवं भारत वर्ष के उन्नतीस विभिन्न जाति संप्रदाय के, संतों-भक्तों की वाणियों के आधार पर, जनतांत्रिक ढंग से निर्णय लेने के लिये सिक्खों को अधिकृत किया, ताकि भविष्य में सिक्ख श्री गुरु ग्रंथ साहिब को आगे रखकर, भारत में वर्ण व्यवस्था और भेद भाव से रहित, मानववादी संस्कृति एवं समाज का निर्माण करें। श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी अपनी पैनी तथा दिव्य दृष्टि से देख रहे थे, उनका विश्वास था कि भारत एक न एक दिन दासता की जंजीरों से अवश्य मुक्त होगा, और भारत में जनतांत्रिक प्रणाली ही प्रचलित होगी। इसकी प्राप्ति के लिए उन्होंने सिक्खों को पंचायती ढंग से मिल-बैठ कर, श्री गुरु ग्रंथ साहिब के दिशा निर्देशन में सामाजिक निर्माण के लिये स्पष्ट रूप से अधिकृत किया था।
देश की स्वतंत्रता के पश्चात् जो संविधान बना और जिसके निर्देशन में देश का शासन चलता है, वह तो आज की वस्तु है लेकिन श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने, बहुत पहले ही समस्त भारतीयों तथा विशेष रूप से सिक्खों के लिये, श्री गुरु ग्रंथ साहिब में समाहित रचनाओं के आधार पर, देश के शासन एवं समाज के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। यदि सिक्ख अपने गुरुओं के दिशा-संकेतों को न समझें, तो यह उनकी ही कमी है। भविष्य के लिए गुरुओं के दिशा-संकेतों को न समझकर, सिक्ख देश के एक भाग में ही गुरूमत का प्रभाव प्रस्फुटित होते देखकर, संतुष्ट हो गये और राज्य लिप्सा, यश लिप्सा तथा धन लिप्सा के मोह में पड़कर, आपस में ही लड़ने लगे। जातियों के आधार पर गुरुद्वारों का निर्माण व बँटवारा होने लगा, जैसे कि त्रखाण अथवा रामगढि़या (बढ़ई), जाटों (किसानों), अरोड़ों (खत्रियों), मझबियों (भंगियों) का गुरुद्वारा। द्वार था गुरु का, परंतु जातिगत आधार पर नामकरण करके, गुरुओं द्वारा दी हुयी विरासत का सत्यानाश कर दिया। किंतु सिक्खों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, कि सिक्ख धर्म के प्रचार-प्रसार में उनका कोई विशेष योगदान नहीं है, और यदि कुछ है भी तो वह अति नगण्य है। जो भी आज सिक्ख धर्म का प्रचार और प्रसार दिखाई दे रहा है, वह गुरुओं और उनके बलिदानों की ही देन है।
आखिर भविष्य के लिए गुरुओं के दिशा-निर्देश क्या हैं? इस पर भी विचार करना अति आवश्यक है। ईश्वर भक्ति के अतिरिक्त गुरु नानक जी ने कहा-
“नीचां अंदर नीच जाति, नीची हूँ अति नीच।
नानक तिन कै संग साथ, वड्यां स्यों क्या रीस।”
भावार्थः “निम्न वर्ग में से भी जो अति निम्न वर्ग (पददलित) हैं, मैं उनके साथ खड़ा हूँ। जाति अभिमानी वर्ग उच्चासन पर क्यों न आसीन हो, मेरी उनसे कोई समानता नहीं है” कहकर संकेत दिया कि सिक्खों को भारत के पद-दलितों, और कमज़ोर वर्गों के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति समर्पित करनी चाहिए। पँचम गुरु श्री गुरु अरजन जी ने, भारत के बिखरे हुए अधिकांश निम्न वर्गों के संतों की वाणियों का, गुरु ग्रंथ साहिब में समावेश करके स्पष्ट रूप से कहा, कि सिक्खों को समस्त निम्न और कमज़ोर वर्गों में सिक्ख धर्म का प्रचार एवं प्रसार करना चाहिए। केवल एक क्षेत्र में सिमट कर रह जाना और उससे आगे प्रयत्न न करना, सिक्ख गुरुओं के दिशा-निर्देशों की स्पष्ट अवहेलना है।
