तुष्टीकरण की बलि चढ़ेगा देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र

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आशुतोष

पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव एक बड़े राजनैतिक बदलाव की ओर संकेत कर रहे हैं, यह दावा किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथियों का वर्चस्व टूटा तो तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। असम में कांग्रेस अपनी सरकार को बचाने में कामयाब रही वहीं कर्नाटक और आंध्र के उपचुनाव के परिणाम कांग्रेस को चेतावनी दे रहे हैं।

इन परिणामों को लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास, परिवर्तन की बयार, भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनादेश आदि कह कर महिमामंडित किया जा रहा है। असम छोड़ कर सभी राज्यों में होने वाला परिवर्तन प्रथमदृष्टया ऐसा आभास भी देता है। कुछ लोग इसे दिल्ली में अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुई अहिंसक क्रांति की फलश्रुति के रूप में भी प्रस्तुति कर रहे हैं और इसके पूरे देश में दोहराये जाने का दावा कर रहे हैं। अन्य अनेक राजनैतिक और सामाजिक नेता और संगठन, जो बदलाव के निजी अभियान चला रहे हैं, का उत्साह भी इन परिणामों से बढ़ा है।

पश्चिम बंगाल में हुए सत्ता परिवर्तन के संकेत पहले ही दिखने लगे थे लेकिन इतनी जबरदस्त जीत की उम्मीद स्वयं ममता बनर्जी को भी नहीं थी। वामपंथी कुशासन के विरुद्ध ममता एक प्रतीक बन गयी थीं। इस ऐतिहासिक विजय का पूरा श्रेय उनकी अनथक मेहनत और जुझारूपन को है। यह उनकी नितांत व्यक्तिगत जीत है जिसे बंगाल की जनता ने अपना समर्थन देकर पूरा किया।

वस्तुतः यह संघर्ष राष्ट्रीय दल और पूंजीवादी व्यवस्था का हिस्सा होने के नाते कांग्रेस अथवा राष्ट्रवादी विचार के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय जनता पार्टी का राजनैतिक संकल्प होना चाहिये था जिसे ममता ने अपने हौंसले और जिद की दम पर हासिल किया है। परिवर्तन की यह लड़ाई अन्य राज्यों से अलग और उल्लेखनीय है। अन्य राज्यों की तरह यहां न तो मतदाताओं को उपहार बांटे गये थे और न ही बाजार द्वारा गढ़े गये विकास के लुभावने नारों का ही इस्तेमाल किया गया था।

“मां, माटी और मानुष के सम्मान” जैसी कोमल संवेदना में भी परिवर्तन की ऊर्जा छिपी है इसे ममता ने न केवल पहचाना, बल्कि उसे राजनीति से दूर गांव-गली तक पहुंचाया भी। विकास के नाम पर अपनी मुनाफाखोरी को आवश्यक साबित करने वाले बाजार की शक्तियों को तो वे सिंगूर और नंदीग्राम के समय ही आइना दिखा चुकी थीं।

हालांकि राइटर्स बिल्डिंग में प्रवेश करने की आतुरता में ममता ने भी कुछ समझौते किये हैं। आने वाला समय ही बतायेगा कि उन्हें इसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस आतुरता में उन्होंने जहां एक ओर माओवादियों-नक्सलवादियों का सहारा लिया है तो दूसरी ओर पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों, उद्योगपतियों आदि से भी हाथ मिलाया है। बड़ी मात्रा में मुस्लिम मत भी उनके खाते में गये हैं जिनमें बांग्लादेशी घुसपैठियों की भी काफी संख्या है। कल तक अपनेआप को कलाकारों, साहित्यकारों, समाजशास्त्रियों, शिक्षाशास्त्रियों आदि के रूप में प्रस्तुत करने वाले अनेक कॉमरेडों ने भी समय की नजाकत को देखते हुए ममता की विरुदावली गानी शुरू कर दी थी। जश्न खत्म होने पर वे भी अपना इनाम मांगेंगे। इन सबको एक साथ साध पाना, साथ ही मतदाताओं की आकांक्षाओं को पूरा करना, यह सरल काम नहीं है।

जनता जब इतना स्पष्ट जनादेश देती है तो लम्बे समय तक धैर्य रखने को तैयार नहीं होती। उसे अब परिवर्तन के नारे से नहीं बहलाया जा सकता। परिवर्तन होता दिखना भी जरूरी होता है। इसलिये ममता को सच का सामना करने के लिये भी तैयार हो जाना चाहिये।

