नोट्स आधारित पढ़ाई के खतरे / सारदा बनर्जी

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आज भारत में उच्च-शिक्षा के क्षेत्र में युवा-वर्ग में स्वायत्त पढ़ाई की अपेक्षा ‘नोट्स’ आधारित पढ़ाई बेहद प्रचलन में है। कॉलेज और विश्वविद्यालय से जुड़े विद्यार्थी मूलतः पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ने के अभ्यस्त हैं। पाठ्यक्रम के बाहर के विषयों में उनकी रुचि कम है।वे पाठ्यक्रम को ही पढ़ाई मानकर चलते हैं।साथ ही ये विद्यार्थी यह भी चाहते हैं कि यह पढ़ाई कष्टसाध्य न हो और परीक्षा में नंबर भी बढ़िया आए जिससे बाद में नौकरी मिलने में कोई असुविधा न हो।फलतः कॉलेज या विश्वविद्यालय में दाखिला मिलने के दूसरे दिन से ही बनी-बनाई लेखनी या तथाकथित नोट्स जुगाड़ करने की पद्धति चलती रहती है।उसके बाद ठीक परीक्षा के कुछ चंद महीने पहले से इन नोटो को रटने की रटंत-प्रक्रिया शुरु होती है।किसी तरह से नोट्स रटकर परीक्षा के उपरांत डिग्री हासिल करना इनके जीवन का मूल उद्देश्य और मूल लक्ष्य होता है।

इस दौरान कमसंख्यक छात्र-छात्राएं होतें हैं जो व्यक्तिगत श्रमसाध्य कोशिश के तहत लाइब्रेरी की ख़ाक छानकर पढ़ते हैं,हर रोज़ कक्षा में जाते हैं और खुद के लिखे लेख के आधार पर परीक्षा की तैयारी कर परीक्षा देते हैं।बाकि छात्र-छात्राएं इस कोशिश में रहते हैं कि किसी तरह पढ़ाई की लड़ाई में तेज़-तर्रार और आगे रहने वाले सीनियरों से पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाने वाले विषयों पर नोट्स उपलब्ध हो जाए। इस दौरान ये छात्र-छात्राएं अपनी सारी महनत सीनियरों की चाटुकारिता या पैरोकारी में गुज़ारते हैं।बाकि समय मौज-मस्ती में व्यतीत करने में लगे रहते हैं।कक्षा में भी ये गैर-हाजिरी लिस्ट में अपना नाम दर्ज कराते हैं।

इसी प्रकार आगे चलकर विभिन्न प्रतियोगितामूलक परीक्षाओं जैसे नेट, सेट और एस.एस.सी. में भी ये महान विद्यार्थी व्यक्तिगत श्रम-अर्जित पढ़ाई न कर विभिन्न जगहों से जुगाड़े नोट्स को तोते की तरह रटकर यानी रटंत पढ़ाई करके परीक्षा में उत्तीर्ण होने की जी-तोड़ कोशिश में लगे रहते हैं।इस दौरान भी इन्हें किसी भी तरह के पुस्तकालयों में पढ़ते न देखा जाता है और न किताब खरीदते।फलतः गहरे ज्ञान के अभाववश परीक्षा हॉल में भी विभिन्न तरह की गलत हरकतों मसलन् कानाफूसी कर उत्तर जानना, इशारों से दूसरों तक उत्तर पास करना,उत्तर के लिए चीट की सहायता लेना आदि में ये पारदर्शी नज़र आते हैं।दिलचस्प बात यह है कि इन हरकतों के बावजूद भी अगर ये परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होते तो शिक्षकों पर या कॉपी जांचने वालों पर सारा दोष मढ़ देते हैं और जिस विद्यार्थी को सफलता मिलती है उसके बारे में गलत अफवाह फैलाने में लगे रहते हैं।कायदे से इस तरह की हरकतें बंद होनी चाहिए।

