राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वर्तमान चुनाव

-विजय कुमार-
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दो महीने के शोर और संघर्ष के बाद लोकसभा चुनाव के परिणाम आ गये हैं। दिल्ली में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देशभक्तों की सशक्त सरकार बनने जा रही है। चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप तो लगते ही हैं; पर इस बार कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधियों ने एक बात बहुत जोर से उछाली कि यह चुनाव भाजपा नहीं, वरन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लड़ रहा है। चुनाव अभियान की समाप्ति के बाद भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी दिल्ली में संघ कार्यालय जाकर सरसंघचालक श्री मोहन भागवत से मिले। अगले दिन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ ने भी वहां जाकर संघ के वरिष्ठ लोगों से भेंट की। इस पर भी कांग्रेस ने खूब हल्ला मचाया। पर अब उनके शोर से क्या होना है ? नरेन्द्र मोदी का जादू सबके सिर पर चढ़कर बोल रहा है। उन्होंने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का जो नारा दिया था, उसका पहला चरण ‘कांग्रेस मुक्त सरकार’ पूरा हो गया है। अगले दो-चार साल में यदि उसका अगला चरण ‘नेहरू परिवारमुक्त कांग्रेस’ भी पूरा हो गया, तो देश के सभी दलों में ‘परिवारवाद’ के विरुद्ध स्वर उठेंगे और यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत ही शुभ होगा।

जहां तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका की बात है, तो यह सौ प्रतिशत सच है कि इस बार चुनाव में बहुत वर्षों बाद संघ और उसके स्वयंसेवकों द्वारा चलाये जा रहे विविध संगठनों ने अपनी पूरी शक्ति लगायी। यदि ऐसा न होता, तो भाजपा और उसके सहयोगियों को इतनी बड़ी सफलता न मिलती। संघ वालों ने 1977 के बाद संभवतः पहली बार इतना योजनाबद्ध काम किया है। इसका विश्लेषण करने पर कुछ बातें ध्यान में आती हैं। संघ के स्वयंसेवक शांत भाव से समाज सेवा और संगठन के काम में लगे रहते हैं। यह साधना वे 1925 से लगातार कर रहे हैं। राजनीति में अत्यधिक सक्रिय होने से जहां एक ओर यह साधना बाधित होती है, तो दूसरी ओर कुछ कार्यकर्ताओं के मन में भी चुनाव लड़कर पार्षद, विधायक या सांसद बनने की इच्छा जाग्रत होने लगती है। किसी ने ठीक ही कहा है, ‘काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाए, एक लीक काजल की लागी है पै लागी है।’ तो ऐसी दैनन्दिन राजनीति से स्वयंसेवक जितना दूर रहें, उतना ही अच्छा है।

पर दुनिया में अच्छे लोगों के साथ खराब लोग भी होते ही हैं। देवता और दानव, संत और राक्षस, सुर और असुरों की कहानियां हम सबने सुनी हैं। उनमें बताया जाता है कि शांति से अपना काम करने वाले अच्छे लोगों को भी प्रायः दुष्ट परेशान करते हैं। ऐसे में मजबूर होकर उन्हें कुछ समय के लिए अपना मूल काम छोड़कर शस्त्र उठाने पड़ते हैं। संघ के साथ भी कई बार ऐसा हुआ।