यदि सिक्ख, गुरुओं के दिशा-निर्देशों का अनुसरण करके 1.बाबा शेख़ फ़रीद मुस्लिम(पश्चिमी सीमांत-मटन साहिब, कश्मीर), 2.भक्त कबीर जी (जुलाहा), 3.भक्त रविदास जी (चमार), 4.स्वामि रामानंद जी ब्राह्मण (सभी बनारस, उत्तर प्रदेश) 5.भक्त भीखण जी मुस्लिम (काकोरी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश), 6.भक्त सधना जी (सिंध प्रांत-वर्तमान पाकिस्तान), 7.संत नामदेव जी शिंपी, नरसी बाह्मणी, 8.भक्त परमानंद जी ब्राह्मण (महाराश्ट्र-निवास बनारस, उत्तर प्रदेश), 9.भक्त त्रिलोचन जी, बार्शी (सभी महाराष्ट्र), 10.भक्त धन्ना जी जाट, धुआं कलां, जि़ला टोंक (राजस्थान), 11.भक्त वेणी जी, (बिहार), 12.भक्त जयदेव जी, केंदूली, जि़ला बीरभूम (बंगाल), 13.भक्त सैण जी नाई, रीवा (मध्य प्रदेश), 14.भक्त पीपा जी (राजस्थान), 15.भक्त सूरदास जी (केवल 1 पंक्ति-उत्तर प्रदेश), 16.भाई सत्ता जी, 17.भाई बलवंड जी दोनों मुस्लिम (पंचम गुरु अरजन जी के दरबारी कीर्तनकार, पंजाब), 18.बाबा सुंदर जी (तृतीय गुरु अमरदास जी के प्रपौत्र-पंजाब), ग्यारह भाट्ट कवि 19.भट्ट कलसहार जी, 20.भट्ट जालप जी, 21.भट्ट कीरत जी, 22.भट्ट सल्ह जी, 23.भट्ट भल्ल जी, 24.भट्ट नल जी, 25.भट्ट बल जी, 26.भट्ट गयंद जी, 27.भट्ट मथुरा जी, 28.भट्ट हरिवंश जी, 29.भट्ट भिक्खा जी (सभी गौड़ ब्राह्मण-पंजाब) आदि के अनुयायियों से तादात्म्य स्थापित करके, उन संतों-भक्तों की भी जयंति अथवा पुन्यतिथि गुरुद्वारों के भीतर और बाहर, बड़े धूमधाम तथा सम्मान से मनाते, तो सिक्खों और गुरु ग्रंथ साहिब में वर्णित संतों के अनुयायियों से, एक अति ही निकट तादात्म्य स्थापित होता तथा करोड़ों की संख्या में इन संतों के अनुयायी, सिक्खों को अपना ही समझते और जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में उनका साथ देने के लिए तत्पर रहते। सिक्ख धर्म के संबंध में जानकारी का जो अभाव है, वह नहीं रहता। सिक्ख धर्म सामाजिक समता के परिप्रेक्ष्य में संपूर्ण भारत में, महलों से लेकर झोपड़ियों तक जीवंत चर्चा का विशय बना रहता, और सिक्खों के लिए पूरे भारत में उपयुक्त वातावरण निर्मित होता। फिर पंजाब अथवा उसके बाहर अन्य प्रदेशों में ख़ालिस्तान आदि पृथक देश की बेतुकी माँग कभी नहीं उठती, और न ही कभी संपूर्ण पंजाबवासियों को लंबे समय तक आतंकवाद की आग में जलना पड़ता। और हमें सहज ही समझ आ जाता कि अखंड भारत से पृथक राष्ट्र की सोच भी, सिक्खों के लिए घातक है। हमें यह कभी भूलना नहीं चाहिये कि सिक्ख धर्म विशुद्ध भारतीय धर्म है। श्री गुरु गोबिन्द सिंघ जी ने धर्म-गत एवं जातिगत भेदभावों से त्रस्त, मानव समुदाय को सशक्त करके ‘ख़ालसा’ का सृजन किया और पहाड़ी राजपूत राजाओं की, सिक्ख बनने के संबंध में निम्न जातियों के साथ ‘अमृत्-पान’ न कराये जाने की शर्त के उत्तर में कहा, “मैं तो दलितोद्धार के लिए ही जगत में आया हूँ।” भविष्य के लिये इससे अधिक स्पष्ट दिशा-निर्देश श्री गुरु गोबिन्द सिंघ जी और क्या देते?
“यदि सिक्ख पूर्व में ही पददलितों के सम्मान के लिये संघर्ष करने में आगे रहते, और दलितों में यह विश्वास जगा पाते, कि वे अकेले नहीं हैं, सिक्ख उनके दुःख और सुख में उनके साथ हैं, तो आज सिक्ख भारत में सबसे अधिक प्रभावशाली तथा भारत में बहुसंख्यक के विष्वास के संवाहक होते, तो ‘धर्म परिवर्तन’ जैसी समस्या से भी शीघ्र ही छुटकारा मिलता। यदि सिक्खों ने यह सब किया होता, तो शायद भारत में महात्मा ज्योतिबा फुले, डा.. बाबा साहिब भीमराव आम्बेडकर, रामास्वामी नायकर, श्री नारायण गुरु और डा. लोहिया का प्रादुर्भाव ही न होता, क्योंकि इनके द्वारा किया गया दलितों में जागरण का कार्य गुरुओं द्वारा दी गयी विरासत के रूप में, सिक्ख पहले ही कर चुके होते।” (श्री नंद किषोर शर्मा-डा. राममनोहर लोहिया के निजि सचिव-पुस्तिकाः गुरु गोबिन्द सिंघ और उनकी भविष्यवाणियाँ)।
अभी भी कुछ अधिक नहीं बिगड़ा है क्योंकि इसके अतिरिक्त हमारे देश में, अनेकों ज्वलंत समस्याएं हैं उन समस्यायों के समाधान के लिये एकजुट हो कर, हम देश तथा समाज के लाभ में सहभागी बनते हुए सच्चे देशभक्त का गौरव पा सकते हैं, तथा गुरुओं की महान शिक्षाओं को सार्थक कर सकते हैं।