यह समस्या प्रायः हर विषय की है चाहे वह कला का विद्यार्थी हो, विज्ञान का, वाणिज्य का या किसी और विषय का।किंतु खास तौर पर साहित्य के क्षेत्र में यह समस्या ज़्यादातर नज़र आ रहा है जहां इस तरह की विद्यार्थियों के सुंदर नमूने हैं।इन विद्यार्थियों का सीधा तर्क है – गहन अध्ययन की क्या ज़रुरत है, बने-बनाए नोट्स पढ़ो और पास करो।इससे दो चीज़ साफ होती है — एक, विद्यार्थियों में अध्ययन करने यानी मेहनत करके पढ़ाई करने की प्रवृत्ति का लोप हो रहा है और दूसरा, ज्ञान अर्जित करने की इच्छा का व्यापक तौर पर अभाव दिखाई दे रहा है। नौकरी की हुड़दंग में लगे ये विद्यार्थी किसी भी विषय से संबंधित आधी-अधूरी जानकारी रखते हैं। डिग्री हासिल कर अपने को शिक्षित समझ अपनी अधूरी जानकारी के आधार पर पढ़ने वाले विद्यार्थियों से तर्क करते हैं।कम ज्ञान के बावजूद इनके व्यवहार में विद्वतापूर्ण अचरण भी गौरतलब है।

किंतु यह चिंता की बात है कि यदि इस तरह की रटी-रटंत या नौकरी-आधारित पढ़ाई क्रमशः प्रचलन में आता जाएगा तो आने वाली नई पीढ़ी भी इन पूर्वजों से दीक्षा लेकर इसी ओर मुखातिब होगी।फलतः शिक्षा के स्तर में भयानक गिरावट आएगी। शिक्षा के स्तर और मूल्य में इस गिरावट का नतीजा यह होगा कि शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर से लेकर विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों के ज्ञान स्तर के अभाव का हमें हर पग पर सामना करना होगा। फलतः देश में शिक्षित अज्ञानी की संख्या में भी इज़ाफा होगा जो हर हाल में ग्रहण योग्य नहीं है। इस अज्ञान की वजह से ही आज शिक्षित होने के बावजूद युवा-वर्ग की मानसिकता में बदलाव नज़र नहीं आ रहा। शिक्षित होकर भी वे भयंकर पिछड़े और संकुचित मानसिकता के शिकार नज़र आते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि व्यक्ति को तराशने में शिक्षा की बहुत बड़ी भूमिका होती है।बेहतर शिक्षा के फलस्वरुप एक बेहतर इंसान का निर्माण होता है।किंतु यदि शिक्षा डिग्री के कारण ली जा रही है और हमें आधी-अधूरी ज्ञान भेंट कर रही है तो ऐसी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं है।इस तरह की शिक्षा से व्यक्ति में अवसरवादिता, चाटुकारिता जैसी बीमारियां घर कर जाती है और आगे चलकर भी वे अपने जीवन में इसी तरह के हथकंडे अपनाते नज़र आते हैं।। स्वाभाविक तौर पर यह एक गंभीर विवेचन का मसला बनता है चूंकि यह धड़ल्ले से समाज में फैलता जा रहा है।इसका साइड एफेक्ट है, ज्ञान में कमी और संबंधित विषय में गहराई का अभाव।

वस्तुतः इस मामले में देश की शिक्षा विभाग की ओर से पहल बेहद ज़रुरी है।विभिन्न विश्वविद्यालयों के निर्धारित पाठ्यक्रम में बदलाव ज़रुरी है।हर दो साल के अनन्तर इस पाठ्यक्रम में बदलाव होना चाहिए।इसके साथ ही नए-नए विषयों की ओर रुझान हो और विभिन्न करेंट इश्यूज़ को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। खासकर साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न नए उपन्यासों, कहानियों, कविताओं और आलोचनाओं को पाठ्यक्रम में फेर-बदल कर रखा जाए।हालिया दौर की सूचनाओं से छात्र-छात्राओं को अवगत कराया जाए।पाश्चात्य साहित्य में हो रहे परिवर्तन से उन्हें वाकिफ़ कराया जाए। इससे विद्यार्थियों के पढ़ने की रुचि में इज़ाफा होगा और तथाकथित ढर्रे पर चली आ रही नोट्स पैटर्न की पढ़ाई का मौका उन्हें नहीं मिलेगा।चूंकि नए विषयों पर नोट्स मिलना कठिन काम है ,अतः वे संबंधित विषयों से जुड़े विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करने में अपना मन लगाएंगे।इसके लिए विभिन्न पुस्तकालयों में जाकर पढ़ने की आदत होती रहेगी। पुराने घिसे-पीटे विषयों की विदाई होने पर सुधी और पढ़ने वाले विद्यार्थियों को भी नए अनुसंधान का मौका मिलेगा।पढ़ाई में उनकी रुचि बढ़ेगी और वे नए-नए विषयों पर आधारित शोध-कार्यों की ओर मुखातिब होंगे।

