राष्ट्र निर्माण से जुड़े साधु समाज

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प्रमोद भार्गव

साधु समाज की रचनात्मकता से जुड़ी एक खबर सामने आर्इ है। गंगा नदी में प्रदूषण के खिलाफ जंतर मंतर पर द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती की अगुवार्इ में देश भर के साधु संतो ने एक दिनी आंदोलन- प्रदर्शन किया। यहां यह अचरज की बात है कि साधु समाज धरने पर बैठने से पहले राजघाट पहुंचा और वहां महात्मा गांधी की समाधि पर प्रार्थना की । हैरानी की बात यह भी कि देश के शंकराचार्य ने पहली बार जनहित के मसले पर धरना दिया। ये साधु इसलिए जुटे जिससे केंद्र सरकार की नींद खुले और पवित्र गंगा को प्रदूषण से मुक्ति मिले। अब यदि सरकार नहीं सुनती है तो तीन माह बाद यह साधु समाज फिर से जंतर मंतर पर एकत्रित होकर गंगा को बचाने के लिए शंखनाद करेगा। यहां साधु समाज से इस लेखक की अपील है कि यदि वे खुद गंगा के सफार्इ अभियान में जुट जाए तो उसे किसी सरकार के आगे गुहार लगाने की जरुरत नहीं है। देश का साधु समाज हमेशा राष्ट निर्माण की भलार्इ से जुड़ा रहा है।

शंकराचार्य ने साधु-संन्यासियों के सार्थक उपयोग के लिए ही चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी। इन मठों को ज्योतिर्मठ, श्रंगेरी मठ, गोवर्धन मठ और शारदा मठ के नामों से जाना जाता है। ये मठ धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के साथ सामाजिक कार्यों से भी जुड़े रहे है। इतिहास गवाह है आजादी की लड़ार्इ में अखाड़ों से जुड़े बाबाओं ने महारानी लक्ष्मीबार्इ, नाना साहब और तात्या टोपे के साथ अंग्रेजों से युद्ध भी लड़े थे। कुछ समय पहले ही महाराष्ट्र के भोर्इरपाड़ा शिरडी के सार्इ बाबा मंदिर न्यास और सुजलान कंपनी के सयुक्त प्रयासो के फलस्वरूप पवनचक्की परियोजनाओं से 14 लाख यूनिट बिजली का उत्पादन किया गया था। यह बिजली महाराष्ट्र बिजली बोर्ड को बेच भी दी गर्इ। न्यास ने 15 करोड़ का निवेश कर यह उपलबिध हासिल की। न्यास पवन चकिकयों की संख्या बढाकर लागत राशि 6 साल के भीतर निकाल लेने की भी उम्मीद रखता है। राष्ट्र निर्माण से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में किसी धार्मिक न्यास द्धारा की गर्इ यह एक महत्वपूर्ण पहल है।

मानव शक्ति के रूप में भारत के पास विशाल साधु समाज है। जिसे अब तक आतंरिक चेतना एवं अतीन्द्र्रीय शक्तियों के नियंत्रण का ही मुख्य कारक एवं प्रतीक माना जाता रहा है। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण संबंधी विकास कार्यों से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के हल में जुट जाएं तो राष्ट्र का बहुत भला हो सकता है। क्योंकि इस समाज के साथ अपार शारीरिक बल होने के साथ धार्मिक न्यासों की संपत्ती के रूप में अकूत आर्थिक बल भी है। हाल ही में दिवंगत जयगुरु देव बाबा के पास 1200 करोड़ की संपत्ति सार्वजनिक हुर्इ है। इसके पहले सत्य सांर्इ बाबा के पास भी अकूत दौलत के भण्डार मिले हैं। हालांकि सांर्इ न्यास करीब 500 ग्रामों को अपनी ओर से पेयजल उपलब्ध कराता है और हजारों लोगों को शिक्षा व स्वास्थ्य की मुफ्त सेवा भी करता है।

