‘साजिश के तहत सम्मान वापसी का सिलसिला’

sahityaपश्चिम के किनारों पर बैठ कर जो लोग अपने ही मुल्क की ईबारत लिखने की कोशिशों में जुटे हैं, वे एक दिन इस राष्ट्र का सर्वनाश कर बैठेंगे। वैसे अब कोई कसर तो बची नहीं, वाममार्गियों ने भारतीय इतिहास के साथ जो तोड़फोड़ की है उसका आभार। उनके हिसाब से भारतीय स्वात़ंत्र्य समर 1857 महज मिथ्या वर्णन पर आधारित है और रूस की क्रांति उनकी असली मिल्कियत। भारत में जब हर कोई आजादी के प्रयासों में जुटा था तब ये कुछ लोग कैसे इसे छिन्न—भिन्न किया जाए इस शोध में जुटे थे। अंग्रेजों के लिए क्रांतिकारियों की गुप्तचरी करना और कांग्रेस के खिलाफ अंग्रेजों के मन में शंका उत्पन्न करने जैसे कार्यों को इन लाल पथ के अनुगामियों ने अपना मुख्य कार्य निश्चित किया हुआ था। आज भी कौनसा इन्होंने पथ परिवर्तन कर लिया है, ये आज भी भारतीय संस्कारों को ठेठ गंवारूपन कहते हैं। फिलहाल इन लोगों ने इन दिनों बीफ मैटर और सम्मान वापसी पर अपना पूरा ध्यान लगाया हुआ है। लॉबी जुटाई जा रही है कैसे पिछले 60 साल का कर्जा जो कांग्रेस ने इनके माथे पर मढा है उसे खत्म किया जाए। तो बस मौका आ गया, बिहार में चुनाव है कांग्रेसी की हालत हद से ज्यादा बुरी है, फिर देश की राजनीति में घुला पाश्चात्य संस्कृति का जहर जिसमें गौ मांस खाना प्रगति​शीलता और उसे गौ माता मानकर पूजना गंवारू संस्कृति। तो फिर होना क्या था… हो गया शुरू एक ‘साजिश के तहत सम्मान वापसी का सिलसिला’….!

ये जो आजकल दिल्ली के जेएनयू में क्रांति के झंडाबरदार बने फिर रहे हैं, ये स्वतंत्रता से पूर्व भी देश में विप्लव लाने के लिए क्रांति की ऐसी ही अनोखी योजनाएं बनाया करते थे और आज भी कुछ ऐसा ही करते नजर आते हैं। अब आज की ता​रीख में बीफ मैटर को देख लो, गौतम बुद्ध के देश में जहां मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है की मान्यता रखने वाले लोगों के मन में गौ हत्या को बढावा देने वालों का संरक्षण देकर उसकी रक्षा करने वालों के विचार को अयुक्तिसंगत बताने की पूरी—पूरी कोशिश की जा रही है। दूसरी ओर पहले लेखकों ने सम्मान लौटाया, फिर कलाकारों ने और अब इतिहासकार भी इस श्रेणी में आकर खडें होते नजर आ रहे हैं। आखिर यूं इस तरह सम्मान लौटाने से इन्हें हासिल क्या हो जाएगा। प्रख्यात वाममार्गी साहित्यकार एमएम कलबुर्गी की किन्हीं लोगों द्वारा हत्या किए जाने के 6 माह बाद सम्मान वापसी का ये सिलसिला शुरू हुआ है। ये 6 माह उस दौरान भी विशेष प्रतीत होता है जब दादरी जैसे अमानवीय कांड में किसी अल्पसंख्यक की किन्हीं बहुसंख्यक लोगों के समुह ने हत्या की हो, इसके गर्त में क्या है। क्या ये लोग ऐसे ही किसी कांड के इंतेजार में थे, जबकी वहां के स्थानिय बहुसंख्यक लोग ही उस पीड़ित परिवार के हिमायती बने। पर वह सब इस योजनापूर्वक किए गए सडयंत्र में सब गौण हो गया। क्या ये साजिशकर्ता ऐसे ही​ किसी कार्यवाही की तलाश या इंतेजार में थे। दादरी कांड गौ हत्या से संबंध रखता है और गौ हत्या—बीफ जैसे मुद्दे पिछले काफी दिनों से चर्चा का विषय बने हुए ​थे। इन सबके पीछे पश्चिम के किनारों पर बैठ कर पूर्व की ओर मुख करके पाश्चात्य वंदन करने वालों का हाथ है।

सोशल मीडिया पर ऐसी चर्चाओं में दिनोंदिन वृद्धि होती जा रही है जिनमें साहित्यकारों, इतिहासकारों द्वारा लौटाए जा रहे सम्मान वापसी की आलोचनाएं होती हों। ऐसा नहीं कि आलोचनाएं ठाले बैठे फेसबुकिए कर रहें हो इन लोगों में कई नामचीन ​हस्तियों के साथ साहित्य जगत के हस्ताक्षर भी शामिल हैं। बॉलीवुड फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल, अभिनेत्री विद्या बालन, अनुपम खैर, ​प्रसिद्ध कवि गोपाल दास ‘​नीरज’, बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन जैसे लोग शामिल हैं। हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लेखकों और कुछ प्रमुख व्यक्तियों को मिले पद्म एवं साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटाने के कारण इसे राजनीतिक षड्यंत्र बताया और इस बात पर आश्चर्य जताया कि वे तब क्या कर रहे थे, जब कांग्रेस के शासन में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। बीते दिन से ही एक सिख युवक ने भी कांग्रेस के शासन काल में हुए सिख दंगों की याद दिलाते हुए साहित्य सम्मान और पद्म पुरस्कार लौटाने वालों से पूछा कि आप सब लोग उन दिनों कहां थे जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी का बयान आया था कि जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। अब लगभग हर किसी की प्रोफाइल पिक्चर में उस जैसे स्लोगन अभियान की भांति चल पडे हैं।

