बढ़ती असमानता : बारूद के ढ़ेर जैसी खतरनाक

डॉ.किशन कछवाहा

सत्ता का एक बड़ा पक्ष होने के नाते यह आशा की जाती है कि कांग्रेस लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास रखे। लेकिन उसके व्यवहार से जनता को कभी यह आभास नहीं होता कि उसका परस्पर बातचीत में विश्वास है। गत एक वर्ष के दौरान घटी घटनाओं से तो यही निष्कर्ष निकल कर आया है। बाबा रामदेव के आंदोलन को जिस तरह आधीरात को कुचला गया। अण्णा साहब के जंतर मंतर के अनशन के बाद साझा समिति गठित करना और उसका गला घोंटना। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर जे.पी.सी. की मांग पर एक पूरे सत्र की बलि चढ़ाया जाना आदि। मंहगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, आतंकवाद ये सब एक व्यक्ति या एक दल से जुड़े मामले नहीं हैं। ये राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दे हैं। बातचीत से गतिरोध दूर करने की यदि कांग्रेस की मानसिकता दृढ़ होती तो 42 साल से लटका लोकपाल विधेयक कानून की राह पर होता ।

वर्तमान प्रधानमंत्री विश्वविख्यात अर्थशास्त्री है। देश-विदेश में उनके ज्ञान की चर्चा होती है। बीस साल पहले जब वे वित्त मंत्री थे तब उन्होंने देश वासियों को एक सपना दिखाया था कि सन् 2010 तक देश से बेरोजगारी को समाप्त कर दिया जायेगा। सारी सड़कों का पक्कीकरण हो जायगा, बिजली की कमी का रोना भी नहीं रहेगा, किसान खुशहाल होंगे। मजदूरों की कोई समस्या नहीं रहेगी, उनकी जरूरतें पूरी होंगी। उस समय से आज तक जनता उस आश्वासन को पूरा होने की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है। एक भी लक्षण सार्थक नजर नही आ रहे।

मंहगाई बेकाबू हो गई है। करों का बोझ बढ़ा दिया गया है। कृषि क्षेत्र को अनदेखा किये जाने के कारण किसान आत्महत्या करने मजबूर है। भ्रष्टाचार मिटाने के मामले में प्रधानमंत्री जी की बेबसी साफ झलकती दिखाई दे रही है। जबकि भ्रष्टाचार अन्य सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है।

अण्णा साहब के आन्दोलन में आम आदमी, रिक्शाचालकों से लेकर प्रतिष्ठित वर्ग वकील, डाक्टरों का जुड़ना केन्डल मार्च निकालना, सड़कों पर आकर नारेबाजी करना इस बात का घोतक है कि जिन मुद्दों पर सरकारी पक्ष आंख मूंदे हुये हैं, उससे उनमें रोष व्याप्त है। यह देश की वह अस्सी प्रतिशत जनता है जो खेतों-खलिहानों से लेकर कारखानों में दिन-रात अपना सक्रिय योगदान दे रही है। सुई से लेकर हवाईजहाज तक उत्पादन में लगी हुयी है लेकिन उसका उस पर कोई नियंत्रण अधिकार नही होता । असल में यह सारा दोष उस पूंजीवादी व्यवस्था में हैं जहां से भ्रष्टाचार की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। वहीं से बहुसंख्यक मेहनतकश जनता की लूट की बयार बह रही है। जनतंत्र में जनता की उपेक्षा का भाव और पूंजी को प्रश्रय देनेवाली सरकार द्वारा कानूनी जामा पहना दिये जाने के कारण मामला और भी पेचीदा बनता चला जा रहा है। क्या इस सबके चलते भ्रष्टाचार को समाप्त करने का दावा किया जा सकता है ।

12 दिन तक चले अण्णा साहब के अनशन की सुखद समाप्ति से देशवासियों ने राहत की सांस ली। लोकप्रिय जनभावनाओं का कद्र करने की आदत सरकार की बनी होती तो एक 74 वर्षीय वृध्द व्यक्ति को भूखे रखने के पाप से इस आध्यात्मिक आत्मा वाले देश को बचा लिया गया होता। एक तो जनभावनाओं का आदर नहीं किया गया दूसरे तरह तरह के घिनौने आरोपों और अपशब्दों की सत्ता पक्ष की ओर से बौछारें की गयीं। तरह तरह की दलीलें दी गई कि संसद लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था है । नि:संदेह सर्वोच्च है। चुनौती कौन दे रहा था ?