भ्रष्टाचार के चलते भारत का संस्थागत एवं प्रशासनिक ढ़ांचा गड़बड़ा गया है। केन्द्र सौ पैसे भेजता है तो सार्थक उपयोग केवल 15 पैसे का ही हो पाता है। इसलिए नौकरशाही की कार्य प्रणाली और र्इमानदारी पर सवाल उठते रहते है। ऐसे में मानवीय पक्षों को उभारते हुए धार्मिक ट्रस्ट और उनका संरक्षक साधु समाज विकास कार्यों से जुड़कर राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में कारगर हथियार साबित हो सकता है। क्योंकि हताशा से भरी इस दुनिया में धर्म ही ऐसा इकलौता क्षेत्र है, जिसमें निर्विवाद रूप से उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है। भारत के मंदिरो, गुरूद्वारों, मसिजदों और गिरिजाघरों में भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ रही है और भक्त सामथ्र्य से ज्यादा दिल खोलकर दान भी दे रहे है। भारत के हर परिर्वतनकारी युग में मठ, मंदिरों और साधुओं ने सास्ंकृतिक चेतना का नवजागरण कर राष्ट्र निर्माण को नया मोड़ देते हुए समय समय पर उदात्त भावनाओं और मंगलकारी सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया है। जिससे धर्म दीर्धकालीक सत्ताधारियों के राजनीतिक लाभ का हितपोषक न बना रहे। यही कारण है कि विश्वमित्र चाणक्य, महावीर, बुद्ध, जगतगुरू शंकरचार्य, गुरूनानक देव, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी दयानंद सरस्वाती, महार्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद और ज्योतिबा फुले जैसे राष्टप्रेमी गृहत्यागियों स्वप्न दृषिटाओं ने इस देश को आततायी विदेशी अतिक्रमणकारियों से लड़ने की शक्ति देने के साथ अज्ञान, भूख, अराजकता और आसमान समाजिक ढ़ांचे से जूझने की भी चुनौती व प्रेरणा आम जनमानस को दी। मध्ययुग के अंधकार से भारतीय जनमानस को कबीर, तुलसी, सूर, रैदास, दादू, मालूकदास और नानकदेव जैसे संत कवियों ने ही उबारकर नवयुग के निर्माण की आधारशीला रखी थी।

स्वतन्त्रता पूर्व भारत में करीब 60 लाख साधु थे लेकिन वर्तमान में इनकी संख्या बढ़कर एक करोड़ के उपर पहुंच गर्इ है। हालांकि साधु समाज की इस गण्ना में रोगी, भिखारी, बाजीगार, सपेरे, नट, मदारी, लावारिस और अपाहिज भी शुमार हैं। इनकी संख्या 80 प्रतिशत है। पहुंचा हुआ साधु इन्हें साधु नहीं मानता। ऐसे ही साधुओं की बदौलत घर्म और नैतिकता का मूलमंत्र खंडित हो रहा है। ये साधु ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से पैठ बनाकर ग्रामीणों को गांजा, भांग, बीड़ी, सिगरेट जैसे व्यसनों का आदि बना लेते है। यही साधु वेषधारी हत्या, बलात्कार, ठगी और अपहरण जैसे गंभीर मामलों के अरोपी निकालते हैं। दरअसल इन साधुओं को जब अनपेक्षित मान सम्मान मिलने लगता है तो यह बौरा जाते हैं। नतीजतन ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने और भौतिक सुविधायें जुटाने में लग जाते हंै। ऐसे साधुओं की जहां जनता द्वारा उपेक्षा की जाने की जरूरत है, वहीं साधु समाज इन्हें शिक्षित कर समाज के लिए हितकारी साधु भी बना सकता है। जिससे ये साधु समाज को मध निषेध एवं सदाचारी के संस्कार तो दे हीं अन्ना हजारे के रालेगांव की तर्ज पर ग्रामीण स्तर पर साक्षरता, पर्यावरण संरक्षण, जल संग्रह, मवेशी पालन व गोबर गैस संयंत्रो से बिजली उत्पादन के कार्यों की संपन्नता के लिए सहकार की सामुदायिक भावना भी पैदा करें। यदि ऐसा होता है तो ग्रामों में जातीय विद्धेष कम होगा और स्थानीय स्तर पर रोजगार की उपलब्धता के चलते शहरों की और युवा वर्ग का पलायन भी बाधित होगा।