राज्य का खजाना खाली है और समस्याओं का अंबार लगा है। कम्युनिस्ट कैडर द्वारा उगाही के अर्थशास्त्र और नीतिगत भ्रष्टाचार को वाम गठबंधन द्वारा जिस प्रकार संस्थागत रूप दिया जा चुका है उसका तिलस्म तोड़ना कोई हंसी-खेल नहीं है। अगर ममता इसे जारी रहने देती हैं तो वे अपने मतदाताओं का विश्वास खो देंगी। यदि वे इसे उखाड़ फेंकने की कोशिश करेंगी तो लाखों कम्युनिस्ट कैडर को बेरोजगार कर अपने खिलाफ अराजकता की आंधी को आमंत्रित करेंगी। इसका तीसरा और सबसे खतरनाक किन्तु प्रायः अवश्यंभावी पहलू है उनके अपने ही कार्यकर्ताओं का भारी दवाब।

जब भी ऐसे व्यापक परिवर्तन हुए हैं, देखने में आता है कि सत्ता संभालने वाले दल के कार्यकर्ता, जो लम्बे समय तक अपने नेता के कहने पर संघर्ष करते हैं, लाठी-गोली खाते हैं, अपने कैरियर दांव पर लगाते हैं, इस स्थिति में सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगते हैं। मंत्री, विधायक, सांसद बनाये जाने की सीमा होती है। वह सबको नहीं दी जा सकती। तब मांग उठती है भ्रष्टाचार के उस तंत्र को उखाड़ फेंकने के बजाय उसे बनाये रखने और उसके पायेदारों के रूप में डटे पिछले सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को हटाकर नये सत्ता में आये दल के कार्यकर्ताओं को वहां स्थापित करने की।

यह वह क्षण होता है जब अधिकांश नेतृत्व राजनैतिक मजबूरी के चलते अपने समर्थकों के सामने नतमस्तक होता है और भ्रष्ट व्यवस्था को अभयदान मिल जाता है। यही वह क्षण होता है जब किसी भी परिवर्तन की निरर्थकता की इबारत का पहला अक्षर लिखा जाता है। यही वह क्षण होता है जब समझौते न करने के कारण ऊंचाई और प्रतिष्ठा पाने वाला व्यक्ति समझौता कर अपनी पहचान गंवाता है। इसके आगे समझौते ही उसकी नियति बन जाते हैं। और यदि वह समझौते नहीं करता, तो अपने उन कार्यकर्ताओं की नाराजगी मोल लेनी होती है जो पूरे संघर्ष में कदम-कदम पर उसके साथ खड़े थे।

पश्चिम बंगाल में समस्याएं बेहद विकराल है। पड़ोसी देश से होने वाली घुसपैठ से ममता कैसे निपटेंगी। भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, सामाजिक संघर्ष, नक्सलवाद जैसी चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं। ममता के पास विश्राम का समय नहीं होगा। तुरंत परिणाम पाने की जनाकांक्षा उन्हें लगातार दवाब में रखेगी। लेकिन अपने जीवट के बल पर ममता इस जनाकांक्षा को तृप्त कर पायेंगी, उनके व्यक्तित्व को जानने वाला कोई भी यह विश्वास व्यक्त कर सकता है। यह ममता की सफलता के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश में बन रहे परिवर्तन के वातावरण को बनाये रखने के लिये भी बेहद जरूरी है।

तमिलनाडु और पुड्डुचेरी की राजनीति आमतौर पर एक जैसे रुझान प्रदर्शित करती रही है। द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच सत्ता का लेन-देन भी चलता रहा है। दोनों ही दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। पिछली बार जब तमिलनाडु की जनता ने जयललिता को सत्ता से बेदखल किया था तो उनकी अकूत सम्पत्ति और तुनकमिजाजी के किस्से हफ्तों तक पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियां बनते रहे थे। करुणानिधि के कुनबे ने उनके कीर्तिमान को तोड़ा है।

तमिलनाडु के सत्ता परिवर्तन को किसी भी तरह परिवर्तन की बयार साबित नहीं किया जा सकता। ज्यादा से ज्यादा इसे राज्य की जनता के सामने विकल्पहीनता की खीझ का प्रकटीकरण मान सकते हैं। उनके सामने दो बुराइयों में से एक को चुनने का विकल्प रखा गया था और उन्होंने सामने मौजूद बुराई को हटा कर दूसरी के लिये रास्ता बना दिया। करुणानिधि के सहारे केन्द्र में कांग्रेसनीत गठबंधन चल रहा है। अभी तक के सबसे बड़े टूजी घोटाले में द्रमुक के मंत्री राजा के साथ ही करुणानिधि की बेटी भी शामिल हैं। उन्हें विस्थापित कर सत्ता में आने वाली जयललिता को भी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने में ऐतराज नहीं है। यह सिद्धांतों की नहीं सुविधाओं की राजनीति है।

