‘चरणबद्ध तरीके से निजी क्षेत्र में लागू हो आरटीआई’

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उड़ीसा के क्योंझर जिले में 17 जनवरी 1949 को पैदा हुए सत्यानंद मिश्रा का केंद्रीय सूचना आयुक्त (सीआईसी) तक का सफर कई लोगों को प्रेरित करने वाली है. जब वे दो साल के थे तो उनके माता-पिता नहीं रहे. राज्य के आदिवासी कल्याण विभाग में काम करने वाले अपने चाचा कृपासिंधू दास की देखरेख में पले-बढ़े सत्यानंद मिश्रा को पढ़ाई करने के लिए चार किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करना पड़ता था.  एक काबिल प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर खुद को स्‍थापित करने वाले मिश्रा के व्यक्‍तित्व पर सबसे अधिक प्रभाव उनके गांधीवादी चाचा का रहा है जिन्होंने उन्हें हर अच्छी बात को अपने जीवन में उतारने का पाठ पढ़ाया. मध्य प्रदेश काडर के प्रशासनिक अधिकारी सत्यानंद मिश्र अंग्रेजी में कविताएं लिखते हैं और उनकी पत्नी की गिनती उड़ीसा के नामी साहित्यकारों में होती है. मिश्रा को श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारीकाफी पसंद है और वे कहते हैं कि इसे हर प्रशासनिक अधिकारी को पढ़ना ही चाहिए क्योंकि इसकी हर बात आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है. मध्य प्रदेश फिल्म विकास निगम के प्रबंध निदेशक के तौर पर काम करते हुए फिल्मों पर आधारित पत्रिका पटकथाशुरू करने वाले और भारत भवन के ट्रस्टी रहे मिश्रा को सत्यजीत रे की फिल्में काफी पसंद हैं. छत्तीसगढ़ के औद्योगिक शहर कोरबा को व्यवस्‍थित तौर पर बसाने को मिश्रा काफी संतोष देने वाला अनुभव बताते हैं.

सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून लागू हुए छह साल हो गए हैं. इस छह साल के सफर में आरटीआई ने यह साबित कर दिया है कि सही ढंग से इस्तेमाल करने पर यह भ्रष्टाचार समेत कई समस्याओं को निपटाने में एक असरदार औजार साबित हो सकता है. वहीं आरटीआई कार्यकर्ताओं की लगातार हो रही हत्या को इस कानून को निष्प्रभावी बनाने की कोशिश कहा जा रहा है. हालांकि, अब भी इस कानून को लेकर लोगों में जागरूकता का अभाव है और इसके प्रचार के लिए कोई सुनियोजित अभियान नहीं दिखता. लोगों में जागरूकता की कमी का फायदा उठाकर कुछ सरकारी विभागों द्वारा सूचना देने में आनाकानी करने की खबरें भी आती रहती हैं. ऐसे में एक काबिल और ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले सत्यानंद मिश्रा का केंद्रीय सूचना आयुक्त (सीआईसी) बनना यह उम्मीद जगाता है कि आरटीआई जैसे अहम औजार को और धार मिलेगी. उनसे यह उम्मीद भी की जा रही है आरटीआई कार्यकर्ताओं की लगातार हो रही हत्या को रोकने का भी कोई न कोई रास्ता वे जरूर निकालेंगे. बतौर प्रशासनिक अधिकारी मध्य प्रदेश में लंबे समय तक काम करने वाले सत्यानंद मिश्रा केंद्र के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) में भी सचिव रहे हैं. सूचना का अधिकार (आरटीआई) से जुड़े तमाम पहलुओं पर सत्यानंद मिश्रा से हिमांशु शेखर की बातचीत के खास अंशः

