श्रम की लूट का नया सेंटर ‘शॉपिंग मॉल’

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डॉ0 आशीष वशिष्ठ

मैट्रो सिटिज से शुरू हुआ मॉल कल्चर धीरे-धीरे देश के दूसरे बड़े और मझोले शहरों में बड़ी तेजी से फैल रहा है। मॉल कल्चर ने लोगों के जीने, सोचने और खरीददारी के अंदाज को बदला है। शुरूआती दौर में स्थानीय व्यापारियों व व्यवसायियों ने मॉल कल्चर और खुदरा बाजार का विरोध किया लेकिन सरकारी वरदहस्त और सहयोग के चलते मॉल कल्चर को स्थापित होने में किसी बड़ी दिक्कत और मुसीबत का सामना नहीं करना पड़ा।

सरकार ने मॉल कल्चर और रिटेल व्यापार को बढ़ावा देने के लिये विशेष प्रावधान और कानून बनाकर बाजार के इस पश्चिमी संस्करण को मजबूती प्रदान की है। सरकार की उदारवादी और खुलेपन की नीतियों के कंधों पर सवार मॉल कल्चर में श्रम कानून, नियमों की सरेआम धज्जियां उड़ाई जाती है। अगर यह कहा जाए कि मॉल कल्चर और रिटेल बाजार श्रम शक्ति की शोषक है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

 

आधुनिक डिजाइन और साजों-समान से लबरेज और लाखों-करोड़ों का व्यापार करने वाले स्टोर पर कर्मचारियों को बुनियादी सुविधायें और अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं। चमक-दमक और सपनों की दुनिया में दिन बिताने वाले तमाम कर्मचारियों के जीवन में कितना दुःख-दर्द और अंधेरा है, इसकी दुनिया को कम ही जानकारी है।

विदेशी कंपनियों के दबाव के सामने घुटने टेकू प्रवृत्ति के कारण सरकार ने मॉल कल्चर के लिए विशेष प्रावधान और कानून बनाया है। जिसके तहत मॉल सारा साल खुले रहते हैं, राष्ट्रीय अवकाश के दिन भी। मॉल में व्यापार करने वाले स्टोर लगभग एक ही तरह की नीति के तहत ही बिजनेस करते हैं। आमतौर पर सुबह दस से रात दस बजे तक खुले रहने वाले मॉल में कर्मचारियों को अमूमन दस से बारह घंटे तक काम करना पड़ता है।

कर्मचारियों से दस से बारह घंटे तक काम लेने वाले स्टोर पर कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता है। गिने-चुने कर्मचारियों को तो भारी वेतन पैकेज पर रखा जाता है इसके अलावा अधिकतर कर्मचारी तो आधे-अधूरे वेतन ही पाते हैं।

वेतन के अलावा कर्मचारियों के कल्याण और सुविधा के लिये मिलने वाली तमाम दूसरी सुविधाओं का भी मॉल में सर्वथा अभाव होता है। विश्राम स्थल, कैंटीन, महिला कर्मचारियों के लिये क्रेच, मनोरंजन के साधन, चिकित्सा सुविधा का कोई अता पता ही नहीं होता है। किसी भी स्टोर में कर्मचारियों के बैठने का कोई इंतजाम नहीं होता है।

लगातार घंटों खड़े रहकर काम करने से कर्मचारियों में स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां का सामना करना पड़ता है। कर्मचारियों के खाना खाने के लिये अलग स्थान की सुविधा न होने के कारण कर्मचारियों को खुले आसमान के नीचे या फिर यहां-वहां बैठकर भोजन करना पड़ता है। अधिकतर स्टोर पर कर्मचारियों को फिक्स वेतन पर रखा जाता है।

