ऋषि दयानन्द के समाकालीन वैदिक धर्म प्रचारक अनुयायी महात्मा कालूराम जी

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arya-samaj-dayanand-saraswatiमनमोहन कुमार आर्य
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ऋषि दयानन्द की वैदिक विचार से प्रभावित होकर जिन प्रमुख लोगों ने वैदिक धर्म प्रचार को अपने जीवन का मिशन बनाया था उनमें से महात्मा कालूराम जी एक प्रमुख एक प्रसिद्ध महापुरुष हैं। महात्मा जी का बचपन का नाम धर्मचंद था। वह राजस्थान के शेखावटी के अन्तर्गत सीकर जिले के रामगढ़ नगर में ज्येष्ठ कृष्णा 6 संवत् 1893 विक्रमी (सन् 1837) को एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में पिता पं. कृष्ण दत्त त्रिपाठी जी के यहां जन्में थे। मां नौजी देवी ने दुलार में अपने पुत्र को कालूराम नाम दिया और यही नाम कालांतर में भी प्रचलित हुआ। आपकी शिक्षा दीक्षा नारनौल निवासी पं. गंगा सहाय जी ज्योतिषविद के सान्निध्य मे हुई जिनके सान्निध्य में रहकर अक्षराभ्यास एवं कुछ संस्कृत व्याकरण सहित आपके विद्या गुरु ने आपके संस्कारों व स्वभाव के अनुरुप आपमें अनेक चारित्रिक गुणों के विकास में सहायता की। इन गुरु जी से आपने गणित सहित मुड़िया लिपि का भी अभ्यास किया और बाद में अध्यापन कार्य किया। तत्कालीन प्रथा के अनुसार एक 10 वषीय कन्या से आपके माता पिता ने आपका बाल विवाह सम्पन्न कराया। महर्षि दयानन्द के विचारों का जब ज्ञान हुआ तो इस बाल्यकालीन विवाह का आपको जीवन पर प्श्चाताप रहा।

महात्मा कालूराम जी का स्वभाव धार्मिक गुणों दया, प्रेम, परोपकार, अहिंसा आदि से पूरित था और इनके और अधिक विकास के लिए एक पथ प्रदर्शक की आवश्यकता थी। सम्वत् 1912 (सन् 1856) में वह अपनी पत्नी एवं स्थानीय गणमान्य लोगों के साथ हरिद्वार कुम्भ मेले में आये और यहां साधु महात्माओं के सत्संगों में श्रद्धापूर्वक उपस्थित होते रहे। इस समय कालूराम जी की आयु मात्र 19 वर्ष थी जब कि प्रायः प्रत्येक साधारण नवयुवक के मन में वासना, काम, क्रोध, लोभ, मोह व सांसारिक पदार्थों में आसक्ति के विचार भरे होते हैं। महात्मा कालूराम ने हरिद्वार में उन्हें सुलभ सत्संगों एवं साधुओं से वार्तालाप कर ब्रह्मचर्य के महत्व को जाना और अपनी पत्नी को समझा कर दोनों ने आजीवन ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन निर्वाह करने की कठोर परन्तु पवित्र प्रतिज्ञा कर डाली। एक विवाहित पुरुष की अल्पायु में ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने की यह प्रतिज्ञा कालूराम जी को रामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुषों की श्रेणी में प्रतिष्ठित करती है।