1948 में जवाहरलाल नेहरू में गांधी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ को कुचलना चाहा। तब संघ की ताकत बहुत कम थी। अतः प्रतिबंध समाप्ति के बाद सरसंघचालक गुरुजी ने संघ के कुछ वरिष्ठ प्रचारकों को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ लगाकर ‘भारतीय जनसंघ’ नामक एक राजनीतिक दल खड़ा किया। निःस्वार्थ कार्यकर्ताओं की शक्ति और साधना से जनसंघ की शक्ति बढ़ने लगी। 1967 में उसने डा. राममनोहर लोहिया के सहयोग से कई राज्यों में कांग्रेस को अपदस्थ कर दिया। यह देखकर नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी ने भी संघ को कुचलने का प्रयास किया। उन्होंने 1975 में देश भर में आपातकाल थोप कर संघ को प्रतिबंधित कर दिया। लाखों स्वयंसेवक जेल में ठूंस दिये गये; पर जब 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए, तो स्वयंसेवकों ने अपनी शक्ति दिखा दी। खम्भा फाड़कर नृसिंह भगवान प्रकट हो गये। वामन ने विराट रूप ले लिया। अतः इंदिरा गांधी जैसी तानाशाह और उसके बददिमाग पुत्र संजय गांधी को धूल चाटनी पड़ी। चुनाव के बाद दिल्ली में ‘जनता पार्टी’ की सरकार बनी। इंदिरा गांधी ने जाते-जाते अपने हस्ताक्षर से ही संघ से प्रतिबंध हटा दिया। बाद में उन्होंने यह स्पष्ट स्वीकार किया कि संघ को प्रतिबंधित करना उनकी सबसे बड़ी भूल थी।

‘श्रीराम जन्मभूमि मंदिर’ आंदोलन के समय छह दिसम्बर, 1992 को स्वाभिमानी हिन्दू युवकों ने राष्ट्रीय कलंक का प्रतीक बाबरी ढांचा गिरा दिया। इससे कांग्रेस के हाथों के तोते उड़ गये। उसे लगा कि जिन मुसलमान वोटों के बल पर वह सत्ता सुख भोग रही है, वह उसके हाथ से चले जाएंगे। अतः कांग्रेस ने एक बार फिर संघ पर प्रतिबंध लगाया। यद्यपि यह प्रतिबंध नाममात्र का ही था। क्योंकि कोई कार्यालय बंद नहीं हुआ और बिना ध्वज के शाखाएं भी लगती रहीं। अंततः न्यायालय के आदेश से प्रतिबंध उठ गया। फिर भी 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को स्वयंसेवकों का आक्रोश सहना पड़ा और नरसिंहराव की सरकार चली गयी। 1977 के बाद संघ ने समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वयंसेवकों को काम करने के लिए भेजा। स्वयंसेवकों ने उन बीहड़ क्षेत्रों में अपनी अविश्रांत साधना से नयी फसलें उगा दीं। आज तो शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहां संघ के स्वयंसेवक न हों। यहां तक कि देशभक्त मुसलमानों और ईसाइयों के बीच भी संघ काम कर रहा है। अर्थात संघ की शक्ति कई गुना बढ़ गयी है; लेकिन उसके बाद हुए चुनावों में स्वयंसेवकों ने कोई विशेष भूमिका नहीं निभायी। अटल जी के शासन से स्वयंसेवक बहुत खुश भी नहीं थे। इसलिए 2004 में एक बार फिर कांग्रेस आ गयी। सोनिया मैडम ने प्रधानमंत्री बनने का प्रयास किया; पर देशभक्त राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने विदेशी नागरिकता के कागज दिखाकर उन्हें बैरंग लौटा दिया। ऐसे में मजबूर होकर सोनिया मैडम ने रीढ़विहीन मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया और खुद कुछ न होते हुए भी सर्वेसर्वा बन गयीं।

इस बार कांग्रेस ने अपने सहयोगियों के साथ ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ के नाम से सरकार बनायी थी। अब मैडम सोनिया को ‘भारत के ईसाइकरण’ का वह मूल काम भी याद आ गया, जिसके लिए वेे राजीव गांधी का हाथ थामकर यहां आयी थीं। इसमें सबसे बड़ी बाधा संघ ही था। 2004 से 2009 तक सोनिया ने पार्टी और सरकार दोनों को अपनी मुट्ठी में कर लिया। अब वे अपने एजेंडे पर तेजी से काम करने लगीं। उन्होंने अजीत जोगी, गिरधर गमांग, ओमान चांडी, डॉ. राजशेखर रेड्डी जैसे ईसाई नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया। केन्द्र सरकार और पार्टी में भी ईसाइयों को महत्वपूर्ण पद दिये। 2009 के चुनाव में भाजपा ने भारी भूल की और प्रधानमंत्री के लिए वयोवृद्ध लालकृष्ण आडवाणी को सामने कर दिया। वे जनता और भा.ज.पा. के कार्यकर्ताओं में उत्साह नहीं जगा सके। संघ भी उदासीन रहा। अतः भाजपा को 2004 से भी कम सीट मिलीं। इससे सोनिया मैडम की हिम्मत बढ़ गयी। वे फिर संघ को कुचलने के बारे में सोचने लगीं; पर उनके खानदानी चंपू दिग्विजय सिंह ने कहा कि प्रचारकों का घरेलू सम्पर्क बहुत प्रबल होता है। कार्यालय सील होने से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। प्रतिबंध लगा, तो वे किसी और नाम से काम करने लगेंगे। वटवृक्ष की तरह संघ की सैकड़ों शाखा और प्रशाखाएं हैं। हम किस-किस पर प्रतिबंध लगाएंगे ?

