ऋषिभक्त आर्यों, नेताओं व विद्वानों का राग-द्वेष से मुक्त होना आवश्यक

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य को राग व द्वेष से मुक्त होना चाहिये या युक्त होना चाहिये? आर्यसमाज और इसके नेताओं व सदस्यों में इन अवगुणों की कुछ कम या अधिक उपस्थिति को देखकर ही आज हमनें इस विषय को प्रस्तुत करने का विचार किया। महर्षि दयानन्द जी ने ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ लघु ग्रन्थ में मनुष्य की परिभाषा दी है। उसमें उन्होंने मनुष्यों को अन्यायकारी बलवान् से न डरने और धर्मात्मा निर्बलों से डरने को कहा है। इसके साथ ही उन्होंने धर्मात्माओं निर्बलों की रक्षा, उनकी उन्नति और उनके प्रति प्रियाचरण करने को कहा है चाहे कि धर्मात्मा महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित भी क्यों न हों। इसके साथ ही स्वामी जी कहते हैं कि अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में मनुष्य नामी प्राणी को चाहे कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे उसके प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवें। यहां स्वामी जी ने धर्मात्मा एवं अधर्मियों का उल्लेख कर धर्मात्माओं की रक्षा करने और अधर्मियों का नाश करने की प्रेरणा दी है। गीता नामक ग्रन्थ में भी कहा गया है कि साधुओं (धर्मात्माओं) की रक्षा, दुष्टों (अधर्मियों) का नाश करने के लिए तथा मनुष्य समाज में धारण करने योग्य सद्धर्म की स्थापना (वेद धर्म प्रचार) के लिए ही योगेश्वर कृष्ण जी ने जन्म लिया है। इस परिप्रेक्ष्य में जब हम आर्यसमाज व इसकी संस्थाओं के नेताओं में परस्पर विरोध व सदस्यों में अन्यों को अपने पक्ष में करने की प्रवृत्ति और पदों पर आसीन होने की प्रवृत्ति को देखते हैं तो हमें लगता है कि ऐसे लोग ऋषि दयानन्द की आज्ञा का उल्लघंन कर रहे हैं क्यांेिक ऐसा करना धर्म न होकर अधर्म होता है। हमें आर्यसमाज में ऐसे भी बहुत से विद्वान अनुभव होते हैं कि जो अन्य विद्वानों की समय समय पर आलोचना व निन्दा करते रहते हैं। हम सब जानते हैं कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। जाने अनजाने उससे गलतियां हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में किसी की गलतियों का एक या दो बार संकेत करना ही उचित होता है। परन्तु देखा गया है कि कई विद्वान समय समय पर किसी विशेष आर्य विद्वान के कुछ विचारों व निर्णयों को लेकर उसकी प्रताड़ना करते रहते हैं। हमें इसमें अन्य कारणों सहित उनका कुछ कुछ राग व द्वेष ही दृष्टि गोचर होता है। इससे आर्यसमाज की समरसता भंग होती है औरे आर्यसमाज का आन्दोलन कमजोर पड़ता है।

हम जब इस स्थिति पर विचार करते हैं तो हमें संगठन सूक्त और सन्ध्या में मनसा परिक्रमा मन्त्रों का ध्यान आता है। हम यदि संगठन सूक्त के अनुसार आर्यसमाज को संगठित नही कर पा रहे हैं तो यह हमारे सभी विद्वानों व आर्यों की कुछ कुछ शिथिलतायें हैं। हमें लगता है कि या तो हम संगठन सूक्त का पाठ ही न करें और यदि करते हैं और उसे उचित भी मानते हैं तो हमे उसकी भावना पर विचार करके स्वयं को तो उसके अनुरूप ढालना ही चाहिये। यदि हम ढलेंगे तो इसका प्रभाव व लाभ हमें तो मिलेगा ही हमारे विरोधियों को भी इससे प्रेरणा व लाभ हो सकता है। हमारे विरोधियों व प्रतिपक्षियों का हमारे प्रति उपेक्षा का भाव, वैमनस्य अथवा राग-द्वेष एक सीमा तक कम हो सकता है। हमने इसे अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से अनुभव भी किया है। यह बात और है कि कुछ लोगों के आर्थिक हितों व पदलोलुपता आदि की प्रवृत्ति उन्हें सत्य को स्वीकार करने से रोकती है। ऐसी स्थिति में भी हमने देखा है कि कालान्तर में स्वयं को धर्म में स्थिति रखने वाले व्यक्ति का कल्याण होता है। हमारे सम्मुख अनेक बड़े बड़े आर्य विद्वानों के जीवन हैं जिन्होंने आर्यसमाज व इसकी किसी संस्था में कभी किसी पद को ग्रहण नहीं किया। आज भी इन विद्वानों की देश भर के समाजों में अच्छी प्रतिष्ठिा है जबकि वर्षों तक बड़े पदों पर बने रहे नेताओं जिन्होंने फूट डालकर अपना मनोरथ सिद्ध किया था, उनका अब कोई नाम भी नहीं लेता। अतः आर्यसमाज के सदस्य, विद्वानों व नेताओं को राग-द्वेष से मुक्त व संगठित होकर कार्य करना चाहिये और किसी विद्वान व नेता की लिखित व अन्य प्रकार से आलोचना करने में अपने जीवन का बहुमूल्य समय व्यतीत नहीं करना चाहिये। इससे वह अधिक कार्य कर सकेंगे और अच्छा जीवन व्यतीत कर सकेंगे। स्वार्थमय जीवन कुछ दिनों हमें प्रसन्नता आदि दे सकता है परन्तु दीर्घ काल में यह हानिकर ही सिद्ध होता है।