हरिद्वार से स्वनगर रामगढ़ लौटते हुए इन्होंने रात्रि में रुड़की में विश्राम किया। वहां सोते हुए रात्रि लगभग 12.00 बजे स्वप्न में उन्होंने एक बालक को ओ३म् का जप करते देखा। स्वप्न को ईश्वरीय प्रेरणा समझ कर उन्होंने भावी जीवन में सांसारिक बंधनों से दूर रहकर अपने जीवन को प्रणवोपासना में बिता देने का संकल्प लिया। इसके 6 मास पश्चात फिर स्वप्न में विभूतिधारक चार बालक देखे। उन्होंने महात्मा जी को कहा कि उनका सांसारिक विपत्ति जाल से छूट कर परमानंद प्राप्त का मार्ग प्रशस्त हो चुका है। इस घटना के अनन्तर महात्मा कालूराम जी ने विभिन्न मत मतांतरों का अष्ध्ययन एवं इनके आचार्यों से शंका-समाधान, वार्तालाप वा शास्त्रार्थ किये और अनुभव किया कि सभी मतों में अज्ञान व अंधविश्वास भरे पड़े हैं। इनसे निवृत होने के लिए वे एक सच्चे गुरु की तलाश करने लगे जो उन्हें सत्यधर्म एवं ईश्वर का साक्षात्कार करा सके। जब उनमें यह विचार परिपक्व हुए तो एक दिन निद्रावस्था में स्वप्न में उन्होंने वैदिक धर्म के पुनरुद्धारक, वेदों के परम विद्वान, समाज सुधारक महर्षि दयानन्द सरस्वती को अपने सम्मुख पाया। महर्षि ने महात्मा कालूराम जी को योगाभ्यास व ओंकार उपासना की प्रेरणा कर कहा कि इससे उनका सर्वविध कल्याण और अभीष्ट की प्राप्ति होगी। इस स्वप्न के पश्चात महात्मा जी की आंख खुल गई और उन्होंने महर्षि दयानन्द को स्वप्न की घटना के आधार पर अपना गुरु स्वीकार किया। इसके पश्चात उन्होंने महर्षि दयानन्द के दर्शनों के प्रयत्न किये और उनके ग्रन्थ मंगाकर उनका अनुशीलन कर अपनी अधिकांश शंकाओं का समाधान प्राप्त किया।

सन् 1883 के आरम्भ में महात्मा कालूराम जी महर्षि दयानन्द के दर्शनार्थ शाहपुरा में अपनी शिष्य मण्डली सहित उपस्थित हुए और वहीं उनसे यज्ञोपवीत धारण कर धर्म दीक्षा प्राप्त की। भेंट की अवधि में स्वामी जी से अनेक गहन विषयों की चर्चा कर उनके समाधान एवं देश एवं समाज की तत्कालीन परिस्थितियों में अपने कर्तव्य का निश्चय किया। स्वामीजी ने उन्हें संन्ध्योपासना योगानुष्ठान का पालन करते हुए वैदिक धर्म एवं वेद वर्णित मनुष्य जाति के कर्तव्यों का सर्वत्र प्रचार करने की प्रेरणा भी की। कालूराम ने 31 मार्च 1881 को जयपुर में वैदिक धर्म सभा की स्थापना की थी। स्वामी दयानन्द जी से भेंट के बाद उन्होंने उनके निदेशानुसार वैदिक धर्म का प्रचार किया। जयपुर राज्य के न्याय मंत्री ठाकुर नंद किशोर सिंह, ठाकुर लक्ष्मण सिंह सेठ, गंगा प्रसाद जी आदि प्रमुख व्यक्तियों ने महात्मा कालूराम के प्रचार कार्य की व्यवस्था की। अपने इस प्रयास में उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल हेनरी अल्काट एवं मैडम बैलेवेटस्की से वार्तालाप किया और उनके द्वारा स्वर्ग से वस्तुएं मंगाये जाने के कार्यों का भोली जनता के सम्मुख प्रदर्शन का खण्डन कर इसे असंभव सिद्ध किया। कर्नल एवं मैडम महात्मा जी के तर्कों से निरुत्तर होकर चले गये। जयपुर में अपने प्रवचनों में उन्होंने अवैदिक मान्यताओं, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, गोहत्या, बाल विवाह आदि अनेक सामाजिक बुराईयों का खण्डन किया।

अप्रैल सन् 1897 में शेखावटी के फतहपुर में अपनी शिष्य मण्डली सहित आपने सघन प्रचार किया। वैदिक धर्म पर आपके दिए जाने वाले उपदेशों में नगर एवं समीपवर्ती ग्रामों के सभी वर्गों के लोग श्रद्धाभाव के साथ बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे। इसकी परिणति यहां आर्यसमाज की स्थापना से हुई। फतहपुर के पश्चात उन्होने रजियासर, दुआर, सुजानगढ़, बिसाऊ आदि अनेक स्थानों पर वैदिक धर्म का प्रचार किया। इन स्थानों के अतिरिक्त महात्मा जी ने सीकर, झुंझनू, चुरू और नागौर के अनेक क्षेत्रों में भी धर्म प्रचार किया। बड़ी संख्या में लोगों ने उनसे वैदिक धर्म की दीक्षा ली। मांसाहारी एवं मद्यपान करने वाले लोगों ने मांसाहार एवं मद्यमान के त्याग का संकल्प लिया। दूर-दूर से धर्म जिज्ञासु अपनी शंकायें दूर करने कालूराम जी के पास आते थे। आपके प्रयासों से राजस्थान में अनेक सामाजिक कुरीतियों के विरोध में वातावरण बना। इनकी पे्ररणा से ही राजस्थान में लगभग 30 स्थानों पर आर्य समाजों की स्थापना हुई। सन् 1898 में राजस्थान में आये दुर्भिक्ष (अकाल) में आपने पीड़ितों की सहायता में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 7 जून 1900 को उन्होंने ओ३म् का जप करते-करते नश्वर शरीर छोड़ दिया।

