‘आओ ! सब भेदभाव मिटाकर व परस्पर मिलकर वेदों का सत्संग करें’

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य व पशुओं में प्रमुख भेद मनुष्यों के पास बुद्धि का होना व पशु आदि अन्य प्राणियों के पास मनुष्य के समान सत्य व असत्य का विवेक करने वाली बुद्धि का न होना है। यह बुद्धि ईश्वर ने मनुष्यों को सत्य व असत्य को जानने व सत्य को जानकर उसका आचरण करने तथा असत्य को जानकर उसे छोड़ने के लिए दी है। हम संसार में देख रहे हैं कि लोग मत-मतान्तरों के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं और जिस मत को मानते हैं, उसकी मान्यताओं की सत्य व असत्य के परिपे्रक्ष्य में परीक्षा नहीं करते जिससे सत्य व असत्य उनके साथ दोनों जुड़ जाते हैं और उनका जीवन लक्ष्य पर पहुंचने के स्थान उससे दूर जाता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। एक साधारण मनुष्य जो संस्कृत व हिन्दी आदि को भी नहीं पढ़ सकता, यदि वह प्रयत्न करे तो सत्य का ग्रहण कर सकता है। इसके लिए उसे विद्वानों की संगति कर उनसे उपदेश द्वारा करणीय व अकरणीय कर्तव्यों को जानना है। सत्संग इसका एक बहुत कारगर उपाय है बशर्ते की सत्संग में उपदेश देने वाले महात्मा व विद्वान सत्य के जानने वाले व सत्य को ही समर्पित हों। ऐसा भी कम ही देखने में आता है क्योंकि आजकल के उपदेशकों के जो प्रवचन सुनने को मिलते हैं उसमें केवल सम्मोहन रूपी व जादू के समान वाला तड़क-फड़क से युक्त व्याख्यान होता है। इसमें यह ध्यान नहीं रखा जाता कि वक्ता द्वारा कही जाने वाली प्रत्येक बात सत्य है। अतः इससे जिज्ञासु मनुष्य की बुद्धि भ्रमित होकर लक्ष्य से दूर हो जाती है।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों की परीक्षा कर जाना कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो शत-प्रतिशत सत्य ज्ञान से युक्त हैं तथा इनमें असत्य का लेश भी नहीं है। उन्होंने वेदों के पूर्णतया सत्य होने की घोषणा की और उन पर आक्षेप करने लोगों को चुनौती दी परन्तु देश विदेश का कोई विद्वान वेदों की किसी बाद को अज्ञान, अवैज्ञानिक, अविवेकपूर्ण और असत्य सिद्ध नहीं कर सका।  अतः वेदों के उपदेश ही श्रवण योग्य, हितकारी एवं कल्याणकारी है। इसके साथ वेदों का अध्ययन व अध्यापन, श्रवण व प्रचार एवं चिन्तन-मनन ही मनुष्य का धर्म वा परम धर्म सिद्ध होता है। वेदों के प्रचारार्थ देश-विदेश के सभी आर्यसमाजों में प्रत्येक रविवार को वैदिक सत्संग का आयोजन किया जाता है। सत्संग का क्रम बहुत ही सोच-विचार कर बनाया गया है। आरम्भ में आर्यसमाज स्थित यज्ञशाला में सब सदस्य व आगन्तुक बन्धु एक साथ मिलकर सामूहिक रूप से वैदिक सन्ध्या करते हैं। इसके पश्चात यज्ञ होता है और यज्ञ के पश्चात ईश्वर भक्ति, समाज सुधार, महर्षि दयानन्द गौरव, मर्यादा पुरुषोत्तम राम व योगेश्वर श्री कृष्ण जी आदि के जीवन व आदर्शों पर भजन होते हैं। भजन के बाद सत्यार्थप्रकाश का पाठ किया जाता है और तदन्तर वेदोपदेश वा प्रवचन या व्याख्यान होता है। आज इस लेख में हम आर्यजगत में उच्चकोटि के विद्वान पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी का वेदोपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें ईश्वर स्वयं बताते हैं कि उनका दिया हुआ वेदों का ज्ञान ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्यों के समान शूद्र, अतिशूद्र व अन्त्यज सहित सभी स्त्री-पुरुषों व मनुष्यों के लिए हैं। इस आधार पर हम यह भी निवेदन करना चाहते हैं कि वेदों का ज्ञान हमारे दलित व पिछड़े भाईयों सहित सभी ईसाई, मुस्लिम, सिख, जैनी, बौद्ध, पौराणिक स्त्री-पुरुष बहिनों व भाईयों के लिए समान रुप से उपायोगी व आवश्यक है अर्थात् वह भी वेदों को पढ़ व सुन सकते हैं और अपने गुण-कर्म-स्वभाव को उन्नत कर ब्राह्मण आदि वर्ण वाले बन सकते हैं। वेदों को पढ़ने व उपादेश ग्रहण का अधिकार परमात्मा ने मानवमात्र को दिया है। उसके बाद महर्षि दयानन्द ने इसका परिचय कराया और अब आर्यसमाज परमात्मा की आज्ञा का पालन करने के साथ बुद्धि व तर्क की कसौटी पर सभी मनुष्यों को वेदविद बनाने का काम कर रहा है। आज का उपदेश यजुर्वेद के अध्याय 26 के दूसरे मन्त्र पर है। मन्त्र हैः