शोध का विषय यह है कि आखिर इसके मूल में दादरी में हुए एक अखलाक की हत्या है या ख्यातनाम साहित्यकार एमएम कलबुर्गी की हत्या अथवा सेक्युलर प्रोपगेंडा। इसे जानना है तो काफी दूर नहीं बस बीती कुछ घटनाओं का स्मरण करना जरूरी हो जाता है। 2014 की मई में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी पहली बार गैर कांग्रेसी केंद्र सरकार। यह सबसे बड़ी वजह है वामपंथी बुद्धिजीवियों के पेट में दर्द करने के लिए। उस पर भी कई तरह के प्रतिबंध जिससे मीडिया तंत्र की स्पेशल डाइट चार्ट प्रभावित हुई हो। क्यों आपातकाल के दौरान किसी भी साहित्यकार ने अपना सम्मान नहीं लौटाया, क्या वे इसे विचारों की स्वतंत्रता के लिए खतरा नहीं समझते थे। रातों—रात ‘प्रेस’ पर ताले जड़ दिए जाते थे। विचारक, विपक्ष और विद्रोही को सीधे—सीधे बंदी बनाकर भीषण से भीषणतम यातनाएं दी जाती थी। तस्लीमा नसरीन को भारतीय मुस्लिम कट्टर​पंथियों द्वारा मारने की धमकी देना हो, या फिर भारतीय मूल के लेखक सलमान रूश्दी का जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल में आने पर हंगामा करने की धमकी देना हो, क्या ये विचारों की स्वतंत्रता हनन करने की सीमाओं से बाहर कर दिए गए हैं। हजारों की संख्या में ऐसी कई कारगुजारियां हैं जो लिखने बैठूं तो पूरा दिन लग जाएगा। इन सब के दौरान तो किसी को विचारों को गुलाम बनाना, स्वतंत्रता का हनन करने जैसा नहीं लगा। इन सबके मूल में है हमारी दासता का अंत न होना, वास्तविकता ये है कि हम भले ही अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र हो गए हों, पर हैं हम आज भी परतंत्र। विदेशी मानसिकता के गुलाम, जिसमें गाय को मां मानने पर हम ठेठ गंवार हो जाते हैं। हम भारतीय प्रारंभ से ही सहिष्णु रहें हैं बस कभी कहा नहीं और जबसे कहने लगे हैं तब से सारी गड़बड़ शुरू हुई। उदाहरण गांधी जी ने जितना भी हिंदू—मुस्लिम भाई—भाई का नारा लगाया, उतना ही मौहम्मद अली जिन्ना अपनी मांगों पर जोर देते रहे और उसका परिणाम हुआ पाकिस्तान का जन्म साथ ही कश्मीर स्वर्ग के स्थान पर हमारे लिए नासूर बन गया। आप क्या सोचते हैं उन दिनों नहीं था बीफ खाने का चलन, था न! फिर ये हंगामा क्यों? क्योंकि इस बार वामपंथियों, अराष्ट्रियों और कांग्रेसियों की आंखों में शूल की भांति चुभ रही है पूर्ण बहुमत के साथ बनी यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार। उस पर प्रधान सेवक के काम करने का तरीका ‘पेट में दर्द’ होना तो जायज है। और यही है सम्मान वापसी का मुख्य कारण भी।
दीपक शर्मा “आज़ाद”

3 COMMENTS

  1. मेरे दूध मुँहे लेखक यह इतना सरल नहीं है,जितना आपने दर्शाया है.अगर आप आर.एस.एस से जुड़े हुए हैं,तो आप को समझाना व्यर्थ है,क्योंकि इस वातारण से जिनको लाभ होना है,आप उसमे से एक हैं.एक बात आपको साफ़ साफ़ बता दूँ.इसके विरोध में अवार्ड लौटाने वाले सब कम्युनिष्ट नहीं हैं और न उनको समर्थन देने वाले.वेलोग सच्चे देश भक्त हैं, वे विक्षुव्ध हैं, क्योंकि वे देश पर इस वातावरण का घातक परिणाम देख रहे हैं.

    • आर आर सिँह जी, इस दूध मुँहे लेखक के आगे आपका जीवन भर का अनुभव व्यर्थ दिखाई दे रहा है। मीडिया कितना ही जहर फैला दे लेकिन उसके अपने ही सभी online survays में लोग सच्चाई बयाँ कर रहे हैं। वामपंथी बुद्धिजीवी जिनकी निष्ठा और प्रेरणा के केन्द्र चीन अथवा वेटिकन में है अब हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।

      • कितने लोगों को आपलोग ब्रैंडेड कीजियेगा?वह भी उस समय जब केंद्र सरकार को भी धीरे धीरे समझ में आ रहा है कि जो भी वह गलत हुआ.जो घटनाएं हुई,वैसी पहले नहीं हुई हों,ऐसा नहीं है, पर सरकारने इन घटनाओं कि प्रति जो रूख अपनाया वैसा पहले नहीं हुआ था.यही फर्क इस वातावरण को एक भयावह रूप दे रहा है और उसको न रूस या चीन से कुछ लेना देना है और न ईरान या पाकिस्तान से आपलोग इस बात को बिना समझे अपनी डफ्फली अपना राग अलापे जा रहे हैं
        .अब जब यह बात केंद्र सरकार की समझ में आ गयी है,तो देर सबेर आपलोग भी समझ ही जाएंगे.

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