समाज के सच्चे पथ प्रदर्शक सन्त रविदास

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7 फरवरी/ जयंती विशेष

राजेश कश्यप

हमारे भारत देश की पावन भूमि पर अनेक साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और दैवीय अवतारों ने जन्म लिया है और अपने अलौकिक ज्ञान से समाज को अज्ञान, अधर्म एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई स्वर्णिम आभा प्रदान की है। चौदहवीं सदी के दौरान देश में जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य स्थापित हो गया था। हिन्दी साहित्यिक जगत में इस समय को मध्यकाल कहा जाता है। मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया। भक्तिकाल में कई बहुत बड़े सन्त एवं भक्त पैदा हुए, जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराईयों के खिलाफ न केवल बिगुल बजाया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। इन सन्तों में से एक थे, सन्त कुलभूषण रविदास, जिन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता है।

सन्त रविदास का जन्म सन् 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन काशी के निकट माण्डूर नामक गाँव में एक चर्मकार परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) था। सन्त कबीर उनके गुरू भाई थे, जिनके गुरू का नाम रामानंद था। सन्त रविदास बचपन से ही दयालू एवं परोपकारी प्रवृति के थे। उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े के जूते बनाना था। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने पैतृक व्यवसाय अथवा जाति को तुच्छ अथवा दूसरों से छोटा नहीं समझा। वे अपने व्यवसाय एवं जाति से बेहद लगाव रखते थे और सम्मान करते थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में भी अपनी जाति का उल्लेख इस प्रकार गौरवमयी अन्दाज में किया है:

ऐसी मेरी जाति भिख्यात चमारं।

हिरदै राम गौब्यंद गुन सारं।।

सन्त रविदास पूरी मेहनत एवं निष्ठा के साथ जूते बनाते और समय मिलते ही प्रभु-भक्ति में तल्लीन हो जाते। इसके साथ ही जब मौका मिलता तो सन्तों का सत्संग भी जरूर करते। अपनी दयालूता एवं परोपकारिता की प्रवृति के कारण वे गरीबों व असहायों को बिना पैसे लिए मुफ्त में ही जूते दे देते थे। इससे उनके माता-पिता बहुत क्रोधित होते थे और रविदास को खूब बुरा-भला कहते थे। लेकिन इसके बावजूद रविदास अपनी इस प्रवृति का त्याग नहीं कर पाते थे। अंत में उन्हें माता-पिता ने खिन्न होकर अलग कर दिया। तब सन्त रविदास ने पड़ौस में ही एक झोंपड़ी डाली और अपनी पत्नी लोना के साथ रहने लगे और चर्मकार का काम बराबर करते रहे। उनकी भक्ति-साधना भी निरन्तर जारी थी। सन्त रविदास परमात्मा के सच्चे भक्त, समाज सुधारक, दार्शनिक तथा सच्चे एवं उच्च कोटि के भक्त कवि थे।

सन्त रविदास अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे। वे बाहरी आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। एक बार उनके पड़ौसी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो उन्होंने सन्त रविदास को भी गंगा-स्नान के लिए चलने के लिए कहा। इसपर सन्त रविदास ने कहा कि मैं आपके साथ गंगा-स्नान के लिए जरूर चलता लेकिन मैंने आज शाम तक किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है। अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा-स्नान के लिए चलूंगा तो मेरा वचन तो झूठा होगा ही, साथ ही मेरा मन जूते बनाकर देने वाले वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा-स्नान करने का क्या मतलब। इसके बाद सन्त रविदास ने कहा कि यदि हमारा मन सच्चा है तो इस कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरा मिट्टी का बर्तन) में भी गंगा होगी अर्थात् ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। कहते हैं कि पड़ौसी ने जब इस बात का मजाक उड़ाया तो सन्त रविदास ने अपने प्रभु का स्मरण किया और चमड़ा भिगोने वाले पानी के बर्तन को छुआ और पड़ौसी को उसमें झांकने को कहा। जब पड़ौसी ने उस कठौती में झांका तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं, क्योंकि उसे कठौती में साक्षात् गंगा प्रवाहित होती दिखाई दे रही थी। उसने सन्त रविदास के चरण पकड़ लिए और उसका शिष्य बन गया। धीरे-धीरे सन्त रविदास की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और उनके भक्ति के भजन व ज्ञान की महिमा सुनने लोग जूटने लगे और उन्हें अपना आदर्श एवं गुरू मानने लगे।