आज का विषय हमने इस लिए चुना कि हम देख रहे हैं कि आर्यसमाज में ऐसा ही कुछ अन्तद्र्वन्द चल रहा है जिससे आर्यसमाज की शक्ति क्षीण होने के साथ प्रचार कार्य की गति धीमी हो गई है। आज स्थिति यह देखने को मिलती है कि आर्यसमाज व किसी बड़ी आर्य संस्था के उत्सव होते हैं तो वहां आमंत्रित विद्वानों को देखकर अपने पराये की भावना के आसानी से दर्शन किये जा सकते हैं। हमारे उत्सवों का स्तर भी अब वह नहीं रहा जिसकी की आर्यसमाज से अपेक्षा की जाती है। आरम्भ में श्रोता नहीं होते तो भजनोपदेशकों को समय दिया जाता है। जब कुछ लोग आ जाते हैं तो कार्यक्रम को आरम्भ करते हुए प्रमुख वक्ताओं को समय दिया जाता है। यहां भी हमने अनेक स्थानों पर पक्षपात होते हुए देखा है। कुछ लोग आर्यसमाज के अधिकारियों के प्रिय होते हैं तो उन्हें भजन व कुछ सुनाने के लिए समय दे दिया जाता है। इसके पीछे मुख्य कारण उन लोगों को संस्था को दिया जाने वाला सहयोग भी होता है परन्तु उनके भजन व मंत्रोच्चार आदि की गुणवत्ता कई बार बहुत ही खराब भी होती है। यदि हमारे सभी वक्ता अनुशासन में रहकर निर्धारित समय सीमा में अपनी बात कहें तो इससे अधिक लोगों को अपनी बातें कहने का अवसर मिल सकता है। अतः भजनोपदेशकों, विद्वानों व मंच पर अपनी प्रस्तुतियां दिये जाने वाले सभी व्यक्तियों को अनुशासन में रहकर समय सीमा का कठोरता से पालन करना चाहिये जिससे श्रोताओं को अधिक से अधिक लाभ हो और संचालक महोदय पर अनावश्यक मानसिक दबाव न हो। उत्सवों मे आमंत्रित करते हुए गुणवत्ता व विद्वता के मुख्य स्थान देना चाहिये और प्रस्तुतियों का समय निर्धारित कर अनुशासन रखा जाना चाहिये।

आर्यसमाज में कुछ विद्वान हैं जो अपने अतीत के किसी प्रतिद्वन्दी की किन्हीं उचित व अनुचित कारणों से आलोचना करते हैं। एक, दो या तीन बार आलोचना कर दी जाये तो यह बहुत होता है परन्तु कई विद्वान तो लेखन आदि करते हुए कहीं अवसर मिलने पर चूकते नहीं हैं। वह तो इससे सन्तुष्ट हो जाते हैं परन्तु वह नही जानते कि अन्य विद्वानों व श्रोताओं पर इसका क्या प्रभाव होता है। यदि कोई विद्वान ऐसे विद्वानों की कभी कोई त्रुटि उजागर कर दे तो इन बार बार आलोचना करने वाले विद्वानों को बुरा लगता है और वह इसके उपाय ढूंढते हैं। हमारे सामने यदा कदा ऐसी स्थितिर्यां आइं हैं, इसलिए हमने यह बात संकेत रूप में कही है। इस विषय में हमारी सभी विद्वानों से विनती है कि अब वह अपने पूर्ववर्ती व समकालीन विद्वानों के विषय में जो राग व द्वेष अथवा ऋषि के जीवन विषय में कुछ अस्वीकार्य बातों को लेकर आलोचना करते रहे हैं, उसे बन्द कर दें और पक्ष विपक्ष की भावना से भी ऊपर उठकर सभी विद्वान व नेताओं का उनके गुण, कर्म, स्वभाव, योग्यता व आर्यसमाज के कार्यों की दृष्टि से सम्मान आदि किया करें। ‘विद्वान सर्वत्र पूज्यते’ की भावना तभी सफल होगी जब सभी विद्वान व नेता दूसरों के प्रति राग-द्वेष रहित होकर आलोचना करते हुए मर्यादाओं का ध्यान रखेंगे। इससे समाज में जो विघटन होता है वह कम व दूर होकर प्रचार कार्य में सुधार व वृद्धि होगी, ऐसा हम अनुभव करते हैं।