लेकिन फिर संघ को कैसे कुचलें ? उसे कुचले बिना हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटेगा और उसके बिना भारत धर्मान्तरित नहीं होगा। इधर मैडम का स्वास्थ्य लगातार गिर रहा था। ऐसे में एक ओर संघ को कुचलना था, तो दूसरी ओर राहुल बाबा को कांग्रेस और सरकार में मुखिया बनाना था। राहुल को बढ़ाने के लिए मनमोहन सिंह को बार-बार अपमानित किया गया। संघ को कुचलने के लिए मैडम की जेबी ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ ने ‘साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा’ नामक एक खतरनाक विधेयक तैयार किया। यद्यपि प्रबल विरोध के चलते यह पारित नहीं हो सका; पर यदि यह कानून बन जाता, तो संघ और विश्व हिन्दू परिषद के सभी शीर्ष नेता जेल में होते। उनका वही हाल होता, जो झूठे आरापों में बंद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और स्वामी असीमानंद का है। देश में फिर से औरंगजेबी काल आ जाता। यदि मैडम और उनकी दुष्ट मंडली का बस चलता, तो वे नरेन्द्र मोदी को बिना मुकदमा चलाये फांसी दे देते; पर देश और हिन्दुओं के भाग्य से यह विधेयक पारित नहीं हो सका।

सोनिया मैडम द्वारा इस विधेयक के लिए की जा रही हठ को देखकर संघ ने भी तय कर लिया कि जो सरकार हिन्दुओं को भारत में ही दो नंबर का नागरिक बना देना चाहती है, उसे हर हाल में हराना ही होगा। फिर क्या था ? संघ वाले गांव-गांव और गली-गली में निकल पड़े। उन्होंने लोगों से मिलकर उन्हें मतदान का महत्व समझाया और अपनी इस शक्ति का देशहित में प्रयोग करने को कहा। सबके सुख-दुख में सदा काम आने के कारण स्वयंसेवकों की समाज में अच्छी प्रतिष्ठा तो होती ही है। लोगों ने उनकी बात मानकर मतदान केन्द्रों पर भीड़ लगा दी। इससे जहां एक ओर मतदान का प्रतिशत बढ़ा, वहां कांग्रेस के कफन में एक कील और ठुक गयी। श्रीराम और रावण के युद्ध के बाद एक कवि ने अतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग करते हुए कहा है, ‘लाखों पूत करोड़ों नाती, उस रावण घर दिया न बाती।’ श्रीराम से टकराने का परिणाम रावण ने देख लिया। संघ से टकराने का परिणाम कांग्रेस ने भी एक बार फिर देख लिया। भगवान से प्रार्थना है कि कम से कम अब तो कांग्रेस वालों को सद्बुद्धि दे।

1 COMMENT

  1. Many many thanks for writing this article so that it may be known that Indian National Congress has followed the policy of divide and rule to destroy Hindus and Hindusthan.This is an opportunity for BJP to bring prosperity, peace and progress and it is only possible by development.
    Time is right to work hard so that it is the end of Congress and its partners in dynasty rule, corruption , appeasement,scandals, scams,depositing black money in and out side the country.
    We cannot imagine what Sonia, Rahul and their associates would have done to Hindus?

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