जेएनयू – रोमिलाथापर : क्षुद्र बुद्धि के डायनासोर

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romila thaparमार्क्सवादी इतिहासकार #रोमिलाथापर ने खुद अपनी जुबानी अपने को ‘जेएनयू का डायनासोर’ बताया है! यह उन्होंने #जेएनयू में ‘राष्ट्रवाद और इतिहास’ पर गत रविवार भाषण दते हुए कहा। कुछ अर्थों में यह संज्ञा सटीक है। खास कर, नाम बड़े और दर्शन छोटे या कि बुद्धि छोटी वाले अर्थ में। आखिर इसे क्या कहें कि मुहम्मद अफजल तथा 9 फरवरी की घटना का उल्लेख करके भी रोमिला ने ‘जेएनयू के टूटने’ की संभावना पर चिन्ता की, मगर ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह!’ पर नहीं? यानी, भारत टूटे तो टूटे, पर जेएनयू नहीं – ऐसी बुद्धि यदि राजनीतिक घात नहीं, तो क्षुद्र बुद्धि तो है ही!

पर शायद बात छोटी बुद्धि की नहीं, बल्कि राजनीतिक बुद्धि की है। यह एक तो इसी से स्पष्ट है कि भाषण में रोमिला ने शिकायत की कि राष्ट्रवाद की स्थापित परिभाषा के साथ छेड़-छाड़ की जा रही है। वे किस ‘स्थापित’ परिभाषा का संकेत कर रही थीं? जिस मार्क्सवाद-लेनिनवाद को उन्होंने कम से कम सन् 1969 से अपने लेखन और कर्म का आधार बनाया हुआ था, उस में तो राष्ट्रवाद एक गाली है!

मार्क्सवाद इस्लाम की तरह ही स्वघोषित रूप से अंतर्राष्ट्रीयतावादी रहा है। इतना कि प्रथम विश्व-युद्ध के समय लेनिन ने अपने देश रूस के शत्रु जर्मनी से आर्थिक, भौतिक मदद लेकर रुसी सत्ता पर कब्जे की सफल कोशिश की। उसी सिद्धांत के नाम पर भारतीय मार्क्सवादियों ने 1942 में गाँधीजी और कांगेस के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ दिया। राष्ट्रवाद उन के लिए कितना क्षुद्र था, यह इस से दिखता है कि उन्होंने 1947 में भारत को तोड़ने में उत्साहपूर्वक मुस्लिम लीग की मदद की। फिर 1962 में चीनी आक्रमण पर अनेक मार्क्सवादी नेताओं ने भारत को ही दोषी बताया। यह सब कोई गलतियाँ नहीं थीं। सारी दुनिया में किसी मार्क्सवादी का ‘नेशनलिस्ट’ होना उस का भटकाव, ‘डेवियेशन’ माना जाता रहा है।
तब रोमिला थापर राष्ट्रवाद की किस स्थापित परिभाषा का संकेत उन भोले छात्रों को कर रही थीं, जिन से उन्होंने यत्नपूर्वक मार्क्सवादी इतिहास के सारे काले कारनामे छिपाए हैं? वस्तुतः रोमिला के भाषण की पूरी धार संघ-भाजपा केंद्र सरकार पर राजनीतिक निशाना साध रही थीं। उस में न राष्ट्र की चिंता थी, न राष्ट्रवाद की परिभाषा की। भारत को तोड़ने की उग्र नारेबाजी पर रोमिला की बेफिक्री यूँ ही नहीं थी। सच पूछिए तो अनेक पुराने मार्क्सवादियों की तरह उन्हें भी भारत के टूटने की आशा या चाह रही है। इसे उन्होंने व्यक्त भी किया है।

सन 1993 में फ्रांस के प्रसिद्ध अखबार ‘ल मोंद’ को इंटरव्यू में रोमिला थापर ने प्रसन्नतापूर्वक भविष्यवाणी की थी कि भारत एक नहीं रहेगा। यानी, इस बिन्दु पर उन की प्रवृत्ति मुहम्मद अफजल और विविध माओवादियों, जिहादियों से बहुत भिन्न नहीं है। इस के अन्य संकेत और प्रमाण भी हैं।

रोमिला थापर की भाभी राज थापर (प्रसिद्ध अंग्रेजी मासिक सेमिनार की संस्थापक, संपादक) ने अपनी आत्मकथा ‘ऑल दीज इयर्स’ में एक घटना का उल्लेख किया। यह बात सन 1980 की है। तब डॉ. कर्ण सिंह केंद्रीय कैबिनेट मंत्री थे। उन्होंने अपने मित्र रोमेश थापर से एक दिन शिकायत की कि उन की बहन रोमिला “अपने इतिहास लेखन से भारत को नष्ट कर रही है”। इस पर उन की रोमेश से तकरार भी हो गई। राज थापर ने यह प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखते हुए रोमिला का कोई बचाव नहीं किया। उलटे अपने पति रोमेश को ही झड़प में कमजोर पाया जो ‘केवल भाई’ के रूप में कर्ण सिंह से उलझ पड़े थे।