सत्यार्थप्रकाश को ऋषि दयानन्द सरस्वती जी का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ कह सकते हैं। इसके उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में अन्तर्देशीय व दूर विदेशों में उत्पन्न मतों की समालोचना की गई है। ऋषि ने इन सभी चार समुल्लासों की पृथक भूमिका लिखी है। चतुर्दश समुल्लास की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि उनका यह लेख हठ, दुराग्रह, ईष्र्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है, न कि इनको बढ़ाने के अर्थ क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह, परस्पर को लाभ पहुंचाना हमारा मुख्य कर्म है। अब यह विवेच्य मत विषय सब सज्जनों के सामने निवेदन करता हूं। विचार कर, इष्ट का ग्रहण, अनिष्ट का परित्याग कीजिये। हमारे विद्वानों को इसी भावना से ही अन्य विद्वानों की आलोचना करनी चाहिये। हमारी आलोचना पढ़कर कोई विद्वान हमसे क्षमा याचना ही करे, इसकी अपेक्षा करना उचित नहीं है।

लेख को विराम देने से पूर्व हम आर्यसमाज के विद्वानों से प्रार्थना करेंगे कि वह यथासम्भव आलोचना व प्रत्यालोचना से बचे। यदि किसी विद्वान व नेता ने कोई ऐसा कार्य अतीत में किया है जिससे लगता है कि आर्यसमाज के वर्तमान व दूरगामी हितों पर प्रतिकूल प्रभाव होगा तो उसका निराकरण करने के लिए स्वस्थ आलोचना करें। आलोच्य विद्वान व नेताओं को भी किसी विषय को विवाद का विषय बना आरोप प्रत्यारोप न कर आलोचना करने वाले विद्वानों के प्रश्नों व शंकाओं का उत्तर देना चाहिये। दोनों पक्षों के आरोप व स्पष्टीकरण आ जाने के बाद यदि दोनों पक्ष सन्तुष्ट न हों तो आर्यजगत के सर्वमान्य उच्च व वरिष्ठ संन्यासी व विद्वानों की एक समिति बनाकर उसे अन्तिम निर्णय के लिए सौंप देना चाहिये और सभी पक्षों को उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। आर्यसमाज में सभाओं व संस्थाओं में जहां कहीं कोई भी विवाद है उसे आपस में हल करने का प्रयास करना चाहिये। न्यायालय की शरण में जाने पर विवाद हल होने के स्थान पर वर्षों लग जाते हैं। स्थानीय आर्यसमाज में सन् 1994-1995 के विवादों का हल अभी तक नहीं हो सका है। विवाद से संबंधित दोनों पक्षों के मुख्य लोग संसार छोड़कर जा भी चुके हैं परन्तु जो द्वेष उत्पन्न हुआ था वह आज भी यथावत् लगता है। विवेकशील विद्वान व नेता इससे शिक्षा ले सकते हैं। हम फेस बुक पर दो विद्वानों से परिचित हैं जिनके नाम हैं श्री भावेश मेरजा जी, भरुच और दिल्ली के डा. विवेक आर्य। दोनों ही ऋषि भक्त हैं। सभा संस्थाओं के झगड़ों से सर्वथा दूर। आर्यसमाज की सोशल मीडिया के द्वारा रात दिन सेवा कर रहे हैं। हम इन दोनों विद्वानों को नमन करते हैं और अन्य विद्वानों व नेताओं से आशा करते हैं कि वह इनके जीवन व कार्यों से प्रेरणा ग्रहण करें। अन्य विद्वानों से भी प्रार्थना है कि आर्यसमाज के नेताओं व विद्वानों के परस्पर के राग व द्वेष सहित गुटबाजी आदि दूर करने के समाधान करने के लिए अपने विचार समय समय पर आर्य जनता के सामने रखते रहें। हम यह भी बता दें कि हमने लेख में व्यक्तिगत आलोचना को ही ध्यान में रखा है। कुछ सार्वजनिक हित के विषय होते हैं उसमें सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग, करना व कराना, आवश्यक होता है। ओ३म् शम्।

 

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