हालांकि साधु जीवन पर अब रमता जोगी, बहता पानी की कहावत पूरी चरीतार्थ नहीं हो रही है। मोक्ष के प्रचारक ये साधु भौतिकवाद के शिकार होकर वैभव व प्रदर्शन की प्रवृतितयों के आदि भी हो रहे है। मोह माया भौतिक सुखों और कारों का काफिला इनके र्इदगिर्द मंडरा रहा है। सूचना तकनीक के चलते तमाम साधुओं का भू- मण्डलीयकरण तो हुआ ही, बाजारवाद की गिरफत में भी ये आ गए। लिहाजा धर्म अरबों – खरबों के उधोग में परिवार्तित हो गया। देखते-देखते बीते दो दर्शेको के भीतर हरिद्धार,ऋषिकेश,आयोघ्या,उज्जैन,शिरडी,त्रयंबकेशवर,जैसे धार्मिंक नगरों में साधु संतो की धास फूस की झोपडि़यों आलाशीन अटट्रालिकाओं में तबदील हो गर्इ। इसी कारण साधु समाज पर सवाल उठाये जाने लगे कि मोह माया और भौतिक सुखों से उपर उठने का दावा करने वाले जो सिद्ध पुरूष स्वंय भोग विलास में संलग्न हो गए हैं, वे अध्यात्म का उपदेश देकर क्या समाज को भौतिकवादी बुरार्इयों से उबार पाएंगे ?

साधु का प्रमुख गुण समषिटगत होता हैं। इसलिए वह धर्म का प्रतिनिधि है। साधु के सदाचरण, संयमी, अंसचयी और सातिवक होने का प्रभाव जितना समाज पर पड़ता है, उतना जनबल तथा धनबल का नहीं पड़ता है। इसलिए इन दिव्य पुरूषों के एक इशारे पर लोग करोड़ाें लुटा देते हैं। यही कारण है कि अपेक्षाकृत कम प्रसिद्धि पाए साधु अथवा मठ मंदिर के पास भी करोड़ों – अरबों की नकद और अचल परिसंपतितयां हैं। जिन साधुओं का कोर्इ उत्तराधिकारी नहीं है, उनका डाकघरों व बैंकों में लाखों – करोड़ों जमा हैं। ऐसे में इन साधुओं के आत्मलीन होने के बाद यह धन लावारिस धोषित कर दिया जाता है। आखिर इस धन को साधु समाज के सुपुर्द कर स्थानीय विकास कार्यों में क्यों नही लगाया जा रहा है ? इस तरह की मांग आयोध्या के राजनीतिक कार्यकता और बुद्धिजीवी कर्इ मर्तबा उठा भी चुके हैं। इनका दावा है कि अयोध्या के बैंक व डाकधरों में बाबाओं का इतना लावारिस धन जमा है कि यदि इसे निकालकर विकास कार्यों में र्इमानदारी से लगाया जाए तो अयोघ्या का कायाकल्प हो जाएगा।