 

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृद्ध्यतामुप मादो नमतु।।

 

इस मन्त्र का हिन्दी अर्थ व भावार्थ है कि ‘मैं ईश्वर जैसे इस कल्याणप्रद वेदवाणी को सब मनुष्यों के लिए सम्यक् रीति से कहता हूं अर्थात् ब्राह्मण-क्षत्रिय दोनों के लिए, शूद्र के लिए और वैश्य के लिए, अपने लोगों के लिए और पराये अर्थात् शत्रु के लिए, उसी प्रकार मनुष्यमात्र को मेरे इस कार्य का अनुकरण करना चाहिए (अर्थात् अन्य सभी मनुष्यों में प्रचार करना चाहिए)। ऐसा कर्तव्य पालन करनेवाला (अर्थात् वेद व वेद की मान्यताओं का प्रचार करने वाला) मनुष्य ऐसी प्रार्थना कर सकेगा कि मैं देवों (देव विद्वानों को कहते है, ईश्वर महादेव है, उन) का प्रिय हो जाऊं। इसी लोक या जीवन में मैं दक्षिणा (वेदज्ञान, शिक्षा व विद्या) के देने वालों का प्रिय हो जाऊं। मेरी यह कामना पूरी हो। यह मेरा पुत्र या उत्तराधिकारी (वेदों का प्रचार करने वाला) मुझको प्यारा हो जाए।

 