इसलिए न केवल तब से आज तक रोमिला_थापर का लेखन, बल्कि ‘ल मोंद’ को दिए इंटरव्यू में उन की आशा उसी चीज की पुष्टि करती है, जो कर्ण सिंह ने बहुत पहले देखा था। निस्संदेह अब रोमिला थापर ‘#जेएनयू की डायनासोर’ हैं, जहाँ उन के तमाम लेखन, भाषण, अध्यापन और प्रचार का मुख्य स्वर सदैव हिन्दू-निन्दा और इस्लाम-परस्ती रहा। यह विगत 47 साल से उन के वक्तव्यों के साथ-साथ एक्टिविज्म में भी दिखता है।

वह एक्टिविज्म भी भारत को तोड़ने वाला ही रहा, इस का उदाहरण अयोध्या आंदोलन में रोमिला थापर एंड कंपनी का सक्रिय हस्तक्षेप था। सन् 1989 में रोमिला के नेतृत्व में 25 मार्क्सवादी इतिहास प्रोफेसरों ने एक पुस्तिका प्रकाशित की – ‘इतिहास का राजनीतिक दुरुपयोग’ (‘पोलिटिकल एब्यूज ऑफ हिस्टरी’) और देश भर में उसे बँटवाया। इस के प्रकाशक में बाकायदा सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज, जेएनयू, लिखा हुआ था! उस में झूठा दावा किया गया कि, ‘अब तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला जिस से सिद्ध हो कि बाबरी मस्जिद उसी जगह बनाई गई जहाँ पहले मंदिर था।’ यह दावा झूठा था, यह अब न्यायालय के निर्णय से भी स्पष्ट है। लेकिन उन मार्क्सवादियों को यह तब भी मालूम था! क्योंकि चार सौ वर्ष से चल रहे उस विवाद के बारे में ऐतिहासिक विवरणों, दस्तावेजों, पत्रों, पुस्तकों, आदि का पूरा अंबार उपलब्ध रहा है।
उस जग-जाहिर इतिहास पर कुटिलतापूर्वक पर्दा डालकर रोमिला थापर और सभी कम्युनिस्टों ने वह समझौता रोकने का सफल प्रयास किया, जो तब हिन्दू और मुस्लिम पक्षों के बीच संभव था। सन् 1989-1992 के बीच घटनाक्रम का मामूली शोध भी दिखाता है, कि उस विवाद को विध्वंस तक पहुँचाने, यानी भारत की एकता को भारी चोट देने में, रोमिला थापर जैसे मार्क्सवादियों की बड़ी भूमिका थी। इस की तस्दीक तब के अनेक नेताओं, जानकारों ने भी की है।

उदाहरण के लिए, प्रतिष्ठित पुरात्तववेत्ता तथा आर्कियोलॉजिलक सर्वे ऑफ इंडिया के रिटायर्ड निदेशक के. के. मुहम्मद ने भी इधर प्रकाशित अपनी आत्मकथा में यही लिखा है। उन के शब्दों में, ‘मार्क्सवादी इतिहासकारों और कुछ बड़े अखबारों के घातक संयोजन ने मुस्लिम समुदाय को बिलुकल गलत जानकारी दी। यदि वह न हुआ होता तो मुस्लिम शान्तिपूर्ण समाधान स्वीकार कर लेते। यदि यह हुआ होता, तो आज अनेक दूसरे मुद्दे जो देश झेल रहा है, सुलझ गए होते।’ इस अंतिम बात पर ध्यान दें, तब भारत-तोड़क गतिविधियों में रोमिला थापर की भूमिका पर कुछ और प्रकाश पड़ता है।
इस प्रकार, जेएनयू के नाम का आधिकारिक उपयोग करके रोमिला थापर ने सन् 1989 से एक हिन्दू-विरोधी राजनीतिक एक्टिविज्म चलाया, जिस की परिणति दिसंबर 1992 के अयोध्या विध्वंस में हुई। एक अर्थ में, यह सब एक्टिविज्म और मिथ्या इतिहास-लेखन एक अटूट कड़ी बनाते है, जो जेएनयू के अनेकानेक समाज विज्ञान तथा मानविकी प्रोफेसरों में पाई जा सकती है। रोमिला तो मात्र एक प्रतिनिधि उदाहरण हैं।

दुर्भाग्यवश, हिन्दू चिन्ता और राष्ट्रवाद की फिक्र करने वाले सामाजिक, राजनीतिक संगठनों ने ही इसे नहीं देखा। यदि देखा तो उस के गंभीर निहितार्थ नहीं समझे। और जो समझे भी तो उस की कोई काट या उपाय करने पर कतई ध्यान नहीं दिया!

