ग्रामीण मेडिकल कोर्स की कवायद कितनी कारगर होगी

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स्वास्थ्‍य मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति भी अंतत: तीन वर्षीय ग्रामीण मेडिकल कोर्स को अमलीजामा पहनाने के लिए तैयार हो गई है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने पहले ही इस मामले में अपनी सहमति दे दी थी।

सरकार द्वारा इस कोर्स को मंजूरी देने के पीछे मंशा पूरे देश में स्वास्थ की स्थिति में बेहतरी लाना है। आजादी के 62 साल गुजर जाने के बाद भी हमारे देश में स्वास्थ सेवा दयनीय स्थिति में है।

कुपोषण, कालाजार, मलेरिया, पीलिया इत्यादि बीमारियों से प्रति दिन गाँवों में हजारों लोग असमय काल-कवलित हो रहे हैं। जबकि स्वास्थ को विकास का एक महत्वपूर्ण मानक माना जाता है। स्वास्थ सेवा में सुधार किये बिना हम प्रदेश या देश का विकास नहीं कर सकते हैं।

केन्द्र सरकार ने तीन वर्षीय ग्रामीण मेडिकल कोर्स का रोडमैप तैयार करने के लिए राज्य सरकार को दिशा-निर्देश जारी कर दिया है। इस कोर्स को मूर्तरुप देने का काम राज्य सरकार के जिम्मे होगा।

वैसे प्रस्तावानुसार बारहवीं की परीक्षा विज्ञान के विषयों से उर्तीण करने वाले मेधावी छात्रों को प्रषिक्षण देकर बुनियादी रोगों का ईलाज करने के लिए तैयार किया जायेगा। इस नये कोर्स के जरिये प्रत्येक साल 5 हजार विशेषज्ञ डॉक्टर तैयार करने का लक्ष्य केन्द्र सरकार का है।

बैचलर ऑफ रुलर हेल्थ केयर (बीआरएच) की अवधि तीन साल छह महीने की होगी। पूर्व में इसका नाम बीआरएमएस था। इस कोर्स में दाखिला के लिए पात्रता वैसे छात्रों को पाप्त हो सकेगी, जिन्होंने बारहवीं की परीक्षा गाँव या तहसील के स्कूलों से उर्तीण किया है या करेंगे।

इसके पीछे सरकार की यह सोच है कि इस प्रस्तावित कोर्स में वैसे छात्रों को मौका दिया जाये, जिन्हें शहर में प्राप्त हो रहे सुख का स्वाद न लगा हो। ताकि वे ग्रामीण स्तर पर आम लोगों का भला करने के लिए कृतसंकल्पित हों।

बैचलर ऑफ रुलर हेल्थ केयर का कोर्स पूरा करने के पश्‍चात् बनने वाले डॉक्टर कभी भी शहर में प्रेक्टिस नहीं कर पायेंगे। शुरु के 5 सालों तक इन्हें प्रत्येक साल स्टेट मेडिकल काऊंसिल से लाइसेंस लेना पड़ेगा।

इन डॉक्टरों की नियुक्ति डेढ़ लाख सब सेंटरों पर की जायेगी। ये डॉक्टर इस तरह से प्रशिक्षित किये जायेंगें कि वे तकरीबन 80 हजार बीमारियों का ईलाज करने में सक्षम होंगे।

इस संबंध में यह बताना समीचीन होगा कि चीन में 50-60 के दशक में नंगे पांव डॉक्टरी करने की अवधारणा काफी प्रचलित हुई थी। इस अवधारणा के तहत डॉक्टर नंगे पांव दूर-दराज के गाँवों में जाकर मरीजों का ईलाज करते थे। इस क्रांति के कारण चीन में स्वास्थ क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन आया था।