3 COMMENTS

  1. सारदा जी–पहल के लिए धन्यवाद।

    आधी ही टिप्पणी मुद्रित हुयी है। उसके तीन बिन्दू और थे।
    नोट्स आधारित पढाई का सबसे बडा कारण “अंग्रेज़ी माध्यम” है।
    निम्न अवधारणा पर विचार करें।

    पढाई के लिए दो अलग अंग उपयुक्त हुआ करते हैं।
    (१) स्मरण शक्ति।
    (२) तर्क शक्ति।
    अंग्रेज़ी माध्यम की पढाई में “स्मरण शक्ति” पर दबाव पडता है। इस लिए रट्टामार पढाई चलती है। और अंग्रेज़ी को अतिशयक्ति भरा महत्व दिया जाता है। सभीको लगता है, कि अंग्रेज़ी का ही ज्ञान सच्चा ज्ञान है। अच्छा कुछ क्षेत्रों में (जैसे आय. टी. में) यह बहुत कुछ सत्य भी है। पर यह आपकी भ्रान्त धारणा का पोषण कर देता है।{वहां भी शोध के लिए तर्क शक्ति का ही उपयोग आवश्यक है।}

    पर, इस भ्रांत धारण के कारण, बुद्धि का विकास ना होते हुए भी बुद्धिमानी की, भ्रान्ति हो जाती है।
    ===>भ्रान्ति यही है, कि अंग्रेज़ी का ज्ञान ही सब कुछ है।<===
    अंग्रेज़ी माध्यम द्वारा,
    अंग्रेज़ी में चिन्तन, मनन, चिचार दर्शन, लेखन, खडे पैरों पर विचार करते करते भाषण इत्यादि अभ्यास करते, सीखते- सीखते आधे से ऊपर जीवन व्यर्थ बीत जाता है।
    ऐसे प्रत्येक शिक्षित के आधे जीवन बीतने पर, शेष जीवन में इसी भ्रान्ति के कारण, –कोई–मौलिक–योगदान–देना–असंभव –हो जाता है।
    यह सबसे बडा घाटा है, जिसका कारण है —नोट्स आधारित पढाई—-
    इस बिन्दु पर भी विचार कीजिए। रट्टा मार लोग ही शिक्षित कहलाएंगे। छात्र तो छात्र है, ९० % शिक्षकों भी यही भ्रान्ति है।

  2. ====> सारी प्रतिभाओं का रहस्य ध्यान योग है।तो, क्या करें?
    (क) वार्तालाप और संवाद को कक्षाओं में प्रोत्साहित करें जिससे स्वतंत्र विचार करने का अभ्यास हो।
    (ख) चौखट के बाहर से, अलग विचार दृष्टि से विषय को, देखने परखने का अभ्यास हो।
    (ग) ===>और बहुत ही महत्व का योगदान—होता है, हमारे अपने पतंजलि के ध्यान योग से। फिर से कहता हूँ, जाने अनजाने भी जो चिन्तक ध्यान योग जानते हैं, उसमें आप जितने निपुण होंगे उतना आगे बढ पाएंगे। सारी प्रतिभाओं का रहस्य ध्यान योग है।
    SECRET OF THE SECRET !

  3. Excellent.
    This is he real problem of Indian education. More over in Junior classes students, teachers and parents following Help books which are making dull to the brain of Indian students.
    Please send me your email ID.

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