सन्त रविदास समाज में फैली जाति-पाति, छुआछूत, धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण विशेष जैसी भयंकर बुराईयों से बेहद दुःखी थे। समाज से इन बुराईयों को जड़ से समाप्त करने के लिए सन्त रविदास ने अनेक मधुर व भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। सन्त रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।

सन्त रविदास के अलौकिक ज्ञान ने लोगों को खूब प्रभावित किया, जिससे समाज में एक नई जागृति पैदा होने लगी। सन्त रविदास कहते थे कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सभी नाम परमेश्वर के ही हैं और वेद, कुरान, पुरान आदि सभी एक ही परमेश्वर का गुणगान करते हैं।

कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, सब लग एकन देखा।

वेद कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

सन्त रविदास का अटूट विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परोपकार तथा सद्व्यवहार का पालन करना अति आवश्यक है। अभिमान त्यागकर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करके ही मनुष्य ईश्वर की सच्ची भक्ति कर सकता है। सन्त रविदास ने अपनी एक अनूठी रचना में इसी तरह के ज्ञान का बखान करते हुए लिखा है:

कह रैदास तेरी भगति दूरी है, भाग बड़े सो पावै।

तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।

अर्थात् ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है। जैसे कि विशासलकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्यागकर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।

एक ऐतिहासिक उल्लेख के अनुसार, चित्तौड़ की कुलवधू राजरानी मीरा, रविदास के दर्शन की अभिलाषा लेकर काशी आई थीं। सबसे पहले उन्होंने रविदास को अपनी भक्तमंडली के साथ चौक में देखा। मीरा ने रविदास से श्रद्धापूर्ण आग्रह किया कि वे कुछ समय चित्तौड़ में भी बिताएं। संत रविदास मीरा के आग्रह को ठुकरा नहीं पाए। वे चित्तौड़ में कुछ समय तक रहे और अपनी ज्ञानपूर्ण वाणी से वहां के निवासियों को भी अनुग्रहीत किया। सन्त रविदास की भक्तिमयी व रसीली रचनाओं से बेहद प्रभावित हुईं और वो उनकीं शिष्या बन गईं। इसका उल्लेख इस पद में इस तरह से है:

वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।

सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।

संत रविदास मानते थे कि हर प्राणी में ईश्वर का वास है। इसलिए वे कहते थे:

सब में हरि है, हरि में सब है, हरि आप ने जिन जाना।

अपनी आप शाखि नहीं दूजो जानन हार सयाना।।

इसी पद में सन्त रविदास ने कहा है:

मन चिर होई तो कोउ न सूझै जानै जीवनहारा। 

कह रैदास विमल विवेक सुख सहज स्वरूप संभारा।

सन्त रविदास जी कहते थे कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान् नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान् बनाती है।

जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पात।

रैदास मनुष्य ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।।

सन्त रविदास ने मथुरा, प्रयाग, वृन्दावन व हरिद्वार आदि धार्मिक एवं पवित्र स्थानों की यात्राएं कीं। उन्होंने लोगों से सच्ची भक्ति करने का सन्देश दिया। सच्ची भक्ति का उल्लेख करता उनका यह भजन बेहद लोकप्रिय हुआ:

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।

जाकी अंग अंग वास समानी।।

प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा।

जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।

जाकी जोति बरै दिन राती।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

जैसे सोनहि मिलत सुहागा।।

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा।

ऐसी भक्ति करै रैदासा।। 

सन्त रविदास ने मनुष्य की मूर्खता पर व्यंग्य कसते हुए कहा कि वह नश्वर और तुच्छ हीरे को पाने की आशा करता है। लेकिन जो हरि हरि का सच्चा सौदा है, उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता है।

हरि सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सत आषै रविदास।।

कुलभूषण रविदास ने सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए भी समाज में जागृति पैदा की। उन्होंने कहा:

रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।

तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।

हिन्दु तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।

दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

सन्त रविदास ने इसी सन्दर्भ में ही कहा है:

मुसलमान सो दास्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत।

रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।।

सन्त रविदास ने लोगों को समझाया कि तीर्थों की यात्रा किए बिना भी हम अपने हृदय में सच्चे ईश्वर को उतार सकते हैं।

का मथुरा का द्वारिका का काशी हरिद्वार।

रैदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार।।

सन्त रविदास ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उन्होंने कहा:

रैदास एक बूंद सो सब ही भयो वित्थार। 

मूरखि है जो करति है, वरन अवरन विचार।।

सन्त रविदास ने समाज में व्याप्त पाखण्डों पर भी डटकर कटाक्ष किए।

थोथा पंडित, थोथी बानी, थोथी हरि बिन सवै कहानी।

थोथा मंदिर भोग विलासा, थोथी आन देव की आसा।।

थोथा सुमिरन नाम बिसाना, मन वच कर्म कहे रैदासा।

सन्त रविदास अपने उपदेशों में कहा कि मनुष्य को साधुओं का सम्मान करना चाहिए, उनका कभी भी निन्दा अथवा अपमान नहीं करना चाहिए। वरना उसे नरक भोगना पड़ेगा। वे कहते हैं:

साध का निंदकु कैसे तरै।

सर पर जानहु नरक ही परै।।

सन्त रविदास ने जाति-पाति और वर्ण व्यवस्था को व्यर्थ करार दिया और कहा कि व्यक्ति जन्म के कारण ऊँच या नीच नहीं होता। सन्त ने कहा कि व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊँच या नीच होता है।

रैदास जन्म के कारणों, होत न कोई नीच।

नर को नीच करि डारि है, ओहे कर्म की कीच।।

इस प्रकार कुलभूषण रविदास ने समाज को हर बुराई, कुरीति, पाखण्ड एवं अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया और असंख्य मधुर भक्तिमयी कालजयी रचनाएं रचीं। उनकीं भक्ति, तप, साधना व सच्चे ज्ञान ने समाज को एक नई दिशा दी और उनके आदर्शों एवं शिक्षाओं का मानने वालों का बहुत बड़ा वर्ग खड़ा हो गया, जोकि ‘रविदासी’ कहलाते हैं। सन्त रविदास की महिमा का बखान करना, सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, अर्थात् उनकीं जितना गुणगान किया जाए, उतना ही कम है।

सन्त रविदास द्वारा रचित ‘रविदास के पद’, ‘नारद भक्ति सूत्र’, ‘रविदास की बानी’आदि संग्रह भक्तिकाल की अनमोल कृतियांे में गिनी जाती हैं। स्वामी रामानंद के ग्रन्थ के आधार पर संत रविदास का जीवनकाल संवत् 1471 से 1597 है। उन्होंने यह 126 वर्ष का दीर्घकालीन जीवन अपनी अटूट योग और साधना के बल पर जीया।

सन्त रविदास के पद और बानी आज भी उतनी ही कारगर और महत्वपूर्ण हैं, जितनी की चौदहवीं सदी में थीं। यदि मानव को सच्चे ईश्वर की प्राप्ति चाहिए तो उसे कुलभूषण सन्त रविदास के बताए मार्ग पर चलते हुए उनकी शिक्षाओं एवं ज्ञान को अपने जीवन में धारण करना ही होगा। महान् सन्त रविदास के चरणों में सहस्त्रों बार साष्टांग नमन।।

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