देश को स्वतन्त्रता दिलाने में ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की भूमिका

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मनमोहन कुमार आर्य
ravendra jiमहाभारत युद्ध के बाद अविद्या का अन्धकार सारे देश में फैल गया जो मनुष्यों की पराधीनता का कारण बना। उस अविद्यान्धकार से हम आज तक भी स्वतन्त्र नहीं हो पाये हैं। महाभारत काल के बाद अविद्या के कारण अहिंसा का पर्याय यज्ञों में हिंसा होना आरम्भ हो गया था। वेदों के यथार्थ अर्थ भी लोगों की पहुंच से दूर हो गये थे। यज्ञ में हिंसा के कारण कालान्तर में अभक्ष्य पदार्थों का सेवन भी आरम्भ हो गया था। गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था भंग व विकृत हो गई थी जिसका स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया था जिसका कालान्तर में भयंकर परिणाम हुआ जो आज भी कुछ कुछ विद्यमान है। हिंसा युक्त मिथ्या कर्मकाण्ड व अज्ञान आदि के कारण भारत में वाममार्ग का प्रचलन हुआ। कालान्तर में इससे प्रभावित बौद्ध व जैन मत अस्तित्व में आये। वैदिक मत धीरे-धीरे समाप्त व विकृतियों को प्राप्त होता रहा। इन्हीं विकृतियों के युग में शैव, वैष्णव व शाक्त आदि मत भी अस्तित्व में आये। भारत से दूर यूरोप व अरब देशों में पारसी, ईसाई व इस्लाम मतों का आविर्भाव हुआ। इनमें भी शाखायें-प्रशाखायें उत्पन्न हुईं जिसका कारण अविद्या ही है। अविद्या भी मनुष्यों को गुलाम बनाती है और विद्या से मनुष्य स्वतन्त्र होता है। महर्षि दयानन्द के सन् 1863 में कार्य क्षेत्र में अवतीर्ण होने से पूर्व देश अविद्या में डूबा हुआ था। संसार के सभी लोग ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति (कारण व कार्य दोनों) के यथार्थ स्वरूप को भूल चुके थे। ऋषि दयानन्द को 14 वर्ष की आयु में ही ईश्वर के यथार्थ स्वरूप में भ्रम हो चुका था जिसका वह समाधान करना चाहते थे। इसकी खोज ही उनके जीवन का मिशन बना था। सन् 1838 से सन् 1863 तक वह ईश्वर के सत्य स्वरुप को जानने व उसे प्राप्त करने में लगे रहे और अनेक गुरुओं की कृपा से वह अपने ईश्वर के यथार्थ स्वरूप की खोज के मिशन में सफल हुए। उनके मुख्य गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे जिनसे उनकी समस्त शकाओं का निराकरण ही नहीं हुआ अपितु उन्हें ईश्वरीय ज्ञान वेद और आर्ष ग्रन्थों व परम्पराओं का ज्ञान भी हुआ था। संसार को अविद्या के अन्धकार से मुक्त वा स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा भी उन्हें गुरु विरजानन्द जी से ही मिली थी।

आज सत्तरवें स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त, 2016 पर हम स्वामी दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश के अष्टम् समुल्लास में दिये गये एक उपदेश को प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें आदि सृष्टि का स्थान, आर्यावत्र्त देश व इसकी सीमायें, आर्यों का आदि स्थान, देश की परतन्त्रता के कारण, विदेशी व स्वदेशी राज्य में अन्तर तथा स्वदेशीय राज्य का महत्व आदि अनेक विषयों की उन्होंने चर्चा की है। वह कहते हैं कि (प्रश्न) मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई? (उत्तर) त्रिविष्टिप् अर्थात् जिस को ‘तिब्बत’ करते हैं। (प्रश्न) आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक? (उत्तर) एक मनुष्य जाति थी, पश्चात् ‘‘विज्ञानीह्यार्यानये च दस्यवः” यह ऋग्वेद का वचन है। श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान, देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात् डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। ‘‘उत शूद्रे उतार्ये” अथर्ववेद का वचन है। आर्यों में पूर्वोक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र, चार भेद हुए। द्विज विद्वानों का नाम आर्य और मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात् अनाड़ी नाम हुआ। (प्रश्न) फिर वे यहां कैसे आये? (उत्तर) जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव, अविद्वान् जो असुर, उन में सदा लड़ाई बखेड़ा हुआ किया, जब बहुत उपद्रव होने लगा, तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जान कर यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का नाम ‘‘आर्यावर्त” हुआ। (प्रश्न) आर्यावर्त की अवधि कहां तक है? (उत्तर)
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बुधाः।।1।।

