ऋषि दयानन्द जी का संन्यासियों को उनके कर्तव्यबोध विषयक उपदेश

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मनमोहन कुमार आर्य

हम सब सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से परिचित है जो ऋषि दयानन्द जी की विश्व को सम्भवतः सबसे बड़ी देन है। संसार के मत-मतान्तरों का कोई ग्रन्थ इस सत्यार्थप्रकाश धर्म-ग्रन्थ की तुलना में वह महत्व नहीं रखता जो कि इस ग्रन्थ का है। इसका कारण इस ग्रन्थ में सभी सत्य विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रतिवादन हुआ है। अन्य मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में कुछ सत्य व बड़ी मात्रा में अविद्यायुक्त बातें हैं। वेदेतर इन  सभी ग्रन्थों का सत्य तो वेद से लिया गया है परन्तु इनके अविद्यायुक्त कथन इन मत-मतान्तरों के अपने अपने हैं। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों की इन अविद्यायुक्त मान्यताओं व विचारों का सत्यार्थप्रकाश के ग्यारह से लेकर चौदहवे समुल्लास में दिग्दर्शन कराने के साथ इनका युक्ति व प्रमाणों के साथ खण्डन भी किया है। ऋषि दयानन्द जी ने तो मत-मतान्तरों के कुछ थोड़े से ही अविद्यायुक्त कथनों को लिखा है जबकि सच्चाई यह है कि इनमें ऐसे विचारों व मान्यताओं की भरमार है। इसका कारण मनुष्य का अल्पज्ञ होना है। सद्ज्ञान केवल वेदों की शरण में जाकर सच्चे ऋषि, विद्वानों व गुरुओं से ही प्राप्त होता है। यह सुविधा ऋषि दयानन्द को प्राप्त हुई थी और इसके साथ ही उनका तीव्र वैराग्यवान होना और संन्यस्त जीवन व्यतीत करना भी विद्या प्राप्ति में प्रमुख कारण रहा है। धन, सम्पत्ति आदि विषयों में आसक्त गृहस्थ व्यक्ति यथार्थ धर्म के ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, कर भी लें तो वह उनके आचरण में नही आ पाता। ऐसा हमारे प्राचीन ग्रन्थ बताते हैं। विद्या ग्रहण करने के लिए श्रद्धालु वा विद्यार्थी का ब्रह्मचर्य का पालन करना भी आवश्यक होता है।

अब हम सत्यार्थप्रकाश से संन्यासियों के लिए ऋषि दयानन्द जी के कुछ उपदेश प्रस्तुत करते हैं। वनों में आयु का तीसरा भाग अर्थात् पचासवें वर्ष से पचहत्तरवें वर्ष पर्यन्त वानप्रस्थ होके आयु के चौथे भाग में पारिवारिकजनों व मित्रादि संगियों को छोड़ कर परिव्राट् अर्थात् संन्यासी हो जावे। गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम न करके संन्यासाश्रम को करने से पाप होता है और नहीं भी होता। यह दो प्रकार की बात नहीं है। जो बाल्यावस्था में विरक्त होकर विषयों में फंसे वह महापापी और जो न फंसे वह महापुण्यात्मा सत्य पुरुष है। जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो उसी दिन गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम से संन्यास ग्रहण कर लेवे। इसमें विकल्प अर्थात् वानप्रस्थ न करे, गृहस्थाश्रम ही से संन्यास ग्रहण कर सकता है। तृतीय पक्ष है कि जो पूर्ण विद्वान जितेन्द्रिय विषय भोग की कामना से रहित परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष हों, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से से संन्यास लेवें। वेदों में भी ‘‘यतयः ब्राह्मणस्य विजानतः” इत्यादि पदों से संन्यास का विधान है। जो दुराचार से पृथकृ नहीं, जिसको शान्ति नहीं, जिसका आत्मा योगी नहीं और जिस का मन शान्त नहीं है, वह संन्यास ले के भी प्रज्ञान (पुस्तकीय ज्ञान व सांसारिक जानकारी) से परमात्मा को प्राप्त नहीं होता। बुद्धिमान् संन्यासी अपनी वाणी और मन को अधर्म से रोके। मन को ज्ञान और आत्मा में लगावे और उस ज्ञान, स्वात्मा को परमात्मा में लगावे और उस विज्ञान को शान्तस्वरूप आत्मा में स्थिर करे।