इस मन्त्र में निहित विचारों को केन्द्रित कर व्याख्यान करते हुए पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय कहते है कि आजकल के युग में यह वेदमन्त्र एक प्रकार से समस्त मन्त्र-समूह में अधिक महत्त्व रखता है। वैदिककाल में यह एक सामान्य मन्त्र रहा होगा और प्रत्येक वेदानुयायी इस पर उसी प्रकार कार्य-बद्ध होगा जैसे जीवन के अन्य कार्यों में, परन्तु कालान्तर में वेद के विद्वान् स्वार्थी और अल्पाशय हो गये तथा इस वेदमन्त्र को सर्वथा विस्मृत ही नहीं किया अपितु इसके विरुद्ध आचरण करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि वेद के माननेवाले देवों के प्रिय नहीं रहे और उनकी शुभ-कामनाओं की पूर्ति में बाधा पड़ने लगी। वैदिकधर्म संसार से लुप्त हो गया, अधर्म-अन्धकार छा गया। वैदिक सभ्यता का ह्रास हो गया। स्वामी दयानन्द ने जहां आर्य संस्कृति के गुप्त तत्वों का प्रकाशन किया, वहां इस मन्त्र को कर्मकाण्ड के कूड़े-करकट से निकालकर जनता के समक्ष रक्खा और प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य बताया कि जिस ज्ञान-ज्योति को वह ईश्वर से प्राप्त करें उससे स्वयं ही लाभ न उठाकर उसे सर्वत्र प्रचारित करने का यत्न करें। स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण और भारतीय वेदज्ञ विद्वानों के दृष्टिकोण में कितना महान् अन्तर है, इस पर थोड़ी-सी दृष्टि डालने पर ही ऋषि दयानन्द के मस्तिष्क की विचित्रता अपना प्रभाव डालने लगती है। यदि ऋषि दयानन्द किसी वेद का भाष्य न कर सकते और केवल इसी मन्त्र को देकर चले जाते तो इतना कार्य भी वैदिक संस्कृति के उत्थान के लिए पर्याप्त हो सकता था। खेद है कि यद्यपि हम लोग ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं परन्तु इस उदात्त-देन की ओर हमारा उतना ध्यान नहीं गया जितना जाना चाहिए था। हर आर्य के कान में यह मन्त्र हर समय गूंजता रहना चाहिए, तभी तो वह ‘देवानां प्रियं’, देवों का प्यारा बन सकेगा, तभी उसकी कामनाएं पूरी होंगी।

 

हमने इस वेदमन्त्र की कितनी उपेक्षा की है, इस पर थोड़ा सा विचार कीजिए। वेदमन्त्र क्या कहता है? ईश्वर ने तुमको वेद दिये। तुम वेदों को दूसरों को दो। सरकार जो कानून बनाती है वह हर मनुष्य के लिए बनाती है, एक के लिए नहीं, एक दल या समूह के लिए नहीं। एक वर्ग विशेष के लिए नहीं। एक अच्छी सरकार का कर्तव्य होता है कि समस्त राष्ट्र में कोई ऐसा व्यक्ति न रहे जो कानून को न जानता हो और अज्ञानवश कोई ऐसा कार्य न कर बैठे कि उसे नियमोल्लंघन के कारण दण्डित होना पड़े।

 

कल्पना कीजिए कि सरकार का जो कानून बने उसे कुछ उच्च हाईकोर्टों के जज ही अपने सन्दूक में बन्द करके रखें या कुछ चुने वकील लोग ही उस कानून को देख सकें, शेष जनता उसको न पढ़ पाये, हां, उस कानून के विरु़द्ध आचरण करने पर लोगों को दण्ड अवश्य मिले तो आप इस प्रकार की सरकार को क्या कहेंगे? क्या यह उचित और सम्मानित सरकार होगी? क्या ऐसी सरकार से जनता का कोई कल्याण होगा? क्या ऐसे जज जनता की श्रद्धा के पात्र होंगे? क्या ऐसे शासन-विधान से देश रसातल को न जाएगा?

अब वैदिक युग के ह्रास के पश्चात् की वैदिक धर्मव्यवस्था पर दृष्टि डालिए। क्या यह व्यवस्था थी अथवा कुव्यवस्था या सर्वथा अव्यवस्था अर्थात् धींगाधींगी? वेद ईश्वर की वाणी थे, पवित्र थे, पूजनीय थे, परन्तु इतने पवित्र कि जनता को न उनके पढ़ने की आज्ञा थी, न सुनने की। यह समझा जाता था कि यदि जनता का हाथ वेदों पर लग गया तो वेदों की पवित्रता नष्ट हो जाएगी। स्त्रियां इतनी अपवित्र समझी गईं कि बड़े-से-बड़े पण्डित की माता, बहिन, पत्नी या पुत्री वेद अध्ययन की अनधिकारिणी थी। शूद्र तो घोर अपवित्र थे। वेद का शब्द भी उनके कान में पड़ जाए तो उनके कान में गरम सीसा डाल दिया जाए। ईश्वर की कल्याणी वाणी सुनना इतना घोर पाप और उसका इतना कड़ा दण्ड ! वह साबुन क्या जो मैले कपड़े के संसर्ग से मैला तो हो जाए परन्तु मैले कपड़े को उजला न कर सके? वह हस्पताल क्या जो रोगी के रोग को दूर तो न कर सके परन्तु रोगी के रोग से स्वयं बिगड़ जाए? परन्तु हुआ ऐसा ही ! अपने को उच्च ब्राह्मण कहने वाले थोड़े से जजों ने वेद के कानून को अपने सन्दूक में बन्द कर रख दिया कि कहीं शूद्र जीवों के सम्पर्क में आकर वेद अपवित्र न हो जाएं।

