ऋषि दयानन्द और गांधी जी का हिन्दी प्रेम

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मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानन्द सरस्वती संस्कृत और हिन्दी के प्रचार व प्रसार को मनुष्य का कर्तव्य व धर्म मानते थे। पंजाब में प्रचार करते हुए एक बार उनके एक अनुयायी ने उनसे उनके प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का उर्दू में अनुवाद करने की अनुमति देने का अनुरोध किया तो स्वामी जी को यह सुनकर कुछ क्रोध वा आवेश सा आ गया और उसको कहा कि जिन लोगों को मेरे ग्रन्थों को पढ़ने की इच्छा होगी वह हिन्दी सीखना अपना कर्तव्य समझेंगे। आगे उन्होंने कहा कि जो मनुष्य इस देश में पैदा हुआ, यहां का अन्न खाता, जल पीता और यहां की वायु में श्वास लेता है परन्तु यहां की भाषा हिन्दी को सीखने का प्रयत्न नहीं करता, उस व्यक्ति से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है।

 

देश के स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त, सन् 1947 से एक दिन पहले भाषा के ही कारण देश का विभाजन हुआ था और उसके अगले दिन भारत को आजादी मिली थी। बीबीसी का एक अंग्रेज पत्रकार गांधी जी का साक्षात्कार लेने पहुंचा और उनसे देश व विश्व के नाम सन्देश देने को कहा। गांधी जी ने उससे कहा कि ‘दुनिया कि लोगों से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।’

 

लगभग २० वर्ष पूर्व हमने गुरुकुल कांगड़ी के वार्षिकोत्सव पर पंडित क्षितिज वेदालंकार जी का सम्बोधन सुना था। उन्होंने कहा था कि वर्ष १९४७ में देश के आजाद होने के बाद ब्रिटेन की महारानी भारत आयीं थी। लालकिले के मैदान में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन वा स्वागत समारोह हुआ था। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समारोह में स्वागत भाषण पढ़ा। वह भाषण पूरा कर बैठे तो उन्हें कुछ याद आया और वह फिर खड़े हुवे। उन्होंने माइक थाम कर कहा कि महारानी जी ! आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा प्रयोग बढ़ा है। इसे नेहरू जी के अंग्रेजी प्रेम के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी ओरे स्वामी दयानंद जी ने जोधपुर में वहां के राजा और उनके प्रमुखों को राजकीय कार्यों में हिंदी व स्थानीय स्वदेशी भाषा का प्रयोग करने की प्रेरणा की थी। इतिहास में अंकित है कि एक बार जोधपुर के महाराजा जशवंत सिंह जी के अनुज कुंवर प्रताप सिंह मुकदमों की सुनवाई कर रहे थे। उन्होंने उर्दू के मुकदमों के पत्रों की फाड़ दिया था और हिंदी में दस्तावेज प्रस्तुत करने का आदेश दिया था। यह घटना महर्षि दयानन्द के देशभक्ति से पूर्ण विचारों की प्रेरणा के कारण हुई थी।

 

आज देश में बढ़ रहे अंग्रेजी के प्रयोग को देखकर हमें यह पंक्तियां याद हो आयीं। आज अंग्रेजी बोलना व लिखना एक फैशन सा हो गया है। आज स्थिति यह है कि यदि कोई व्यक्ति दो चार शब्द भी अंग्रेजी के सुन लेता है, तो वह उनको ऐसे प्रयोग करता है जैसे कि वह अंग्रेजी का विद्वान हो। उसे यह पता नहीं होता कि वह अपनी मातृ भाषा और राष्ट्र भाषा का अपमान कर रहा है। हम देशवासियों एवं आर्यसमाज के मित्रों से उपर्युक्त पंक्तियों में निहित ऋषि दयानन्द और गांधी जी की भावना पर ध्यान देने का अनुरोध करते हैं।

 

हमें हमारे उपर्युक्त लेख पर आर्य जगत के प्रसिद्ध युवा यशस्वी ऋषि भक्त विद्वान श्री भावेश मेरजा, भरूच की महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है जिसे हम पाठकों के लाभार्थ यथावत प्रस्तुत कर रहें हैं:

 

“सन् १८७२-७३ ई० में स्वामी दयानन्द जी ने कलकत्ता का प्रवास किया। इसके पश्चात् उनको जनता के समक्ष अपनी बात हिन्दी में रखने का मन हुआ। संस्कृतज्ञ होने से हिन्दी का अब तक उन्होंने खास प्रयोग नहीं किया था, किया भी होगा तो वह स्वल्प मात्रा में रहा होगा। परन्तु अपने जीवन के अन्तिम दस वर्षों में उन्होंने हिन्दी भाषा पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। न केवल अधिकार, उन्होंने इस भाषा को अपना अनन्य योगदान देकर उसे उन्नत- विकसित भी किया । सत्यार्थप्रकाश की हिन्दी की अपनी ही शोभा व सौन्दर्य है। स्वामी जी ने अपना संक्षिप्त ‘आत्मकथन’ लिखा है, उसमें कुछ वाक्य ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर मुझे लगता है कि स्वामी जी को हिन्दी भाषा पर पूर्ण अधिकार था। जैसे कि, ‘आत्मकथन’ का यह वाक्य पढ़िए और उसमें प्रयुक्त स्वामी जी की हिन्दी का सौन्दर्य देखिए –

 

“निकट ही स्वच्छ जल की एक छोटी सी नदी थी। उसके तीर पर बहुत सी बकरियां चर रही थीं । झोंपड़ियों और टूटे-फूटे घरों के द्वारों और छिद्रों में से टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई देता था जो जाते हुए पथिक को स्वागत और बधाई के शब्द सुनाता हुआ प्रतीत होता था।”

 

वेदों के अर्थ का प्रथम बार हिन्दी में आलोक करने वाले आधुनिक युग के इस महर्षि का हिन्दी भाषा के इतिहास में महनीय प्रदान है।”

 

श्री भावेश मेरजा जी के इन महत्वपूर्ण विचारों के साथ ही लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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