आप जब कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) में थे तो आपने 2008 के फरवरी में जीफाइल नाम की पत्रिका को दिए साक्षात्कार में कहा था कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) को लागू हुए अभी सिर्फ दो साल हुए हैं इसलिए इसका व्यापक असर दिखने में थोड़ा समय लगेगा. अब इस कानून को लागू हुए छह साल होने को हैं. यह कानून आज कितना कारगर लगता है?
2005 में आरटीआई लागू हुआ था और तब से लेकर अब तक इस कानून का काफी असर दिखा है. अभी दो दिन पहले मैं उड़ीसा गया हुआ था. वहां के सूचना आयुक्त ने बताया कि एक नक्सल प्रभावित जिले के आदिवासियों ने एक आरटीआई आवेदन दाखिल करके किसी बड़ी गड़बड़ी की ओर प्रशासन का ध्यान आकृष्ट किया. इसके बाद प्रशासन ने तुरंत उस गलती को सुधारा. जाहिर है कि आरटीआई आवेदन भर से ही प्रशासन को लग गया कि इस मामले में अब वे मुश्‍किल में पड़ने वाले हैं इसलिए उन्होंने अपनी गलती सुधार ली. ऐसे सैंकड़ो उदाहरण हैं. इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आरटीआई एक कारगर औजार के तौर पर विकसित हुआ है. हालांकि, अभी इसे और प्रभावी बनाया जा सकता है. आने वाले दिनों में इसका और अधिक असर दिखेगा.

आरटीआई को और अधिक असरदार बनाने के लिए क्या कदम उठाए जाने की दरकार है?
सबसे पहले तो यह जरूरी है कि समाज के हर तबके तक आरटीआई के प्रति जागरूकता का प्रसार किया जाए. कितने लोग आरटीआई के बारे में जानते हैं, इसका हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं है. एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसे आरटीआई के बारे में नहीं पता. देश के अन्य कानूनों को लेकर भी ऐसी ही स्‍थिति है. जो आरटीआई के बारे में जानते हैं उनमें से भी एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जो मानते हैं कि इसके इस्तेमाल से कोई बदलाव नहीं होने वाला. आरटीआई को असरदार औजार बनाने के लिए इस धारणा में लोगों को बदलाव करना चाहिए. लोगों को यह देखना चाहिए कि कई लोग आरटीआई का इस्तेमाल करके अपने कई निजी काम निकाल रहे हैं और कई कार्यकर्ता सार्वजनिक हित में आरटीआई का इस्तेमाल कर रहे हैं. इन दोनों मोर्चों पर सुधार से आरटीआई का व्यापक असर दिखेगा.

कई सरकारी योजनाओं या किसी खास कानून के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए सरकार अभियान चला रही है. जबकि आरटीआई के प्रति लोगों को जागरूक बनाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई अभियान नहीं दिखता और न ही इससे संबंधित सरकारी विज्ञापन मीडिया में दिखते हैं. क्या आपको यह लगता है कि सरकार जानबूझकर ऐसा कर रही है?
आपकी बात सही है. छह साल होने के बावजूद अब भी आरटीआई के प्रति लोगों को जागरूक बनाने के लिए कोई सुनियोजित अभियान नहीं दिखता. उदाहरण के तौर पर ‘जागो ग्राहक जागो’ के नाम से उपभोक्ता जागरूकता का अभियान चल रहा है. इस पर काफी पैसे खर्च किए जाते हैं और यह सराहनीय है. इस अभियान का मकसद उपभोक्ता सशक्‍तिकरण है. आरटीआई का लक्ष्य भी लोगों को अधिकार संपन्न बनाना है. इसलिए जागो ग्राहक जागो की तर्ज पर आरटीआई को लेकर भी एक अभियान चलना चाहिए. हमने उपभोक्ता विभाग से बातचीत की और उनसे अपने अभियान में आरटीआई को शामिल करने का आग्रह किया था. अब वे ऐसा कर रहे हैं.

2009 के जून में प्राइसवाटरहाउसकूपर्स की एक सर्वेक्षण में बताया गया था कि गांव के महज 13 फीसदी वहीं शहरों के 33 फीसदी लोग आरटीआई से वाकिफ हैं. इस शहरी और ग्रामीण फर्क को कैसे दूर किया जाए?
लगातार प्रचार से ही इस फर्क को मिटाया जा सकता है. इसके अलावा साक्षरता के प्रसार, सिविल सोसायटी की सक्रिय भूमिका और मीडिया में आरटीआई को दी जाने वाली जगह से भी इस अंतर को पाटने में कामयाबी मिलेगी. जागरूकता अभियान भी इस फर्क को मिटाने में अहम भूमिका निभाएगा.