केरल का चुनाव भी हालात के बदलने का विश्वास नहीं दिलाते। कम्युनिस्ट पार्टी की भीतरी लड़ाई में उसकी कुछ सीटें कम हुई हैं। लेकिन फिर भी कांग्रेस को मिली 38 सीटों के मुकाबले 45 सीटे लेकर माकपा उससे कहीं आगे है। सच तो यह है कि दिल्ली में सांप्रदायिकता को गाली देने वाली कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ती है। अपने दम पर बहुमत के लिये आवश्यक 71 सीटों से कांग्रेस बहुत पीछे है किन्तु 2006 में 7 सीटों के मुकाबले 2011 में 20 सीटें पाकर मुस्लिम लीग ने गठबंधन को सत्ता तक पहुंचा दिया।

असम के चुनावों में तरुण गोगोई की तीसरी बार विजय को कांग्रेस उपलब्धि की तरह प्रस्तुत कर रही है। राज्य की जनसांख्यिकी का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि वहां की राजनीति अब असम के मूल निवासियों के हाथों से प्रायः निकल चुकी है।

अधिकांश विधानसभा क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठिये चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की स्थिति में आ चुके हैं। कांग्रेस ने इन घुसपैठियों को बड़े जतन से पाला है। उन्हें रहने को जमीनें, नागरिकता, पहचान पत्र आदि सुलभ कराये हैं। साथ ही उन्हें यह भी याद दिलाये रखा जाता है कि यदि कोई और सरकार आयी तो उनकी आव-भगत में कमी हो सकती है। हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि कुछ समय पहले एक राष्ट्रीय चैनल पर मध्य आसाम में फहराते पाकिस्तान के झण्डे के वीडियो प्रसारित होने वाद भी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। घुसपैठ पर यदि कोई नियंत्रण नहीं किया गया तो संभव है कि अगले चुनावों में असम विधानसभा से व्यावहारिक रूप से प्रतिपक्ष गायब ही हो जाय।

इन परिस्थितियों में हालिया चुनाव परिणामों को किसी परिवर्तन का संकेत समझ लेना गलतफहमी से ज्यादा नहीं हो सकता । लेकिन इन परिणामों के निहितार्थ का केन्द्र की राजनीति के संदर्भ में विष्लेषण करने पर दो चेतावनियां उभरती हैं। पहली, केन्द्र में सत्ता संभाल रही कांग्रेस ने सारी सीमाएं तोड़ कर मुस्लिम तुष्टीकरण की जिस रणनीति पर काम किया उसके परिणाम अब दिखने लगे हैं। धुर दक्षिण में केरल से लेकर पूर्व में असम तक वह मुस्लिम समर्थन जुटाने और उसके बल पर सरकार बनाने में कामयाब रही है। निश्चित ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को खुश करने के लिये जिस तरह दिग्विजय सिंह ने ओसामा की मौत पर संवेदना प्रकट की है वह बताता है कि कांग्रेस अपनी तुष्टीकरण की नीति के अगले चरण में कहां तक जा सकती है। इसमें यह चेतावनी छिपी है कि अब अन्य राजनैतिक दल भी इस मंत्र को आजमायेंगे और देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र इस तुष्टीकरण की बलि चढ़ेगा।

दूसरी चेतावनी प्रतिपक्ष के सबसे बड़े दल भाजपा के लिये है जो इन चुनावों में अपना पिछला प्रदर्शन भी न दोहरा सकी। निस्संदेह यह उसके लिये आत्ममंथन का अवसर है। देश की धर्मनिरपेक्षता पर कोई आंच न आये यह प्रतिपक्ष की भी जिम्मेदारी है। यदि केन्द्र में सत्तारूढ़ दल इस राष्ट्रीय चरित्र को ही बदल देने पर आमादा है तो प्रतिपक्ष को अपनी भूमिका निभानी ही होगी।

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  1. हम इस भ्रम मे जीते हैं की किसी राजनितिक घटना से देश मे व्यवस्था आ जाएगी। लेकिन शीघ्र ही व्यवस्थाए कुव्यवस्थाओं मे परिवर्तित हो जाती है। हमे राजनीति से ज्यादा अध्यात्म पर विश्वास करना चाहिए।

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