आरटीआई में आदेश जारी और अपील निरस्त

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जिस राजस्थान से आरटीआई की मुहिम को पंख लगे थे आज वही वह वदहाल है। सूचना की माँग करने वालों का ग्राफ जैसे जैसे बढ रहा है देने वालों ने आखें दिखाना शुरू कर दिया है। सरकार के स्तर पर भी मामला गडबड है। बीते तीन महीने से प्रदेश में मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली पडा है। प्रदेश के शासन सचिवालय का एक मामला सामने आया है। जिसमें एक ओर अपीलकर्ता को अपील की सुनवाई में बुला लिया गया। इतना ही नहीं लोकसूचना अधिकारी को तीन दिन में सूचना देने के आदेश भी जारी कर दिये। पंद्रह दिन बाद अपील को खारिज करने की सूचना आवेदक को भेज दी है। उधर मूल विभाग ने भी सूचना देने के आदेश जारी कर रखे है। आवेदक को अभी सूचना का इंतजार है। एक रिपोर्ट

 

प्रथम अपीलीय अधिकारी, प्रमुख शासन सचिव उच्चशिक्षा ने आवेदक को तीन दिन में सूचना देने के आदेश जारी कर दिये। दूसरी ओर अपने ही एक पत्र से अपील को निरस्त कर दिया है। दोनों पत्रों में 11 दिन का अंतर है। मजेदार बात ये है कि इसी आवेदन पर एक और अपीलीय अधिकारी ने आवेदक को सूचना देने के आदेश कर रखे है। उन आदेशों में यहाँ तक लिखा है कि आवेदक को सूचना न देने पर होने वाले जुर्माने के लिए लोकसूचना अधिकारी स्वंय जिम्मेदार होंगे।

 

आरटीआई एक्टिविस्ट देवेन्द्र कुमार ने भरतपुर जिले में एक निजी महाविधालय में गत शिक्षण सत्र के दौरान चले आन्दोलनों को लेकर बहुत कुछ पढा था। ऐसे में 7 मई 2011 को ये जानने के लिए की महाविधालय में प्राचार्य पद पर कौन विराजमान है आरटीआई के तहत आवेदन कर दिया। आवेदन में केवल इतना भर पूछा गया है कि प्राचार्य का नाम,योग्यता और अनुभव क्या है। देवेन्द्र की माने तो इसके पीछे उसका कोई पूर्वाग्रह नहीं है। रोजाना की खवरों ने उसके दिमाग में ये सवाल यूँ ही पैदा कर दिया।

 

30 दिन की निर्धारित अवधि निकलने के बाद भी देवेन्द्र को सूचना नहीं मिली। इस बीच उसने लोकसूचना अधिकारी को दूरभाष से अपने आवेदन और उस पर सूचना देने की बात कही भी। देवेन्द्र की माने तो दूरभाष पर उसे दूसरी ओर से खरी खोटी सुनाकर कर कुछ भी कर लेने को कहा गया। आरटीआई को लेकर काम करने वाले देवेन्द्र को ये सब कुछ रास नहीं आया। उसने निर्धारित अवधि के बाद प्रथम अपील के लिए आवेदन प्रस्तुत कर दिया।

 

देवेन्द्र को मालूम था कि ये मामला कुछ टेडा है। आसानी से यहाँ कुछ होने वाला नहीं है। उसकी माने तो उसने आयुक्त कालेज शिक्षा और प्रमुख शासन सचिव उच्च शिक्षा शासन सचिवालय जयपुर दोनों को प्रथम अपील के दस्तावेज प्रेषित कर दिये। 11 जून 2011 को प्रेषित प्रथम अपील के जबाब में 1 जुलाई 2011 को शासन उपसचिव उच्च शिक्षा का पत्रांक 98-16 उच्चशिक्षा 5-11 दिनाँक 29.6.11 उसे मिला। पत्र में 4 जुलाई को शासन सचिवालय के कमरा 2007 में प्रमुख शासन सचिव के समक्ष व्यक्तिगत रूप से अपील सुनवाई में उपस्थित होने के लिए बुलाया गया। निर्धारित तिथि और समय पर देवेन्द्र अपील में हाजिर हो गया। वही लोकसूचना अधिकारी ने सरकारी आदेशों की अवहेलना करते हुये अपील सुनवाई में हाजिर होना भी जरूरी नहीं समझा।