सीबीआई को आरटीआई के दायरे से बाहर करने पर काफी विवाद हुआ. आपकी क्या राय है?
सीबीआई को आरटीआई के दायरे से बाहर करने का मतलब यह नहीं है कि सीबीआई पूरी तरह से बाहर हो गई है. क्योंकि धारा-24 में यह साफ लिखा हुआ है कि जब कभी मानवाधिकार या भ्रष्‍टाचार का सवाल आएगा तो वहां सीबीआई समेत सभी छूट पाने वाली एजेंसियों को सूचना देना होगा. अगर सीबीआई से कोई मानवाधिकार या भ्रष्टाचार से संबंधित सवाल पूछता है तो मामला हमारे पास आएगा और हमें उस पर फैसला करना होगा. कोई मामला आने से पहले इस पर कोई राय व्यक्त करना ठीक नहीं है. अगर हमने कोई राय व्यक्त किया और फिर कोई मामला आने पर फैसला किया तो वे कहेंगे कि सीआईसी पूर्वाग्रह से ग्रसित थे इसलिए ऐसा फैसला आया. एक नागरिक के नाते और सीआईसी के नाते मैं इस बात का पक्षधर हूं कि सरकार में कम से कम गोपनीयता हो और ज्यादा से ज्यादा पारदर्शिता हो.

एक तबका ऐसा है जो आरटीआई की ताकत से डरा हुआ है और इसके पर कतरने की बात करता है. इसी डर में आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या करने जैसा कदम कुछ असामाजिक तत्व उठा रहे हैं. इससे निपटने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
इन समस्याओं का समाधान मुझे नागरिक जागरूकता ही दिखता है. अगर लोग जागरूक हो गए तो फिर किसी की हिम्मत नहीं कि किसी आरटीआई कार्यकर्ता की हत्या कर दें. आपने देखा हो कि इन छह सालों में जब-जब आरटीआई कानून को संशोधित करने के लिए सरकारी सुगबुगाहट हुई तब-तब सिविल सोसायटी ने ऐसा नहीं होने दिया. राष्ट्रपति के अभिभाषण में आरटीआई कानून में संशोधन का विषय आने के बावजूद सरकार ऐसा नहीं कर पाई.

दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में आरटीआई के दायरे में निजी क्षेत्र को भी लाया गया है. अगर भारत में कोई ऐसी पहल होती है तो क्या बतौर सीआईसी आप इसका समर्थन करेंगे?
इसमें एक बात ध्यान रखना होगा कि उतना ही काम हाथ में लिया जाए जितना हम कर सकें. सरकारी क्षेत्र से ही पूरी सूचना लेने में कुछ मामलों में एक साल से अधिक तक का समय लग रहा है. इसकी प्रमुख वजह लोगों की कमी है. निजी क्षेत्र के दायरे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर गांव के परचून की दुकान तक हैं. अगर पूरे निजी क्षेत्र को आरटीआई के दायरे में लाया गया तो आवेदनों के निपटान के लिए काफी बड़ी संख्या में लोगों की जरूरत पड़ेगी. इसमें एक दिक्कत यह भी है कि हर निजी संगठन को एक सूचना अधिकारी नियुक्त करना पड़ेगा. अगर तीन लोगों के साथ कोई अपना छोटा सा कारोबार चला रहा है तो उसे भी एक सूचना अधिकार नियुक्त करना पड़ेगा. इसलिए अगर निजी क्षेत्र को आरटीआई के दायरे में लाने की बात चलती है तो यह काम चरणबद्घ तरीके से किया जाना चाहिए. पहले उन कंपनियों को आरटीआई के दायरे में लाया जाना चाहिए जो सरकारी निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल पर बनी हैं.

सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों का यह कहना है कि किसी आईएएस अधिकारी को सीआईसी नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि उसका पूरा प्रशिक्षण सूचनाओं की रक्षा करने को ध्यान में रखकर होता है न कि सूचनाओं के प्रसार को ध्यान में रखकर. आपके सीआईसी बनने के वक्त भी ऐसी बातें सामने आई थीं. आपकी क्या राय है?
मेरा मानना है कि यह पूर्वाग्रह वाली धारणा है. आरटीआई लागू हुए छह साल होने को हैं और अधिकांश आयुक्त प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं. उनके द्वारा पारित आदेश के आधार पर ही यह तय होगा कि आयुक्त अपना काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं. अगर कोई ऐसा मामला आए जिसमें यह साबित हो कि सूचना देना चाहिए था लेकिन आयुक्त ने सरकार का पक्ष लेकर सूचना नहीं दिया तब तो यह आरोप साबित होगा.

आप डीओपीटी में काम करने के बाद सीआईसी बने हैं. जब वजाहत हबीबुल्ला सीआईसी थे तो उस वक्त इस विभाग ने फाइल नोटिंग को आरटीआई के दायरे में लाने का विरोध किया था. लेकिन जब आप सीआईसी बने तो आपने फाइल नोटिंग को आरटीआई के दायरे में लाने का समर्थन किया. आखिर यह विरोधाभास क्यों?
मैं जब डीओपीटी सचिव था तो उस वक्त सरकार में यह राय बनी थी कि फाइल नोटिंग आरटीआई में नहीं देना चाहिए. वहां मेरी जिम्मेदारी यह थी कि सरकार के पक्ष में अपनी बात रखना. इसलिए मैंने ऐसा किया था. यहां आने के बाद जब सरकार से बाहर आकर मैंने सब कुछ देखा तो मुझे लगा कि फाइल नोटिंग को लेकर पारदर्शिता होनी चाहिए.

लोकपाल को लेकर अभी हर तरफ बात चल रही है. क्या आपको लगता है कि भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए लोकपाल एक कारगर औजार साबित होगा?
लोकपाल के बारे में मैं जो भी कह रहा हूं वह मेरी निजी राय है न कि सीआईसी की. एन नागरिक और पूर्व नौकरशाह के नाते मुझे लगता है कि सिविल सोसायटी के लोगों ने लोकपाल के लिए जो नया मसौदा इंटरनेट पर रखा है उसे लागू करना व्यावहारिक नहीं है. प्रस्तावित लोकपाल में प्रधानमंत्री से लेकर केंद्र सरकार के हर कर्मचारी को शामिल करने की बात की गई है. जहां तक मुझे पता है कि भारत सरकार के कर्मचारियों की कुल संख्या 40 लाख से अधिक है. इसमें बैंक और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में काम करने वाले लोग शामिल नहीं हैं. अगर इन्हें भी शामिल करें तो संख्या 50 लाख से अधिक हो जाएगी. मान लें कि इनमें से एक फीसदी यानी 50,000 लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत आती है. जन लोकपाल में कहा गया है कि हर शिकायत का निपटान संबंधित पक्षों को सुनने के बाद तीन महीने के अंदर किया जाएगा. ऐसा करने के लिए काफी बड़ी संख्या में लोगों की जरूरत होगी. पहले से भी भ्रष्टाचार की जांच के लिए सरकारी एजेंसियां काम कर रही हैं लेकिन वहां भी भ्रष्टाचार है. ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि जन लोकपाल नामक संस्‍था में हर कोई ईमानदार होगा. यह भी दावा किया जा रहा है कि जन लोकपाल के सभी लोगों पर निगरानी रखी जाएगी. यह भी अव्यावहारिक है. मेरा मानना है कि जन लोकपाल का दायरा इतना व्यापक नहीं रखना चाहिए बल्‍कि इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाना चाहिए. पहले उन विभागों को इसके दायरे में लाया जाए जो जनता से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं या फिर उच्च स्तर के अधिकारियों और केंद्रीय मंत्रियों को इसके दायरे में लाया जाए.

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