निर्धारित वेतन के अलावा कर्मचारियों को कोई दूसरा लाभ या भत्ता नहीं दिया जाता है। श्रम नियमों के उल्लंघन के चलते कर्मचारियों को भविष्य निधि, कर्मचारी पेंशन और कर्मचारी राज्य ही वेतन रजिस्टर में लिखा जाता है। माॅल में अधिकतर कार्य आउट सोर्सिंग के जरिए ही होता है। सुरक्षा, सफाई और तमाम दूसरे छोटे-बड़े कामों के लिये ठेकेदारों और मेन पावर सप्लाई करने वाली एजेंसियों की मदद ली जाती है

शॉप्स एण्ड एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के दायरे में मॉल्स आते हैं। बावजूद इसके एक्ट के तहत कर्मचारियों को मिलने वाली सुविधायें कर्मचारियों को न के बराबर ही प्राप्त होती हैं। एक्ट के तहत किसी कर्मचारी से एक दिन में 9 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जा सकता और किसी भी स्थिति में यह अवधि एक सप्ताह में 48 घंटे से अधिक नहीं होनी चाहिए।

वहीं किसी वयस्क कर्मचारी से एक दिन में अधिकतम 6 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जा सकता है। एक्ट के अनुसार कर्मचारियों को पांच घंटे के कार्य के बाद आधे घंटे का विश्राम का प्रावधान है लेकिन बड़े-बड़े स्टोर में काम करने वाले कर्मचारी विषम परिस्थितियों में ही काम करते हैं।

एक्ट के अनुसार कर्मचारियों को एक साल में 15 दिन प्रिवेलिज और 12 दिन कैजुअल या बीमारी अवकाश देना चाहिए। लेकिन जब कर्मचारियों को बुनियादी सुविधाये ही नहीं मिलती हैं वहां अवकाश का नियम लागू होता होगा ऐसा सोचना भी बेमानी है। वही एक्ट के अनुसार महिला कर्मचारियों को रात की शिफ्ट में काम करने के लिये सर्दी और गर्मी के अनुसार समय निर्धारित है लेकिन निर्धारित समय के बाद अधिकतर मॉल्स में महिला कर्मचारी आपको अकसर काम करते दिख जाएंगे।

दुर्घटना के स्थिति में अधिकतर स्टोर मामले को रफा-दफा करने या फिर मामूली मुआवजा देकर सिर से बला टालने की कार्यवाही करते हैं। उसूलन कर्मचारी को ईएसआई एक्ट या वर्कमैन कंपनेस’ान एक्ट दोनों में से किसी एक एक्ट का सदस्य होना चाहिए। लेकिन अकसर नियोक्त्ता चंद रूपये बचाने की खातिर कर्मचारियों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आते हैं और विडंबना यह है कि जिनके कंधों पर कानून, नियमों का पालन करवाने की जिम्मेदारी है वो सब कुछ जानते-बूझते हुये आंखें बंद किये रहती है।

माॅल कल्चर और रिटेल बाजार के ने युवा पीढ़ी के लिये रोजगार के नये द्वार खोले हैं। प्रोफेशनल कोर्सेज और भारी भरकम डिग्रियों के बगैर भी युवाओं को रिटेल बाजार में आसानी से रोजगार उपलब्ध हुआ है इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। देश में बेरोजगारों की लंबी लाइन और मंहगी होती उच्च शिक्षा के दौर में कम पैसे और अन्य असुविधाओं को जानते-बूझते हुये भी युवा मजबूरी, कुछ कमाने और अपने पैरों पर खड़ा होने की चाहत में शोषण की चक्की में पिसने को हंसी-ख़ुशी तैयार हैं।

वेतन में मामूली बढोतरी और बेहतर अवसरों के लालच में कर्मचारी आये दिन स्टोर बदलते रहते हैं, इसीलिए इस सेक्टर में रिटेनिंग पीरियड बहुत कम है। आज लाखों युवा मॉल में करते हैं, बावजूद इसके कर्मचारियों के अधिकार दिलाने और उनके शोषण के विरूद्व में आवाज उठाने के लिए एक भी संगठन दिखाई नहीं देता है। संगठन और यूनियन के अभाव में दे’ाभर के मॉल में काम करने वाले कर्मचारी दिन-रात कड़ी मेहनत के बावजूद भी अपने अधिकारों से वंचित हैं।

अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की नीतिया अपने उफान पर हैं ऐसे में मॉल कल्चर का चलन दिनों दिन बढ़ेगा ही। देशी कंपनियों के अलावा विदेशी कंपनियों ने भी भारत में भारी निवेश इस सेक्टर में किया है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि सरकार बाजार को बढ़ावा देने की आड़ में श्रम कानूनों के पालन में ढिलाई बरतने की बजाय तर्क और न्यायसंगत कानून का निर्माण और मौजूदा कानून में उचित संशोधन करे। आने वाले दिनों में रिटेल सेक्टर और माॅल में काम करने वालों की अच्छी खासी आबादी देश में होगी और धीरे-धीरे ही सही लाखों शोषित कर्मचारी अपने अधिकारों और हक के लिये संगठित भी होंगे।

ऐसे में समय रहते सरकार और जिम्मेदार मशीनरी को इस ओर उचित ध्यान देना चाहिए वहीं कर्मचारियों को भी संगठित होकर अपने अधिकारों की मांग न्यायिक तरीके से करनी चाहिए। इतिहास इसका साक्षी है कि प्रशिक्षित और कुशल कर्मचारियों के अभाव में बड़े-बड़े उधोग ठप और तबाह हो जाते हैं ऐसे में खुदरा व्यापार में कार्यरत कंपनियों को कर्मचारियों को सुविधाएं और अधिकार प्रदान करने की पहल करनी चाहिए क्योंकि जब श्रम शक्ति संतुष्ट और सुविधासंपन्न होगी उनका व्यापार भी तभी फले-फूलेगा।

2 COMMENTS

  1. श्रम संबंधी मुद्दों पर समयोचित लेख है| मॉल कल्चर भारत में उभरता एक ऐसा व्यवसायिक प्रयास है जो भारतीय जीवन को आधुनिकता की ओर ले जा सामायिक जीवन की गुणवत्ता बढाने में सहायक हो सकता है| पूंजी निवेश के साथ साथ मॉल में दुकानो पर कार्यरत कुशल कर्मचारी भी इस प्रयास की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| इस तथ्य को समझते हुए दुकानों के मालिकों को स्वयं ऐसे आवश्यक कदम उठाने चाहियें जो लागू श्रम संबंधी कानून को ध्यान में रखते कर्मचारी की आय और आनुषंगिक उपलब्धिओं को निश्चित करें| यदि मैं स्वयं किसी व्योपार में धन लगाऊं तो पूँजीनिवेश पर कम से कम बैंक में मिले व्याज के बराबर लाभ की आशा बनी रहेगी| और यदि उस व्योपार में मेरा समय और श्रम दोनों लगते हैं तो मुझे अच्छा पारिश्रमिक भी मिलना चाहिए| हम इसी वास्विकता और सामाजिक उत्तरदायित्व को भूल जाते हैं जब दूसरे लोग हमारे व्योपार में अपना समय और श्रम लगाते हैं| क्योंकि हम अपने व्यक्तिगत व व्यवसाई जीवन में केवल स्वयं के लाभ का सोचते हैं इस लिए हमारे समाज में हर स्तर पर अभाव और अनुपयुक्तता ही दिखती है| तिस पर हम समाज में अच्छी व्यवस्था चाहते हैं, समाज में उचित नियंत्रण चाहते हैं, समाज में एक योग्य अनुशासन चाहते हैं| यदि हम अपने से पहले राष्ट्र के और अपने समाज के हित का सोचें तो भारत में श्रमिक क्या कोई भी नागरिक लाचार न होगा|

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