उसी का दुष्परिणाम है कि धीरे-धीरे जेएनयू हर तरह की देश-विरोधी और हिन्दू-द्वेषी राजनीति का अड्डा बन गया। और ‘जेएनयू के डायनासोर’’ अभी भी उसी तरह, बेफिक्र, बल्कि घमंड के साथ भारत को तोड़ने वालों के प्रति एकजुटता दिखाने और उन्हें प्रेरित करने में लगे हुए हैं। दशकों के प्रयत्नों से अब उन के चेले-चेलियाँ मीडिया और अधिकारी वर्ग में भी हैं। उन्हें भी रोमिला की तरह भारत के टूटने की नहीं, बल्कि जेएनयू को यथावत् भारत-विरोधी किले के रूप में बचाने की चिन्ता है।

अतः संसद पर हमला करने वाला मुहम्मद अफजल, या आतंकी सूत्रधार याकूब मेमन, इशरत जहाँ, आदि हर तरह के घाती यदि जेएनयू में हीरो बनाये जाते हैं, तो यह सब संयोग नहीं। आखिर ये लोग भारत को नष्ट ही तो करना चाहते थे! यानी, ठीक वह चीज जो बकौल डॉ. कर्ण सिंह, रोमिला थापर का लेखन करता रहा है।

3 COMMENTS

  1. (१)इतिहास कार नहीं, रोमिला और उसके सह यात्री शत्रुओं के दलाल हैं।
    (२)इन्हें जितनी शासकीय सहायता दी गयी है; उसीका हिसाब इससे माँगा जाए।
    (३) जब रॉयल एशियाटिक सोसायटी ने संस्कृत की पाण्डु लिपियाँ चुराने का षड्‌यंत्र रचा, जिसके ३० सदस्य (सभी के सभी) गोरे थे।उन्होंने चुन चुन कर, भारत की धरोहर मानी जाती ज्ञानविज्ञान से छलकती पाण्डु लिपियाँ भारत के बाहर भिजवा दी।आज भारत नहीं, पर जर्मनी, और ऑक्सफर्ड, कॅम्ब्रिज (और जो मैं जानता नहीं) ये सारे उन्हें दबा(?) बैठे हैं। —इतना स्पष्ट षडयंत्र ये हमारे रखवाले इतिहासकार भी ताड न पाए। न उसपर लेखनी किसी जे एन यु इतिहासकार ने चलाई।
    (४) क्या रॉ. ऎशियाटिक सोसायटी आप को लिखकर देती, कि हम भारत की ज्ञान सम्पदा चुराने के उद्देश्य से काम कर रहे हैं?
    ऐसे गद्दार इतिहासकारों को गधो पर पर बैठाकर मुँह काला कर घुमाना चाहिए।
    (५) भारत का नमक खाकर भारत के ही घनघोर विरोधी, द्रोही, अपराधी?

  2. वाम पंथियों का यह कीटाणु कुछ लोगों अंदर ही है और वे ही उसे बार बार प्रस्फुटित कर रहे हैं , कोई भी सरकार इसे रोक सकती है लेकिन उसे शुरुआत में कुछ कठिनाई आएगी आज कोंग्रेसी कौओं द्वारा इसका जा रहा है , क्योंकि बंगाल में चुनाव लड़ने के लिए उन्हें इन की जरुरत है , वैसे भी उनके कार्यकाल में यह सब बढ़ा है लेकिन ऐसा लाइलाज भी नहीं
    धर्म, दलित,व संप्रदाय की राजनीति कर्मी वाले इन तथाकथित बुद्धीजीवियों का यह एक प्रलाप है , और वोटों के बाँटने से से डरने वाले हमारे राजनीतिज्ञों का कायराना कर्म जिसके वजह से आज यह हालात बने हैं वरना अब इसके पनपने की जगह कहाँ हैं ?आखिर कितने नेता इसने दिए? क्या उनकी भूमिका रही ?यह सब देख कर तो यह मात्र एक डायनोसर ही लगता है इस से ज्यादा कुछ भी नहीं , जिसके तोडना असंभव नहीं है

  3. ये जेएनयुवादी वायरस का फैलाव कई अंगो में हुआ लेकिन लाइलाज नही है

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