आज झोला छाप डॉक्टरों से न तो शहर मुक्त है और न ही गाँव। इसका सबसे बड़ा कारण है डॉक्टरों की महँगी फीस। झोला छाप डॉक्टरों के पास आने वाले अधिकांश मरीज गरीब होते हैं, जिनके पास फीस देने के लिए पैसे नहीं होते हैं। ये झोला छाप डॉक्टर बड़ी चालाकी से किसी मरीज से फीस तो नहीं लेते हैं, पर फीस दवाईयों की कीमत में जोड़ देते हैं। इस तरह इनकी दुकान सुचारु रुप से चलती रहती है।

हकीकत से परे यह स्थिति मरीज और डॉक्टर दोनों के लिए लाभकारी प्रतीत होता है। गाँवों में तो इस कदर अंधेरगर्दी मची रहती है कि ये डॉक्टर हर मर्ज का ईलाज पानी के बोतल में ढूँढ़ लेते हैं। हर मरीज को पानी चढ़ाया जाता है और एक बोतल की कीमत 200 से 300 रुपयों तक वसूल की जाती है।

असाध्य रोग की स्थिति में उनकी सारी गाढ़ी कमाई झोला छाप डॉक्टरों की जेब में चला जाता है और जब मर्ज लाईलाज हो जाता है तब वे शहर का रुख करते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों से दो-चार होकर प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में ग्रामीण मर जाते हैं।

कहते हैं कि डॉक्टरी के पेशे के साथ मानवता जुड़ी हुई है, पर बदलते परिवेश में मानवता का नामोनिशान मिट गया है। सारा खेल पैसे से शुरु होता है और पैसे पर जाकर ही खत्म हो जाता है।

डॉक्टरी के पेशे के व्यावसायीकरण के पीछे चिकित्सा की पढ़ाई का लगातार महँगा होते चला जाना हो सकता है। आज सरकारी मेडिकल कॉलेजों में सीट बहुत कम है, जिसके कारण बहुत सारे छात्र निजी मेडिकल कॉलेजों में नामांकन मोटी डोनेशन देकर करवाते हैं और डॉक्टर बनने के साथ ही अपने निवेश की क्षतिपूर्ति के लिए तत्पर हो जाते हैं। भले ही इस प्रक्रिया में किसी की जान ही चली जाये।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि हमारे देश के गाँव आज भी काबिल और प्रशिक्षित डॉक्टर से महरुम हैं। इस बात से हमारे केन्द्रीय स्वास्थ मंत्री श्री गुलाम नबी आजाद भी इतिफाक रखते हैं।

विगत के दशकों में भारत ने अनेकानेक क्षेत्रों में अपनी सफलता के झंडे फहराये हैं। फिर भी अभी भी बाल और मातृ मृत्यु की दर के मामले में भारत उच्चतम पायदान पर काफी अरसे काबिज है। हालत इतने खराब हैं कि करीब 10 लाख बच्चे अपना पहला जन्मदिन तक मना नहीं पाते हैं। लगभग 25 सालों से सरकार विभिन्न रोगों के लिए टीकाकरण अभियान चला रही है। बावजूद इसके लाखों बच्चे टीकाकरण के अभाव में प्रतिवर्ष मौत के आगोश में चले जा रहे हैं।

सामुदायिक स्वास्थ केन्द्रों में 50 से 60 फीसदी विशेषज्ञ डॉक्टरों का पद खाली है। 20 से 30 फीसदी सामुदायिक स्वास्थ केन्द्रों में एमबीबीएस डॉक्टर की तैनाती तक नहीं है।

इस पूरे कवायद में विरोधाभास यह है कि पहले की तरह एमबीबीएस डॉक्टर 1 लाख 45 हजार प्राथमिक स्वास्थ केन्द्रों पर तैनात रहेंगे। जाहिर है कि प्राथमिक स्वास्थ केन्द्रों पर तैनाती की स्थिति में बैचलर ऑफ रुलर हेल्थ केयर कोर्स करने वाले डॉक्टरों पर हुकूमत एमबीबीएस डॉक्टर की ही चलेगी। ऐसे में एक आम गा्रमीण का कितना भला हो पायेगा यह निष्चित रुप से विचारणीय मुद्वा होगा।

दूसरा पहलू यह है कि ग्रामीण स्कूल-कॉलेजों से उर्तीण करने वाले छात्र-छात्राएं क्या आज के इंटरनेट के युग में शहरी छल-प्रपंच से दूर हैं? एक तरफ तो हम पूरे विश्‍व को एक गाँव बता रहे हैं और दूसरी तरफ गाँव वालों से उम्मीद करते हैं कि वे वर्जिन रहें। क्या ऐसा संभव हो सकता है?