साधु समाज भारतीय वेद,उपनिषद और पुरण इतिहास के पुनर्लेखन एवं तार्किक व्याख्या लेखन के सिलसिले में भी उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं। क्योंकि हमारे प्राचीन साहित्य को धार्मिक पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास का प्रचारक मानकर खिल्ली उड़ार्इ जा रही है। यहां तक कि राम और कृष्ण जैसे विराट व्यकितत्व वाले राष्ट्र नायकों तक को पुरातत्व जैसा जिम्मेदार विभाग मिथक कहकर विवाद का विषय बना देता है। केवल बाहरी लोगों के द्वारा हमारी संस्कृित को आध्यातिमक और पा्रचीन संस्कृत साहित्य को कपोल कल्पना करार को हमारे प्रगतिशील बुद्धिजीवी इतिहासकारों ने कृतज्ञ भाव से स्वीकार लिया और हम इसी पंरपरा के वाहक बन गए। जबकि वास्तविकता यह है कि हमारे पौराणिक आख्यनों में प्रणय प्रसंगो की भरमार है। राजनीति, दण्डनीति, अर्थनीति जल और शिक्षा प्रबंधन की सरंचना के सूत्र व सिद्धांत उनमें हैं। युद्धशास्त्र, विमानशास्त्र, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद और कामशास्त्र विषयक हमारी प्राचीन उपलबिधयां चमकृत करने वाली हैं। भाषा व्याकरण और योग के क्षेत्रों में हम अनुपम हैं। जरूरत है, इनके गूढ़ सूत्रो के रहस्य को खोलकर मानव उपयोगी बनाना ? इस संदर्भ में हम बाबा रामदेव से उत्प्रेरित हो सकते हैं। जिन्होंने पातंजली योग सूत्र के रहस्यों को लाइलाज बीमारियों से मुक्ति का साध्य बनाकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को ही चुनौती दे डाली। दरअसल हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों के यथार्थ को ठीक से समझने की आवशयकता है। लेकिन इस संदर्भ में पूर्वगृह व दुरागृह सांस्कृतिक अराजकता पैदा करने के कारण बन रहे है।

बहरहाल साधु समाज अपने जनबल और अर्थबल से बुनियादी समस्याओं के निदान में शिरडी के सांर्इबाबा न्यास की तरह जुट जाए तो उसका समाज के लिए रचनात्मक कि्रयान्वयन से जो वातावरण निर्माण होगा तो जो युवा – शक्ति र्इमानदारी से काम करने की इच्छा रखती है, उसका राष्ट्र को अद्वितिय व अपेक्षित योगदान मिलने लग जाएगा ? लाल फीताशही के चलते जो प्रतिभाएं तालमेल न बिठा पाने के कारण पलायन कर दुसरे देशों में अपनी मेधा का परचम फहरा रही हैं, उनकी पलायनवादी प्रवृत्ती पर भी अंकुश लगेगा। युवा और साधु समाज की संयुक्त ताकत पानी, विधुत, शिक्षा, स्वास्थ, सड़क निर्माण जैसे क्षेत्रों की दशा और दिशा बदल सकता है। वहीं साधुओं की विशाल संख्या के रूप में जो इस समाज के पास मनुज शक्ति है, वह जहां है वहीं रहकर नदी और तालाबों का कायाकल्प कर जल स्त्रोतो के अक्षय भण्डारों का पुनरूद्धार कर सकते हैं। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण में जुट जाती है तो इनसे प्रभावित आम जानमानस भी स्वप्रेरणा से इनका अनुयायी हो जाऐगा। क्योंकि साधु समाज से कल्पना की जा सकती है कि वह भ्रष्टाचार और पक्षपात की दुर्भावना से मुक्त रहेगा। लिहाजा देश का शंकराचार्यों को चाहिए कि वे सरकारी की ओर मुहं ताकने की बजाए खुद नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जुट जाए।

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  1. सुझाव अच्छा है लेकिन व्यावहारिक नहीं.क्योंकि गंगा और अन्य बड़ी नदियों को प्रदुषण मुक्त करने के लिए केवल आर्थिक संसाधनों की ही नहीं बल्कि प्रशासनिक और विधिक अधिकारों की भी आवश्यकता है. नदियों में मिलने वाले नालों का मुंह मोड़कर उन्हें गन्दगी सहित नदियों में गिरने से रोकने के लिए प्रशासनिक और तकनिकी कार्य करने होंगे जिनके लिए कानूनी अधिकार भी चाहिए. अतः साधुओं और जनता का सहयोग हो लेकिन उसके साथ प्रशासनिक सहयोग और कानून का संरक्षण भी चाहिए.

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