 

वेदमन्त्र कहता है कि वेद कल्याणी वाणी है। ईश्वर ने इसका उपदेश ‘‘जनेभ्यः” = मनुष्यमात्र के लिए किया है, विद्वानों के लिए भी और अविद्वानों के लिए भी, पापियों के लिए भी और पुण्यात्माओं के लिए भी। ईश्वर चाहता है कि वेद पढ़कर अज्ञ विज्ञ हो जाएं। विज्ञ सुविज्ञ हो जाएं, पापी पवित्र हो जाएं, पवित्र अधिक पवित्र हो जाएं, स्वयं अच्छे हों और दूसरों को अच्छा बनाएं। परन्तु वेदज्ञों की ओर से कठोर-से-कठोर बाधाएं उपस्थित की गईं। वेदाध्ययन के ऐसे क्लिष्ट नियम बनाये गये कि ब्राह्मणों में भी विरले ही पढ़ सकें। ब्राह्मणों ने अब्राह्मणों को चेला बनाया तो गुरुमन्त्र (वैदिक गायत्री) न सिखाकर मनमाने गुरुमन्त्र बना लिये, क्योंकि वेदमन्त्र बढ़ने और सुनने का अधिकार तो उनको था ही नहीं। चेले बनाते रहे, गुरुदक्षिणा लेतेे रहे, परन्तु बदले में दिये नकली गुरुमन्त्र। असली वेदमन्त्रों को छिपा लिया। यह था ईश्वर-उपदेश का खुला उल्लंघन। जो ईश्वर के कानून को तोड़ता है वह दण्ड पाये बिना रह नहीं सकता। परिणाम देखिए ! जब भारत के गुरुओं ने नकली गुरुमन्त्र बनाये तो भारत के बाहर बीसियों अवैदिक मत-मतान्तर प्रचलित हो गये। मनमाने गुरु, मनमाने गुरुमन्त्र और मनमाने सदाचार के नियम ! वेदमन्त्र का आदेश है कि वेद ब्राह्मणों को पढ़ाओं, क्षत्रियों को पढ़ओं, वैश्यों को पढ़ाओं और शूद्रों को पढ़ाओं, क्योंकि यदि शत्रु बुरा है तो वेद पढ़कर कुछ अच्छा ही बनेगा, कुछ उसकी धर्म की ओर प्रवृत्ति ही होगी परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। वेद तो दूर की बात है, साधारण संस्कृत का पठन-पाठन भी बन्द हो गया। संस्कृत विद्या लुप्त हो गई और सैकड़ों नई भाषाएं बोली जाने लगीं। यह सम्भव न था कि सूर्य छिप जाए और लोग अंधेरा मिटाने के लिए छोटे दीपक न बनाएं। जब तक वेदों का प्रचार रहा, मत-मतान्तर न फैल सके। जब वैदिक सूर्य के प्रकाश में बाधा पड़ने लगी तो सैकड़ों पीर, पैगम्बर, देवदूत, सन्त, महात्मा, अपने-अपने मत के प्रवर्तक बन गये। इसका मूलकारण था वेदों के प्रचार का अभाव और वेद के पढ़ाने पर कठोर नियन्त्रण। ऋषि दयानन्द ने इस वेदमन्त्र को समक्ष लाकर लोगों को कहा कि वेद स्वयं तो यह आज्ञा देता है कि कोई मनुष्य वेद पढ़ने से वंचित न रह जाए और तुम लोग इसके सर्वथा विपरीत काम करते हो। यह तो ईश्वर की आज्ञा का विरोध है। ऐसी दशा में तुम देवों के प्रिय कैसे हो सकते हो और तुम्हारी शुभ कामनाएं कैसे फलीभूत हो सकती हैं तथा तुम्हारे उत्तराधिकारी तुम्हारी प्रसन्नता का सम्पादन कैसे कर सकते हैं?