हमारे देशके राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने, गुरु गोबिन्द सिंघ जी के इस चमत्कारिक कार्य से अभिभूत हो कर, एक कविता में अपनी भावनाओं कुछ इस प्रकार से व्यक्त किया थाः
चमत्कार
……………रामधारी सिंह ‘दिनकर’
जमा हुआ था बादशाह का दिल्ली में दरबार, गुरु गोबिन्द सिंघ न्यौते पर मिलने को आये थे।
वर्षों तक थी चली मुग़लों-सिक्खों की तक़रार, गुरु प्रसन्न इस बार शान्ति का संदेशा लाये थे।
उठ कर गले मिले गुरुवर से बड़े प्रेम से शाह, बोले मधुर वचन वैरागी भूपति के वन्दन में।
फिर बिठलाया सिंहासन पर उन्हें पकड़ कर बांह, सभा खड़ी हो गयी धर्म-दिनमणि के अभिनन्दन में।

शील-सुजनता की बातें करते-करते गंभीर-विषय गया छिड़ योग-भोग का, धर्म और दर्शन का।
सुनते-सुनते एक कुटिल काज़ी हो उठा अधीर, बोला, ‘‘महाराज, यह सब कुछ नहीं हमारे मन का।
हमने तो था सुना, आप हैं पहुँचे हुए फकीर, सोचा था, तशरीफ़ आप जब दिल्ली में लायेंगे।
पेश करेंगे सिद्ध योग की कोई नयी नज़ीर, अपना कोई चमत्कार हम सबको दिखलायेंगे।’’

बहुत हुआ फ़लसफ़ा, करम अब करिये कृपा निधान, क्या होगा रुखा-सूखा यह ज्ञान-ध्यान सिखला कर?
अंधा होता है दुनिया में फंसा हुआ इन्सान, आँख खोल दीजिए करिश्मा कोई हमें दिखा कर।’
गुरु ने हँस कर कहा, ‘‘करिष्मे हैं जादू के खेल, इन्हें देख आदमी से नाहक डरता है।
बाजीगरी और मजहब में कहीं नहीं है मेल, चमत्कार तो बस केवल परवरदिगार करता है।

तब भी हो यदि तुम्हें करिश्मे, चमत्कार की चाह, तो देखो, ये बादशाह जो चाहें, कर सकते हैं।
छिपा हुआ है चमत्कार बन कर इनमें अल्लाह, दे सकता है प्राणदान, जीवन भी हर सकते हैं।’’
हँसा दुष्ट काज़ी यह कह कर, ‘‘हां, सो तो है ठीक, पर, योगी भी करामात यदि नहीं दिखला सकते हैं।
तो फिर महायोग की महिमा बिल्कुल हुई अलीक, हम कैसे ईमान साधु-संतों पर ला सकते हैं?’’

तब गुरु ने कुछ सोच, जेब से मोहर एक निकाल, लुढ़का दिया उसे काज़ी की ओर ज़रा मुसका कर।
कहते हुए, ‘‘अरे, सोना है सबसे बड़ा कमाल, पा सकता क्या चीज़ नहीं आदमी कनक को पा कर?’’
तुनक उठा मसखरा, ‘‘नहीं हैं हम बच्चे नादान, जिन्हें आप रंगीन खिलौनों से बहला सकते हैं।
दिखलाइये, अगर दिखला सकते हैं तो, श्रीमान्, चमत्कार वह जो केवल दरवेश दिखा सकते हैं।’

गुरु की आँखें लाल हो उठीं, खिंची भवों पर रेख, खड़ग खींच बोले, ‘‘कृपाण सब ताप जुड़ा सकती है।
काज़ी, सबसे बड़ा करिश्मा, देख सके तो, देख, चाहे तो क्षण में यह तेरा शीश उड़ा सकती है।’’
बादशाह ने थाम लिया घबरा कर गुरु का हाथ, कहते हुए, ‘‘संत की महिमा हिंसा नहीं, दया है।
रहने दें तलवार म्यान में ही शूरों के नाथ! करामात का राज ठीक से काज़ी समझ गया है।’’

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