सब लौकिक भोगों को कर्म से संचित हुए देख कर ब्राह्मण अर्थात् संन्यासी वैराग्य को प्राप्त होवे क्योंकि अकृत अर्थात् न किया हुआ और कृत अर्थात् केवल कर्म से परमात्मा प्राप्त नहीं होता। इसलिये अपने हाथों में कुछ अर्पण के अर्थ लेकर वेदवित् और परमेश्वर को जानने वाले गुरु के पास विज्ञान के लिये जावे। जाके सब सन्देहों की निवृति करे। जो अविद्या के भीतर खेल रहे, अपने को धीर और पण्डित मानते हैं, ये नीच गति को जानेहारे मूढ़ जैसे अन्धे के पीछे अन्धे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं वैसे दुःखों को पाते हैं। ऐसे लोगों का संग छोड़ देना चाहिये। जो बहुधा अविद्या में रमण करने वाले बालबुद्धि यह समझते हैं कि वह कृतार्थ हैं, ऐसा मानते हैं एवं जिस परमात्मा को राग से मोहित होकर केवल कर्मकाण्डी, स्वाध्याय व ध्यान साधना से रहित लोग नहीं जान सकते और न दूसरों को जना सकते हैं, वे आतुर होके जन्म मरणरूप दुःख में गिरे रहते हैं। ऐसे लोगों की संगति न करें।

पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा का पालन, परोपकार, सत्यभाषणादि लक्षण यही एक सब आश्रमियों का अर्थात् सब मनुष्मात्र का धर्म है। अब संन्यासियों के विशेष धर्म की चर्चा करते हैं। जब संन्यासी मार्ग में चले तब इधर-उधर न देख कर नीचे पृथिवी पर दृष्टि रख के चले। सदा वस्त्र से छान कर जल पीये, निरन्तर सत्य ही बोले, सर्वदा मन से विचार कर सत्य का ग्रहण एवं असत्य को छोड़ देवे। जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे तो संन्यासी को उचित है कि उस पर वह क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश ही करे और एक मुख के, दो नासिका के, दो आंख के और दो कान के छिद्रों में बिखरी हुई वाणी को किसी कारण मिथ्या कभी न बोले। अपनी आत्मा और परमात्मा में स्थिर, सभी प्रकार की अपेक्षा से रहित, मद्य मांसादि का त्याग कर, आत्मा ही के सहाय से सुखार्थी होकर इस संसार में धर्म और विद्या के बढ़ाने में उपदेश के लिये सदा विचरता रहे। केश, नख, दाढ़ी, मूंछ का छेदन करवावे। सुन्दर पात्र, दण्ड और कुसुम्भ आदि से रंगे हुए वस्त्रों को ग्रहण करके आत्म-निश्चयपूर्वक सब प्राणियों को पीड़ा न देकर सर्वत्र विचरे।

संन्यासी को इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग-द्वेष को छोड़, सब प्राणियों से निर्वैर वर्तकर मोक्ष के लिये सामथ्र्य को बढ़ाना चाहिये। कोई संसार में उसको दूषित वा भूषित करे तो भी संन्यासी सब प्राणियों के प्रति पक्षपातरहित होकर स्वयं धर्मात्मा और अन्यों को धर्मात्मा करने का प्रयत्न किया करे। संन्यासी अपने मन में यह निश्चित जाने कि दण्ड, कमण्डलु और काषायवस्त्र आदि चिन्ह धारण किये हुए धर्म का कारण नहीं है। इन्हें वह गौण समझे। सब मनुष्यादि प्राणियों को सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है। सभी संन्यासियों को यह स्मरण रखना चाहिये कि जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही प्राणों के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत होते हैं। इसलिए संन्यासी लोग नित्यप्रति प्राणायामों से आत्मा, अन्तःकरण और इन्द्रियों के दोष, धारणाओं से पाप, प्रत्याहार से संगदोष, ध्यान से अनीश्वर के गुणों अर्थात् हर्ष शोक और अविद्यादि जीव के दोषों को भस्मीभूत करें। इसी ध्यानयोग से संन्यासी, अयोगी व अविद्वानों के दुःख व छोटे बड़े पदार्थों में, परमात्मा की व्याप्ति और अपनी आत्मा में अन्तर्यामी परमेश्वर की गति को देखे। सब प्राणियों से निर्वैर, इन्द्रियों के दुष्ट विषयों का त्याग, वेदोक्त कर्म और अत्यन्त उग्र तपश्चरण से संसार में मोक्षपद को संन्यासियों के (सत्यार्थप्रकाश) में निर्दिष्ट कर्तव्यों का पालन करने वाला संन्यासी ही सिद्ध कर सकता है और दूसरों को करा सकते हैं, अन्य नहीं। जो संन्यासी सब भावों में अर्थात् पदार्थों में निःस्पृह, आकांक्षारहित और सब बाहर भीतर के व्यवहारों में भाव से पवित्र होता है, तभी इस देह में और मरण पाने पर निरन्तर सुख को प्राप्त होता है। इसलिये ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानपप्रस्थ और संन्यासियों को योग्य है कि प्रयत्न से धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, इन्द्रिय निग्रह आदि दश लक्षणयुक्त धर्म का सेवन नित्य किया करें। इसी प्रकार से धीरे-धीरे सब संगदोषों को छोड़ हर्ष शोकादि सब द्वन्दों से विमुक्त होकर संन्यासी ब्रह्म ही में अवस्थित होता है। संन्यासियों का मुख्य कर्म अधर्म व्यवहारों से सबको छुड़ा उनके सब संशयों का छेदन कर सत्य धर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत कराना है, इसे ही वह व्यवहृत कराने का प्रयत्न करे।

