रूढिय़ों से मुक्त करेंगी हमारी बेटियां

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मनोज कुमार
भारतीय उत्सव एवं तीज-त्योहारों में एक प्रमुख और शुभ दिन यूं तो अक्षय तृतीया को माना गया है किन्तु यह दिन भारतीय समाज के लिये कलंक का दिन भी होता है जब सैकड़ों की संख्या में दुधमुंहे बच्चों को शादी के बंधन में बांध दिया जाता है. समय परिवर्तन के साथ सोच में बदलाव की अपेक्षा किया जाना सहज और सरल है लेकिन व्यवहार रूप में यह कठिन भी. बाल विवाह नियंत्रण के लिये कानून है लेकिन कानून से समाज में कोई खौफ उत्पन्न हुआ हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है. बीते एक दशक में समाज की सोच में परिवर्तन दिखने लगा है तो यह बदलाव राज्य सरकारों द्वारा महिलाओं के हित में क्रियान्वित की जा रही वह विविध योजनायें हैं. यह योजनायें महिलाओं में शिक्षा से लेकर रोजगार तक के अवसर दे रही हैं. इसके पहले समाज के समक्ष बेटियों के लिये ऐसा कोई ठोस विकल्प नहीं था, सो बाल विवाह कर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना ही एक रास्ता था लेकिन अब पूरे देश में बेटियों के लिये आसमान खुला है. वे जहां तक चाहें, उड़ सकती हैं, खिलखिला सकती हैं. शादी की बेडिय़ां टूटने लगी हैं.
भारतीय समाज में बाल विवाह एक पुरातन रूढि़वादी परम्परा रही है. दुर्भाग्यजनक बात तो यह है कि बदलते समय के साथ हम अपनी मानसिकता नहीं बदल पा रहे थे. दुनियादारी से अबूझ बच्चों को शादी के बंधन में बांध कर हम अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते थे. यह दृष्टि खासतौर पर बेटियों के लिये थी क्योंकि सयानी बेटी के लिये दहेज एक भीषण संकट होता था. महिला शिक्षा का प्रतिशत तो शर्मनाक था. कहने के लिये हम आजाद भारत के नागरिक हैं किन्तु स्त्रियों के साथ जो कुछ होता था, वह शर्मनाक है. हमारा यह भी आशय नहीं है कि सारी दुनिया बदल गयी है लेकिन बदलाव की आहट से रूढि़वादी परम्परा के खिलाफ एक उम्मीद की किरण जागी है. बहुत समय नहीं हुुआ है. कोई एक और अधिकतम डेढ़ दशक का समय है जब समाज की सोच बदलने के लिये सरकारों ने लोकतांत्रिक ढंग से एक बेहतर शुरूआत की है. महिला सशक्तिकरण की बातें करते युग गुजर गया लेकिन महिला सशक्तिकरण की कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बन पायी थी. आज स्थिति एकदम उलट है.
राज्य सरकारों ने सुनियोजित ढंग से बेटियों की सुरक्षा, विकास और आत्मविश्वास के लिये योजनाओं का श्रीगणेश किया. बेटियों को आगे बढऩे के लिये शिक्षा पहली शर्त थी और इसके लिये सारे उपाय किये गये. स्कूल तो पहले ही थे लेकिन फीस, कॉपी-किताब और गणवेश के लिये मां-बाप के पास धन नहीं था. घर से स्कूल की दूरी इतनी होती थी कि पालक बेटियों को पढ़ाना नहीं चाहते थे. सरकारों ने समस्या को देखा और इन समस्याओं को चुटकियों में हल कर दिया. शिक्षा नि:शुल्क हो गई. कॉपी-किताब और गणवेश सरकार के खाते से मिलने लगी और स्कूल आने-जाने के लिये सायकल भी मुहय्या करा दी गई. स्कूल के बाद कॉलेज की शिक्षा का प्रबंध भी सरकार ने कर दिया. शिक्षा ने बेटियों के मन में आत्मविश्वास उत्पन्न किया और वे देखते ही देखते सशक्त होती चली गयीं. पाठशाला से परदेस तक शिक्षा हासिल करने का रास्ता सरकार ने बेटियों के लिये सुगम कर दिया है. सरकार ने शिक्षित बेटियों के साथ साथ उन महिलाओं के लिये नये नये रोजगार के अवसर उत्पन्न किये जिसके चलते वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो गयीं. गांव-गांव में फैली स्व-सहायता समूह से जुड़ी महिलायें न केवल आय अर्जित कर रही हैं बल्कि समाज के विकास में वे अपनी समझ का लोहा भी मनवा रही हैं. पंचायतों में उनकी सक्रिय भागीदारी से विकास का नया ककहरा लिखा जा रहा है.
शासन की विभिन्न लोककल्याणकारी योजनाओं के निरंतर क्रियाशील रहने से अनेक रूढि़वदी परम्पराओं पर नियंत्रण पाने में आसानी होने लगी है. रूढि़वादी परम्पराओं में से एक बाल विवाह विकासशील समाज के लिये चुनौती था. इससे निपटने के लिये सरकार ने जहां बेटियों को स्वयं के स्तर पर सक्षम हो जाने के अवसर दिये, वहीं उन्होंने पालकों को शासन की विभिन्न योजनाओं के माध्यम से आश्वतस्त किया कि बेटियों के ब्याह की चिंता ना करें. शासन का यह आश्वासन कागजी नहीं था. बेटियों के जन्म लेने से लेकर शिक्षा और उनके ब्याह की जिम्मेदारी सरकार ने स्वयं ले ली थी. बेटियों को जन्म के साथ ही आर्थिक सुरक्षा प्रदान की गई जो 18 बरस की होते होते लखपति बन जाती हैं. बेटियों की शादी के लिये आर्थिक मदद के साथ ही गृहस्थी के सामान का बंदोबस्त कर दिया जिससे पालक बेफ्रिक हो गये.
शासन की इन योजनाओं ने समाज का मन बदला है. डेढ़ दशक पहले के बाल विवाह के आंकड़ों को देखें और आज तो यह बात साफ हो जाती है कि लोगों का मानस बदल रहा है. यह कहना भी बेमानी होगी कि शासन की योजना के कारण समूचे समाज का मानस बदल चुका है लेकिन बदलाव के लिये कदम बढ़ चुके हैं. यह बदलाव नहीं है बल्कि बदलाव की बयार है जो आने वाले समय में पूरा परिदृश्य बदल कर रख देगी. यह बदलाव लाने का उपक्रम शासन की योजनाओं से हुआ हो लेकिन बदलाव का सबब बनेंगी आज शिक्षा हासिल करती बेटियां. आज सशक्त होती बेटियां, आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनती बेटियां. आज की बेटियां, कल का भविष्य हैं और यही एक नये भारत का निर्माण करेंगी जहां बाल विवाह, दहेज और छुआछूत जैसे सामाजिक कोढ़ से मुक्त होगा हमारा समाज

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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