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सखी वे हैं भी या कि हैं ही नहीं - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
सखी वे हैं भी या कि हैं ही नहीं, हुआ अहसास नहीं उम्र गई; कबहुँ बौराई कबहुँ भायी रही, जगत की माया समझ पाई नहीं ! सहज गति आई नहीं धायी रही, मग़ज मैं मारी रही बूझी नहीं; कर्म बहुतेरे करी धर्म बही, तबहु मैं तरी कहाँ मर्म गही !…