डॉक्टरी का पेषा अब सेवा का पेषा नहीं है। आज थोड़े से भी पढ़े-लिखे गाँव वाले, गाँव में नहीं रहना नहीं चाहते हैं। ऐसे में बैचलर ऑफ रुलर हेल्थ केयर (बीआरएच) कोर्स पूरा करने के बाद कौन गाँव में रहना चाहेगा? सभी को बिजली-पानी से लेकर हर प्रकार की बुनियादी और भौतिक सुविधा चाहिए।

शनिवार को अगर आप बस स्टेंड या रेलवे स्टेशन का मुआयना करेंगे तो सरकार के दावों की तुरंत पोल खुल जाएगी। सभी सरकारी नौकरीपेशा लोग 12 बजे से ही आपको या तो बस या रेलगाड़ी के अंदर या बाहर मुँगफली खाते या ताश खेलते हुए मिल जायेंगे। ये सरकारी मुलाजिम इतने सुविधाभोगी होते हैं कि वे शनिवार के अलावा दूसरे दिन भी शहर का रुख कर लेते हैं।

ज्ञातव्य है कि छतीसगढ़ में इसी अवधारणा की तर्ज पर तीन वर्ष का मेडिकल कोर्स कुछ दिनों पहले शुरु किया गया था, लेकिन विवाद के कारण उसे बंद करना पड़ा था। छतीसगढ़ में तो इस तरह का पाठयक्रम असफल हो चुका है। हालाँकि बिट्रेन और अमेरिका में बीआरएमएस जैसे पाठयक्रम से लोगों का बेहद राहत मिली है।

सरकार तो धीरे-धीरे पंचायती राज्य प्रणाली के द्वारा सता का विकेन्द्रीकरण कर रही है, किन्तु इसके बाद भी अभी तक वास्तविक रुप से यह अवधारणा हकीकत में नहीं बदल सकी है।

कहने का लब्बोलुबाव यह है कि भारत बिट्रेन या अमेरिका नहीं है। सारी कसरत पंचायती राज्य प्रणाली के द्वारा सता का विकेन्द्रीकरण की तरह है। यहाँ के नागरिक अपने अधिकार तो जानते हैं, लेकिन उनको अपने कर्तव्यों से कोई सरोकार नहीं है। सभी आरामपंसद हैं और सेवाभाव से उनका दूर-दूर तक का कोई रिश्‍ता नहीं है। ऐसे में इस सकारात्मक और महत्वाकांक्षी योजना का हस्र मनरेगा की तरह ही होने वाला है।

-सतीश सिंह

1 COMMENT

  1. satish ji ne jo likha hai vah tathyon ke viprit aur paschim se prayojit prachaar ka prabhav hai. sach to yah hai ki jhan adhunik chikitsak nahin hain vhan bimariyan ashcharyajanak roop se bahut kam hain, jabki jahan- jahan docter gaye vahan vahan rog bhi badhte gaye. ek tathya aur hai ki gramin ,anparh samjhe janewale vidyon ki dawaon ke parinam bahu t ache aate hain. shak hota hai ki kahin jhola chap docter ke nam par gramin vaidyon ko samapt karne ki koi kutil yojna to nahin chal rahi jiska shikar satish ji jese budhijivi anjane main bante rahte hain? dawa nirmaton ke raste ka roda lakhon unregistered gramin vaidya hain jinke pas pidhion ka ajmaya hua amulya chikitsa gyan hai. ve allopathic dawa nirmatao ke nishane par kai dashkon se hain.

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