जो वेदान्त अर्थात् परमेश्वर प्रतिपादक वेदमन्त्रों के अर्थज्ञान और आचार में अच्छे प्रकार निश्चित संन्यासयोग से शुद्धान्तःकरणयुक्त संन्यासी होते हैं, वे परमेश्वर में मुक्ति सुख को प्राप्त होके भोग के पश्चात्, जब मुक्ति में सुख की अवधि पूरी हो जाती है, तब वहां से छूट कर संसार में आते हैं। मुक्ति के बिना दुःख का नाश नहीं होता। जो देहधारी हैं वह सुख दुःख की प्राप्ति से पृथक् कभी नहीं रह सकता और जो शरीररहित जीवात्मा मुक्ति में सर्वव्यापक परमेश्वर के साथ शुद्ध होकर रहता है, तब उसको सांसारिक सुख दुःख प्राप्त नहीं होता। इसलिए लोक में प्रतिष्ठा वा लाभ, धन से भोग वा मान्य तथा पुत्रादि के मोह से अलग होके संन्यासी लोग भिक्षुक होकर रात दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहते हैं। प्रजापति अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति के अर्थ इष्टि अर्थात् यज्ञ करके उसमें यज्ञोपवीत शिक्षादि चिन्हों को छोड़ आह्वनीयादि पांच अग्नियों को प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पांच प्राणों में आरोपण करके ब्राह्मण ब्रह्मवित् घर से निकल कर संन्यासी हो जावे। जो सब भूत प्राणिमात्र को अभयदान देकर धर्मादि विद्याओं का उपदेश करने वाला संन्यासी होता है उसे प्रकाशमय अर्थात् मुक्ति का आनन्दस्वरूप लोक प्राप्त होता है।

आर्यसमाज के संन्यस्तजनों को देखकर हमें लगता है कि आजकल हमारे अधिंकाश संन्यासी ऋषि दयानन्द के संन्यास विषयक सत्यार्थप्रकाश के पांचवें समुल्लास में वर्णित उपर्युक्त व अन्य वचनों वा उपदेशों को भूले हुए हैं। बहुत से संन्यस्त लोगों में वैराग्य के दर्शन ही नहीं होते जबकि वैराग्य संन्यास ग्रहण के लिए अनिवार्य कारण कहा जाता है। संन्यासियों का मुख्य कार्य अविद्या दूर करना व अविद्यायुक्त जनों को सदुपदेश करना है। परिग्रह व अनावश्यक भ्रमण से दूर रहना भी है। उनका जीवन ऐसा हो कि जिससे ऋषि भक्तों में कोई शंका व आशंका उत्पन्न न हो। संन्यासियों में वैराग्य का विशेष गुण तो अवश्य ही होना चाहिये जो कि किसी संन्यासी के लिए अनिवार्य गुण है। वैराग्य का यह गुण हमने ऋषि दयानन्द और उसके बाद के उनके प्रमुख अनुयायियों में देखा है। वर्तमान में हमने ऐसे गुण स्वामी सत्यप्ति जी व स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती आदि में भी देखें हैं। महात्मा नारायण स्वामी जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द सरस्वती, पं. चमूपति आदि जी में भी सुने हैं। सत्यार्थप्रकाश में संन्यासियों के जिन कर्तव्यों का विधान किया है, उसका पालन ही आर्यसमाज को आगे ले जा सकता है। हमने इस लेख में भाषा के सरल करने का प्रयास किया है। भाव ऋषि दयानन्द जी के ही हैं। उनकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा है। यह लेख आत्म-निरीक्षण करने व कराने की दृष्टि से प्रस्तुत है, अन्य कोई भाव व उद्देश्य नहीं है। ओ३म् शम्।

 

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