 

भारतवर्ष में इस्लाम और ईसाईयत क्यों फैली और वैदिकधर्म क्यों लुप्त हुआ? इसलिए कि इन मतों के प्रचारकों का दृष्टिकोण वेद के पण्डितों के दृष्टिकोण से सर्वथा विपरीत था। कुरान में लिखा है–‘‘ऐ मुहम्मद ! खुदा के पास से जो तुमको पहुंचा है वह तुम दूसरों तक पहुंचा दो, अगर तुम न पहुंचाओंगे तो तुम पैगम्बर नहीं हो सकते।” लाखों वर्ष पूर्व यजुर्वेद में भी यही उपदेश दिया गया था कि हे ऋषियों ! परमात्मा ने जिस कल्याणी वाणी का उपदेश तुमको किया है उसे बिना किसी संकोच या पक्षपात के संसार भर के मनुष्यों में पहुंचा दो। ब्राह्मण हों या शूद्र, अपने मित्र हों या शत्रु, स्त्री हों या पुरुष, यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम देवों के प्रिय नहीं हो सकते, परन्तु मुसलमानों ने कुरान के इस आदेश का पान किया, इसलिए कुरान की शिक्षा अफ्रीका की जंगली और अशिक्षित जातियों में भी फैल गई। ईसाइयों ने भी इसी शिक्षा को ग्रहण किया है, इसलिए संसार की कोई भाषा ऐसी न मिलेगी जिसमें बाइबिल का अनुवाद न हो। भारत की नीच-से-नीच जातियों को वह बाइबिल का उपदेश सुनाते हैं। भारतवर्ष का बाह्मण इसके सर्वथा विपरीत आचरण करता है। वह वेद को छिपाता है। जो पढ़ना चाहे उसको भी नहीं पढ़ाता। हर मुसलमान और ईसाई के घर कुरान और बाइबिल मिलेगी। लाखों ब्राह्मणों में शायद कोई एक र्बाह्मण हो जिसने वेद की पुस्तक के दर्शन भी किये हों। यजुर्वेद की भाषा में ऐसे ब्राह्मण या ऋषि न ब्राह्मण हैं न ऋषि, और न देवों के प्रिय ! ईश्वर उनसे नाराज है कि उन्होंने वेद जैसी विभूति को जो मनुष्यमात्र के लिए दी गई थी छिपाकर रक्खा। मनुस्मृति में उपेदश था कि–‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।’ सब दानों में वेदोपदेशरूपी दान सर्वोत्तम है। हिन्दू दान के लिए प्रसिद्ध हैं, परन्तु ब्रह्मदान की जितनी उपेक्षा हिन्दुओं में है उतनी किसी अन्य सम्प्रदाय में नहीं पाई जाती। जो पण्डित अपनी माता या पुत्री को भी ब्रह्मदान देना पाप समझता है उससे संसार भर में वेदप्रचार की आशा करना कठिन है और ऐसे विद्वानों से लोकोपकार या देशोन्नति की आशा नहीं की जा सकती। इस युग में ऋषि दयानन्द ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने इस वेदमन्त्र को हमारे समक्ष लाकर हमारे अन्तःकरण की आंखे खोल दी और हमको सिखाया कि वेद का प्रचार मनुष्य-मात्र में करो और अपनी सन्तान के लिए दायभाग में यह वेद का उपेदश छोड़ जाओ-‘‘अदः मा उपनमतु।”–‘‘हे अमुक पुत्र ! तू ब्रह्मदान देकर मेरी प्रसन्नता का साधक बन।”

 

 

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