सरस्वतीद्वषद्धत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त प्रचक्षते।।2।।

उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र।।1।। तथा सरस्वती पश्चिम में, अटक नदी पूर्व में, दृषद्वती जो नेपाल के पूर्वभाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा (ब्रह्मदेश, बर्मा वा म्यमार) के पश्चिम ओर हो कर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्र (नदी) कहते हैं। और अटक जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आकर मिली है। हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं, उन सब को आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है। (प्रश्न) प्रथम इस देश का नाम क्या था, और इसमें कौन बसते थे? (उत्तर) इसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था, और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे, क्योंकि आर्य लोग सृष्टि को आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे। (प्रश्न) कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये, इसी से इन लोगों का नाम आर्य हुआ है। इन के पूर्व यहां जंगली लोग बसते थे कि जिन को असुर और राक्षस कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उन का जब संग्राम हुआ, उस का नाम देवासुर संग्राम कथाओं में ठहराया। (उत्तर) यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि –

विजानीह्यार्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रंधया शासद व्रतान्। (ऋग्वेद मंत्र 1/51/8)

‘उत शूद्रे उतार्ये। यह भी अथर्ववेद का प्रमाण है। यह लिख चुके हैं कि आर्य नाम धार्मिक, विद्वान, आप्त, पुरुषों का और इन से विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात् अनाड़ी है। जब वेद ऐसे कहता है, तो दूसरे विदेशियों (अंग्रेजों वा अन्यों) के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर संगाम में आर्यावर्तीय अर्जुन तथा महाराजा दशरथ आदि हिमालय पहाड़ में आर्य और दस्यु-म्लेच्छ-असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें देव अर्थात् आर्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने का सहायक हुए थे। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यावर्त के बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, देश में मनुष्य रहते हैं, उन्हीं का नाम असुर सिद्ध होता है। क्योंकि जब-जब हिमालय प्रदेशस्थ आर्यों पर लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब-तब यहां के राजा-महाराजा लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्यों के सहायक होते। और जो श्री रामचन्द्र जी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उस का नाम देवासुर संगाम नहीं है, किन्तु उस को राम-रावण अथवा आर्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों से लड़कर, जय पा कर, निकाल कर, इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? और-

आर्यवाचो म्लेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।।1।।
म्लेच्छदेशस्त्वतः परः।।2।।

जो आर्यावर्त देश से भिन्न देश हैं, वे दस्यु देश और म्लेच्छ देश कहाते हैं। इस से भी यह सिद्ध होता है कि आर्यावर्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईशान, उत्तर वायव और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम दस्यु और म्लेच्छ तथा असुर है। और, नैऋत्य, दक्षिण तथा आग्नेय दिशाओं में आर्यावर्त से भिन्न रहने वाले मनुष्यों का नाम राक्षस है। अब भी हबशी लोगों का स्वरूप देख लो, वह जैसा भयंकर राक्षसों का वर्णन किया है, वैसा ही दीख पड़ता है। और, आर्यावर्त की सूध पर नीचे रहने वालों का नाम नाग और उस देश का नाम पाताल इसलिये कहते हैं कि वह देश आर्यावर्तीय मनुष्यों के पाद अर्थात् पग के तले है और उनको नागवंशी अर्थात् नाग नाम वाले पुरुष के वंश के राजा हाते थे। उसी की उलोपी राजकन्या से अर्जुन का विवाह हुआ था। अर्थात्, इक्ष्वाकु, से लेकर कौरव-पांडव तक सर्व भूगोल में आर्यों का राज्य और वेदों का थोड़ा थोड़ा प्रचार आर्यावर्त से भिन्न देशों में भी रहा। तथा, इस में यह प्रमाण है कि ब्रह्मा का पुत्र विराट, विराट्का मनु, मनु के मरीच्यादि दश, इनके स्वायंभवादि सात राजा और उनके संतान इक्ष्वाकु आदि राजा, जो आर्यावर्त के प्रथम राजा हुए, जिन्होंने यह आर्यावर्त बसाया है।

अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखंड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है, सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त (परतन्त्र वा गुलाम) हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतंत्र है। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को (परतन्त्रता आदि) अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है।

कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा, मतमतांतर के आग्रह रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों (अंगे्रेजों) का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु, भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक पृथक शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे, परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखें , उसी का मान्य करना भद्र पुरुषों का काम है।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण सन् 1875 में प्रकाशित कराया था। इसका दूसरा संस्करण उन्होंने सन् 1883 में तैयार किया था जो प्रेस में प्रकाशनाधीन था और 30 अक्तूबर सन् 1883 को उनकी मृत्यु के बाद सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। स्वराज्य शब्द का प्रयोग, देश की आजादी का विचार व इनका लिखित कथन देने वाले इतिहास में सर्वप्रथम व्यक्ति महर्षि दयानन्द ही हैं। विदेशी राज्य का विरोध व स्वदेशी राज्य की श्रेष्ठता की चर्चा उन्होंने केवल सत्यार्थप्रकाश में ही नहीं की अपितु आर्यों की विनय वा प्रार्थना की पुस्तक आर्याभिविनय के अनेक मन्त्रों के अर्थों और ‘संस्कृत वाक्य प्रबोध’ जैसी बालक-बालिकाओं की लघु पुस्तक में भी की है। स्वामी दयानन्द के पूर्व स्वदेश व स्वराज्य की चर्चा भारत के किसी मनीषी के ग्रन्थ में नहीं मिलती। वह पहले मनीषी थे जिन्होंने ‘विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं, स्वदेशीय राज्य सर्वोपरि होता है’ आदि वचनों को प्रस्तुत कर देश की आजादी की नींव रखी थी। देश को आजादी दिलाने वाले नरम व गरम दलों के आद्य आचार्य श्री महादेव रानाडे (श्री गोपाल कृष्ण गोखले के राजनैतिक गुरु) और पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा भी महर्षि दयानन्द के साक्षात् शिष्य थे। बताया जाता है कि कांग्रेस (स्थापना सन् 1885) के इतिहास लेखक सर सीताभि पट्टारमैया ने लिखा है कि आजादी के आन्दोलन में भाग लेने वाले अस्सी प्रतिशत लोग आर्यसमाजी थे। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहित स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, पं. राम प्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द आदि आजादी के अनेक दिवाने भी महर्षि दयानन्द के शिष्य थे। शहीद भगत सिह के दादा सरदार अर्जुन सिंह व उनका पूरा परिवार ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का अनुयायी था। यदि स्वतन्त्रता के संघर्ष पर निष्पक्ष दृष्टि डालें तो देश की आजादी में ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का सर्वाधिक योगदान है। आर्यसमाज के कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि सत्यार्थप्रकाश में अंग्रेजों के विदेशी राज्य का स्पष्ट विरोध ही स्वामी दयानन्द की हत्या के षडयन्त्र का मुख्य कारण था जो आज भी रहस्य है। आज स्वतन्त्ऱता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जी द्वारा स्वामी विवेकानन्द की चर्चा भी की है। स्वामी दयानन्द के देश को स्वतन्त्ऱता दिलाने में उनके योगदान को नजरन्दाज करने से हमें पीड़ा होती है। हमें लगता है कि स्वामी दयानन्द का सही मूल्याकंन होना और स्वतन्त्र भारत में उन्हें उनके योगदान के अनुरूप न्याय मिलना बाकी है। आज स्वतन्त्रता वा स्वराज्य दिवस पर हम ऋषि दयानन्द का सादर स्मरण कर देशवासियों को स्वतन्त्रता दिवस की बधाई देते हैं।

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