अण्णा साहब और उनकी टीम ने एक मसविदा बनाया था। उसे सरकार और आम जनता के सामने रखा गया था। जनतंत्र में क्या माँग उठाना आपत्तिजनक है ? इसका अर्थ तो यह हुआ कि जनसेवा का व्रत लेने वाले हमारे ये जनप्रतिनिधि कुछ भी करें जनता चूं-चपाट भी न करें। ये बात क्यों नही समझी जानी चाहिये कि अंतिम शक्ति तो इसी जनता में निहित है। रही तथ्य की बात तो यह भी स्पष्ट है कि देश में एक भी दल ऐसा नहीं है जो यह दावा कर सके कि उसे पचास प्रतिशत से अधिक जनता का प्रतिनिधित्व प्राप्त है।

प्रधानमंत्री जी ने स्वयं लालकिले की प्राचीर से कहा था कि ‘अनशन ठीक नहीं है’। संसदीय लोकतंत्र को चुनौती नहीं दी जा सकती। तो क्या गांधी के इस देश में अनशन और सत्याग्रह को नकारे जाने की मानसिकता को बल दिया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचार को मिटाने उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। लेकिन जनता ने यह अवश्य देखा है कि आंदोलनों को कुचलने के लिये उनके पास पुलिस की लाठी जरूर है। जनता की उपेक्षा का आलम यह है कि गैर बराबरी सीमा को लांघ चुकी है । सतहत्तार प्रतिशत जनता बीस रूपये से कम आमदनी पर जहां अपना जीवन निर्वाह करने मजबूर है, वही सत्तार प्रतिशत हमारे जनप्रतिनिधि सांसद करोड़पति हैं । इनमें से 162 पर अपराधिक मामले चल रहे हैं । इतना ही नहीं देश के नेताओं और अधिकारियों की अरबो-खरबों की काली कमाई प्रतिवर्ष जमीन जायजाद की खरीदी, खनन के पट्टे, शेयर बाजार, मीडिया और मनोरंजन जगत और अवैघ उद्योगों-व्यापारों, भवन निर्माण, साहूकारी, स्कूल, कालेजों के धंधे तथा सोने जवाहरात हीरे आदि की खरीद में लगी होती है। अधिकतर पेट्रोल पम्प, गैस एजेन्सियां, पत्थर की खदानें, टोलटेक्स आदि के ठेके इन्हीं नेताओं के परिवारों और रिश्तेदारों के अलावा किसी और को प्राप्त ही नहीं हो सकते। सरकारी पक्ष रट लगाये है कि विकास हो रहा है। किसका विकास हो रहा है ? सरकार में बेठे लोगों का विकास हो रहा है। सरकार ने देश के विकास का एक मात्र पैमाना माना है सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) को । सरकार के पास आंकड़ों की जादूगरी है जिसमें वह आम आदमी को उलझा कर रखने में माहिर है।

‘ग्लोबल फाइनेंसियल इंट्रीग्रिटी रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ सन् 2000-2008 के बीच एक सौ पच्चीस अरब डालर की रकम कालेधन के रूप में देश से बाहर गयी है। स्विस बैंक के अलावा लगभग चालीस और सुरक्षित ठिकाने है जहां इस तरह की पूंजी (कालाधन) रखी गयी है। वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था ने अमीर और गरीब के बीच खाई को चौड़ा किया है। इसे लेकर स्थायी शांति का झूठा दावा ही किया जा सकता है । अभी हाल ही में लंदन में भड़के दंगों से सबक लिया जाना चाहिये। बिछे हुये बारूद के लिये एक चिन्गारी भी पर्याप्त होती है। अण्णा की मुहिम से सारा देश सहमत है । कतिपय निहित स्वार्थी तत्वों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक फैले भ्रष्टाचार ने देश को खोखला कर दिया है। अण्णा ने व्यवस्था पर सवाल उठाया है। सरकार उनकी बात सुनने के बजाय दबाने की ही कोशिश करती रही। बाबा रामदेव के अभियान को आधी रात को बलपूर्वक कुचला है। अण्णा के खिलाफ भी हठधर्मिता के साथ आरोप-प्रत्यारोप के दौर पूरी ताकत के साथ चलाये गये ।

अर्थशास्त्री और विशेषज्ञों का मानना है कि गत वर्षों मे जो भारीभरकम घपले-घोटालों की तथा-कथा सामने आयी है उसका गहरा सम्बंध उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों से है जिन्हें सन् 1991 से देश में लागू किया गया है। इसमें देशी और विदेशी कम्पनियों का गोरखधंधा स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के साथ साथ आम लोगों को बाजार के भ्रष्टाचार से भी जूझना पड़ रहा है। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्या कम लूट मची है ? इसमें आम आदमी की गाढ़ी कमाई के पैसे को फलता-फूलता व्यवसाय बनाकर खुले आम लूटा जा रहा है। जल, जंगल जमीन तो प्राकृतिक संसाधन थे। इन्हें कंपनी और उद्योगों को सौंपने का रास्ता किसने आसान किया है ? यह देखने और समझने की बात है।

अण्णा का यह कदम एक शुरूआती संकेत है। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये लम्बी लड़ाई की जरूरत है । अण्णा की इस मशाल को जलाये रखा जाना चाहिये। और सबसे ज्यादा जरूरी बात यह है कि जनता को छोटे बड़े आन्दोलनों के माध्यम से जागरूक बनाये रखा जाना है। कालाधन और भ्रष्टाचार एक परिवार के सगे संबंधी हैं । इनके चरित्र को अलग अलग देखने की गलती नहीं की जाना चाहिये। ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्ट नेता हैं। नेतागिरी एक फलता-फूलता व्यवसाय बन चुका है जिसके कारण आम आदमी का जीवन कठिनतर होता जा रहा है। एक तरफ रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के दाम बेतहासा बढ़ते जा रहे हैं वही करों का बोझ भी बढ़ता चला जा रहा है।

(लेखक प्रसिध्द स्तंभकार है) 

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