 

प्रथम अपीलीय अधिकारी ने पाँच घंटे की देरी से अपील की सुनवाई की। सुनवाई के दौरान देवेन्द्र को आवशयक रूप से सूचनाऐं दिलाने का भरोसा दिया गया। देवेन्द्र की माने तो उसे अपील में उपस्थित होने का उपस्थिति पत्र हजार मिन्न्तों के बाद भी देने को कोई तैयार नहीं हुआ। प्रशासनिक कारिंदों की सरकारी भाषा पर भरोसा कर देवेन्द्र वापिस अपने घर आ गया।

 

शासन उपसचिव का पत्रांक 98-16उच्चशिक्षा 5-11 दिनाँक 8.7.11 देवेन्द्रको मिला। प्राचार्य लोकसूचना अधिकारी को प्रेषित पत्र में आवेदक को तीन दिन में आवशयक रूप से सूचनाऐं उपलब्ध कराने की बात साफ शब्दों में लिखी हुई है। इतना ही नहीं आदेश में लिखा है कि सूचना कि प्रति उन्हें भी उपलब्ध कराई जाये। इस बीच एक और पत्र निदेशालय काँलेज शिक्षा की ओर से देवेन्द्र को मिला है। इस पत्र में भी उसकी अपील को स्वीकार करते हुये लोकसूचना अधिकारी को तीन दिन में रजिस्टर्ड डाक से आवेदक को सूचनाऐं उपलब्ध कराने की बात कहीं गई है। इतना ही नहीं पत्र में साफ लिखा है कि निर्धारित अवधि तक सूचनाऐं उपलब्ध नहीं कराई को लगने वाले हर्जाने,जुर्माने के लिए लोकसूचना अधिकारी स्वयं व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होंगे।

 

दोनों पत्रों से देवेन्द्र को भरोसा हो गया कि अब उसे वांछित सूचनाऐं प्राप्त हो जाऐगी। इस बीच निर्धारित अवधि भी पास आ रही थी। सूचनाओं में हो रही देरी पर देवेन्द्र ने काँलेज से संपर्क किया। उसकी माने तो प्राचार्य ने तो कोई जबाब नहीं दिया। प्रवंधन की ओर से उसे कडे शब्दों में सूचना देने से इंकार कर दिया गया। इतना ही नहीं देख लेने की धमकी तक दे दी गई। डरे सहमे देवेन्द्र ने इसकी सूचना फोन पर शासन उपसचिव उच्चशिक्षा को दी तो उन्होंने भी कुछ कहने और करने से साफ मना कर दिया।

 

सूचना के अधिकार के तहत प्रथम अपील में 40 दिन का समय दिया गया है। निर्धारित अवधि निकल जाने पर देवेन्द्र ने सूचना पाने की अपनी जिद में द्वितीय अपील प्रमुख सूचना आयुक्त विता भवन राजस्थान सरकार को भेज दी। उसके बाद शासन उपसचिव उच्चशिक्षा का पत्रांक 98-16 उच्चशिक्षा 5-11 दिनाँक 19.711 देवेन्द्र को मिला है। पत्र में लिखा है कि सवंधित महाविधालय निजी और गैर अनुदानित है। अत आपकी अपील निरस्त की जाती है। देवेन्द्र की माने तो उसकी समझ में नहीं आ रहा कि पूरा मामला आखिर है क्या?

