जगमोहन फुटेला
शुरू में ही साफ़ कर दूं कि मैं प्रभाष नहीं हूँ. उनके आस पास भी नहीं हूँ. लेकिन क्रिकेट में जब हार होती है तो मन अपना भी दुखता है. और वो जीतने के लिए नहीं खेलने की वजह से होती है तो चीयर के लिए उठ सकने वाले हाथों की नसों में जैसे खून भी रुकता है. माना कि हार आपकी साध नहीं है. हारते चले जाना भी अपराध नहीं है. लेकिन रन के इस अरण्य में रणनीति भी आपकी नगण्य हो तो चिंता तो अब खेल नहीं खिलाने वालों के बारे में होनी चाहिए.
हमारे कुछ पत्रकार भाई बड़े खूंखार हैं. वे अगर अपन पे कप्तान धोनी के बराबर कद करने का आरोप न मढ़ें तो कुछ सवाल तो आज पूछने हैं. पूछना है कि बीती रात इंग्लैण्ड के खिलाफ निबटे टी ट्वेंटी मैच से पहले टाईम तो बहुत था फिर भी उसे जीत के टेस्ट के जीरो-चार के कलंक को धोने की कोई कारगर कोशिश क्यों नहीं की गई? पार्थिव न बहुत समय से खेल ही रहे थे, न फ़ार्म में थे, न इंग्लैण्ड की उछाल लेती पिचों पे महारत हासिल कोई झन्नाटेदार बल्लेबाज़, विकेटकीपिंग उन्हें नहीं करनी थी तो उनकी बजाय अमित मिश्रा जैसे किसी अच्छे आलराउंडर को खिला लेने में क्या परेशानी थी? इस लिए भी कि वो इसी इंग्लैण्ड के खिलाफ इसी दौरे में शरीर को भेदने आती गेंदें खेल कर एक पौन शतक जड़ चुका था और वो अपने चार ओवर फेंक कर भी रोहित शर्मा के एक ओवर में ही पड़ गए सत्रह रन भी नहीं देता. और फिर उछाल के गेंद मारने वाले अंग्रेजों के सामने महज़ दर्जन भर रन बना पाने वाले पार्थिव को खिलाना ही था तो फिर युसूफ पठान ही क्या बुरा था? उस सूरत में कम से कम एक रेगुलर बालर तो आपके पास और होता. उस से बेहतर फील्डर भी! ज़रा सोच के तो देखो कि पार्थिव के हाथों टपके पीटरसन के कैच की कितनी बड़ी कीमत चुकाई है आपने!
किसी बुरे सपने की तरह भूल ही जाने लायक चार टेस्ट मैचों की एक पारी को छोड़ दें आपके तेज़ (?) गेंदबाज़ कभी भी इंग्लैण्ड की दस की दस विकटें निकाल नहीं पाए हैं. पहले बल्लेबाज़ी का फैसला इस मैच में शायद आपने इस लिए भी किया होगा. वो कर ही लिया था और अड़तालीसवें ओवर के ख़त्म होते न होते आपने 158 रन बना भी लिए थे तो आखिरी दो ओवरों में पांच विकेट गवां देना कहाँ की क्रिकेट थी? खासकर तब कि जब आप स्लाग भी नहीं कर रहे थे. उस से पहले रोहित, विराट और अश्विन तो जैसे इंग्लैण्ड घूमने गए वैसे मानचेस्टर की पिच भी घूम लिए. विराट तो फिर खेलने के चक्कर में आउट हुए. पर रोहित क्या कर रहे थे? पहली दूसरी ही गेंद पर वो वैसे भी मारने नहीं गेंद को दबाने के लिए आगे बढ़े थे. और अश्विन? जैसे कह रहे हों, मैं तो रन आउट हो के रहूँगा, कोई रोक सके तो रोक के दिखाओ. और फिर उनका उतरा हुआ वो चेहरा बाद में उनकी गेंदबाजी के उतार के रूप में लगातार दिखता रहा.
डर ये है कि जब आप लगातार हारते रहते हैं तो देश नहीं, वो खेल ही हार जाता है. हाकी को ही देख लो. अब टीम कभी जीत भी जाती है तो देश को ये भी याद नहीं रहता कि हवाई अड्डे पे उतरी टीम को गुलदस्ता भी देना है. सच, मन उचाट सा होने लगा है. ऊपर से दूरदर्शनी कमेंट्री. उनके कमेंटेटर को ये भी नहीं पता कि प्वाइंट और एक्स्ट्रा कवर में क्या फर्क होता है. मैच के ग्यारहवें ओवर के रूप में अपना दूसरा ओवर करने वाले अश्विन को वो मैच में पहली बार गेंदबाजी करने आया बताता है. कोई पूछे उस से कि मैच का छठा ओवर क्या सुनील गावस्कर ने फेंका था? सिर्फ एक रन के लिए गई गेंद को वो चाबुक की तरह लगा शाट बताता है. और हद तो ये कि पहला और एक ही संभव रन बना लेने के बाद आराम से एक दूसरे की तरफ पीठ कर खड़े बल्लेबाजों को वो दूसरे रन की फिराक में बताता है. वो जो चाहे बताता रहता है. लेकिन कोई दूरदर्शन को नहीं बताता कि हे आँख बंद, बुद्धि मंद सूचना प्रसारण मंत्रालय, तुम्हारे ऐसे महान कमेंटेटरों की क्रिकेट वाणी से आजिज़ आये लोग तुम्हारा फूल बाक्स साथ में रेडियो की कमेंट्री लगा के देखने लगे हैं.
क्रिकेट में देश की हार को देखना ही कम दुखदाई नहीं था. ऊपर से गेंद सीमा पार जाने से भी पहले ये ‘चार रन्न’ किसी अत्याचार से कम नहीं हैं..!
आप शायद ठीक हैं. संजीव भाई ने इसे दुरुस्त कर दिया है. सुझाव के लिए धन्यवाद.
धन्यवाद विपिन जी,
हालांकि इस लेख का शीर्षक लेखक द्वारा दिया गया था।
फिर भी हमने अपनी संपादकीय गलती सुधार ली है।
फुटेला जी! आप अपनी बात और अच्छी तरह कह सकते थे। टीम इंडिया की लगातार हार पर आपका गुस्सा होना अस्वभाविक नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए हम स्तरहीन शब्दों का प्रयोग करना आरंभ कर दें। हिन्दी भाषा अत्यन्त सनृद्ध है। आप द्वारा”मूतो” शब्द का प्रयोग अखर गया। कृपया भविष्य में मेरे जैसे पाठकों का भी ख्याल रखें।
प्रवक्ता के संपादक जी से अनुरोध है कि रचनाओं के प्रकाशन के पूर्व संपादन-धर्म का निर्वहन भी करें।