पं. कालूराम जी राजस्थान में वैदिक धर्म का प्रचार करते थे। महर्षि दयानन्द के जीवन काल में पं. कालूराम जी को वैदिक धर्म का प्रचार करते समय जब किसी घार्मिक विषय में कोई शंका होती थी तो वह स्वामी जी से पत्र व्यवहार कर उन शंकाओं का समाधान कर लेते थे। एक बार अपने पत्र में उन्होंने स्वामी जी से पूछा था कि क्या विधर्मियों को वैदिक धर्म में सम्मिलित किया जा सकता है। इसका उत्तर स्वामी दयानन्द जी ने हां में दिया था। उन दिनों पं. कालूराम जी के धर्म प्रचार के प्रभाव से अन्य मत के जो लोग वैदिक धर्म ग्रहण करते थे उन अविवाहित युवाओं से वैदिक धर्मी आर्य-हिन्दू विवाह आदि नहीं करते थे। इससे सम्बन्धित प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें कहा था कि जब तक आर्य-हिन्दू उन्हें अपनाते नहीं हैं तब तक धर्मान्तरित बन्धु अपने ही शुद्ध हुए बन्धुओं के परिवारों में विवाह कर लिया करें। उन्हें विश्वास था कि कुछ समय बाद हिन्दुओं में यह मिथ्या विश्वास बदल जायेगा और वह अपने धर्म में शुद्ध हुए बन्धुओं को अपनाने लगेंगे। स्वामी दयानन्द जी ने आपद् धर्म के रूप में उन्होंने व्यवस्था दी थी। वैदिक आर्य हिन्दुओं की इस दुर्बलता के कारण ही आर्यमत वृद्धि को प्राप्त होने के स्थान पर ह्रास को प्राप्त होता रहा है। ऐसे अनेक प्रश्न पं. कालूराम जी के पत्रों में स्वामी दयानन्द जी से पूछे जाते थे। योगी पं. कालूराम जी विषयक कुछ अन्य तथ्यों में यह उल्लेखनीय है कि वह राजस्थानी भाषा में भजन लिखते थे। आज भी उनके इन भजनों का इनके द्वारा किये प्रचार क्षेत्रों में प्रचार है। महात्मा जी के भजनों का एक संग्रह ‘भजनोदय’ शीर्षक से सन् 1925 में प्रकाशित हुआ था। आर्य विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी ने उनका एक लघु जीवनचरित ‘‘योगी का जीवनचरित” नाम से लिखा है जो कि अब अप्राप्य है।

योगीराज महात्मा कालूराम जी ने जिन सत्य मान्यताओं का प्रचार किया, उसके पीछे उनकी एकमात्र भावना देश एवं मनुष्य समाज के कल्याण की थी। उनके परोपकार एवं सेवाभावी जीवन सहित वैदिक धर्म की श्रेष्ठता का प्रभाव भी वेदेतर धर्मावलम्बियों बन्धुओं पर पड़ता था और वह वैदिक धर्म की शरण में आते थे। योगीराज कालूराम जी ने जिस वैदिक धर्म प्रचार मिशन को अपनाया था वह देश व समाजोत्थान का मिशन था। उनके कार्यों को जारी रखने का उत्तरदायित्व सभी देशवासियों सहित शेखावटी व राजस्थान के निवासियों का मुख्य रूप से है। आईये, उनके जीवन से प्रेरणा लेकर वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय का व्रत लें और वेद विहित सच्ची ईश्वर उपासना का प्रचार करने के साथ शोषण, अज्ञान, अन्याय एवं अभाव से मुक्त समाज बनाने की दिशा में अपना योगदान करें जिससे समाज से यह बुराईयां समाप्त हो सकें। यही ईश्वराज्ञा एवं वेदों का सन्देश भी है।

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