 

सूचना अधिकार को लेकर जागरूक देवेन्द्र को लग रहा था कि प्रवंधन कहीं न कहीं से मैनेज कर लेगा। इस बीच उसने भी अपनी कोशिशें जारी रखी। देवेन्रz के पास निदेशालय काँलेज शिक्षा के दो पत्र लगें है। इतना ही नहीं सवंधित काँलेज को लेकर भी उपखंडअधिकारी ने कराई एक जाँच रिपोर्ट की प्रति उसके पास है। ये तीनों ही दस्तावेज कुछ अलग ही कहानी बयान कर रहे है। 24 फरवरी 2007 को निदेशालय काँलेज शिक्षा ने ‘प्राचार्य समस्त महाविधालय’ को संवोधित एक आदेश निकाला गया है। इस आदेश में साफ लिखा है कि अपने महाविधालय में लोकसूचना अधिकारी की नियुक्ति कर तीन दिवस में ये सूचना फैक्स से निदेशालय को प्रेषित करने को कहा गया है। इतना ही नहीं सूचना देने में किसी भी प्रकार की लापरवाही के लिए महाविधालय को ही आगे की कार्यवाही के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। दूसरा कागज एक दूसरी बात कह रहा है। निदेशालय काँलेज शिक्षा ने शिक्षण सत्र 2010-11 के लिए जो सशर्त अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किये गये है। उनके बिन्दु संख्या 6 में साफ लिखा है कि‘संस्था को सूचना अधिकार के तहत आवेदक को आव’यक रूप से सूचना उपलब्ध करानी होगी।

 

देवेन्द्र कुमार के पास एक और दस्तावेज है। शासन उपसचिव उच्चशिक्षा ने जिस महाविधालय को निजी कहकर लोकप्राधिकरण की श्रेणी में नहीं माना है उसे राज्य सरकार के मद से लगभग 20 लाख की राशि दी गई है। उपखंडअधिकारी ने तहसीलदार से एक जाँच रिपोर्ट महाविधालय की कराई जा चुकी है। उस रिपोर्ट में लिखा है कि 15 लाख 11 हजार के निर्माण कार्य काँलेज में राजकीय राशि से कराये जा चुके है इतना ही नहीं एक हैडपंप भी सरकारी योजना के तहत लगाया गया है।

 

इस बीच ये सवाल खडा हो रहा है कि लोकप्राधिकरण किसे माना जाये। इससे पहले बडा सवाल ये है कि आरटीआई के तहत अपील स्वीकार कर आदेश जारी करने वाले अधिकारी को क्या इतनी भी जानकारी नहीं है कि सच्चाई क्या है। एक ओर विभाग अपने आदेश में सूचना देने की बात कर रहा है वही दूसरी ओर अपील को निरस्त किया जा रहा है।

 

देवेन्द्र ने द्वितीय अपील मुख्य सूचना आयुक्त को भेज दी है। उसे अपना पक्ष मजबूत लग रहा है। उसका मानना है कि उसका अपमान किया गया है। एक ओर अपील को स्वीकार कर आदेश जारी कर दिये है वही दूसरी ओर वही अधिकारी अपील को निरस्त कर रहे है। देवेन्द्र की माने तो पूरा मामला भ्रष्टाचार का है। लोकसूचना अधिकारी, प्रवंधन के स्तर पर अपीलीय अधिकारी को मैनेज कर लिया गया है। देवेन्द्र को मुख्य सूचना आयुक्त से न्याय की पूरी उम्मीद है। उसकी माने तो उसे सूचना नहीं मिली तो वो सक्षम न्यायालय का दरवाजा भी खटखटायेगा।

 

प्रदेश में सूचना अधिकार को लेकर हालात ठीक नहीं है। सरकारी उदासीनता का आलम ये है कि तीन महीने से मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली पडा है। प्रदेश के 10 सदस्यीय आयोग में फिलहाल एक ही सदस्य काम कर रहे है। सच्चाई ये है कि पाँच साल से अधिक की अवधि बीत जाने पर कभी भी तीन से अधिक सदस्य आयोग में रहे ही नहीं है। देखते है ऐसे हालातों में देवेन्द्र को न्याय मिल पाता है या नही? उसके इरादें तो फौलादी नजर आ रहे है।

 

1 COMMENT

  1. सब दिखावा है हेर जगह कानून केवल पैसे वालों के लिए है या केवल किताबों तक सिमित है ,,,फालतू टाइम होने पर इसे प्रयोग करे …याद रहे मैं खुद अल. अल, बी . हूँ …मुफ्त की खा रहे ज्यादातर ……..

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