संवत्सरी आत्मोत्थान का महान पर्व है

michhami-dukkadamआचार्य डाॅ. लोकेशमुनि-

जैन धर्म में संवत्सरी महापर्व का अत्यधिक विशिष्ट महत्व है। वर्ष भर में अपने द्वारा जान अनजाने हुई समस्त भूलों के लिए प्रायश्चित करना तथा दूसरों के प्रति हुए अशिष्ट व्यवहार के लिए अंतःकरण से अत्यन्त सरल, ऋजु व पवित्र बनकर क्षमा माँगना व दूसरों को प्रदान करना इस महान पर्व का हार्द है।
भगवान महावीर ने कहा ‘क्षमा वीरों का आभूषण है’- महान व्यक्ति ही क्षमा ले व दे सकते हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर भी कहते है- ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन,विषहीन विनीत सरल हो’ सामर्थ्य होने के बावजूद किसी को नुकसान नहीं पहुँचाना व भूलों के लिए क्षमा करना ही महानता है।
संवत्सरी शुद्ध रूप से आध्यात्मिक पर्व है। यह आत्म-चिंतन आत्म-निरीक्षण, आत्म-मंथन व आत्म शोधन का पर्व है। यह भाद्रपद महीने में मनाया जाता है। संवत्सरी महा पर्व मनाने के लिए आगम साहित्य में इसके लिए उल्लेख मिलता है कि संवत्सरी चातुर्मास के 49 या 50 दिन व्यतीत होने पर व 69 या 70 दिन अवशिष्ट रहने पर मनाई जानी चाहिए।
जैन धर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में संवत्सरी पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। यह एकमात्र आत्मशुद्धि का पर्व है, इसीलिए यह पर्व ही नहीं, महापर्व है। जैन लोगों का सर्वमान्य विशिष्टतम पर्व है। संवत्सरी पर्व- त्याग तपस्या, ध्यान, मौन, जप, स्वाध्याय आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों के द्वारा मनाया जाता है। संवत्सरी अंतरात्मा की आराधना का पर्व है, आत्मशोधन का पर्व है, सोना तपकर निर्खाद बनता है इंसान तपकर भगवान बनता है। यह पर्व अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है।
तप जप ध्यान स्वाध्याय के द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ,राग, द्वेष आदि आंतरिक शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है।
संवत्सरी महापर्व आध्यात्मिक पर्व है, इसका जो केंद्रीय तत्व है, वह है- आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में यह महापर्व अहं भूमिका निभाता है। अध्यात्म यानी आत्मा की सन्निकटता। यह संवत्सरी पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का महान पर्व है।जिसे त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है।
वर्षभर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठान करते नजर आते हैं।
संवत्सरी महापर्व कषाय शमन का पर्व है। यह पर्व 8 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें किसी के भीतर में ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो यह उसको शांत करने का पर्व है। संवत्सरी पर्व आदान-प्रदान का पर्व है। इस दिन सभी अपनी मन की उलझी हुई ग्रंथियों को सुलझाते हैं, अपने भीतर की राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं, वे एक- दूसरे से गले मिलते हैं। पूर्व में हुई भूलों को क्षमा द्वारा समाप्त करते हैं व जीवन को पवित्र बनाते हैं।
संवत्सरी महापर्व का समापन क्षमावाणी (मैत्री दिवस) के रूप में आयोजित होता है जिसे क्षमापना दिवस भी कहा जाता है। इस तरह से संवत्सरी महापर्व एवं क्षमापना दिवस- ये एक-दूसरे को निकटता में लाने का पर्व है। ये एक-दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। गीता में भी कहा है- ‘आत्मौपम्येन सर्वत्रः, समे पश्यति योर्जुन’। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- ‘हे अर्जुन! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो।’
भगवान महावीर ने कहा- ‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’। सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है।
मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतरराष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन आत्मा की उपासना शैली का समर्थन आदि तत्व संवत्सरी महापर्व के मुख्य आधार हैं।
संवत्सरी पर्व प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है। आत्मशोधन व आत्मोत्थान का पर्व है। यह पर्व अहंकार और ममकार के विसर्जन करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है। आज पूरे विश्व को सबसे ज्यादा जरूरत है अहिंसा की, मैत्री की। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का पर्व है। देश और दुनिया में समय-समय पर रह-रहकर सांप्रदायिक हिंसा और आतंकवादी घटनाएँ ऐसा वीभत्स एवं तांडव नृत्य करती रही हैं, जिससे संपूर्ण मानवता प्रकंपित हो जाती है। इनदिनों काश्मीर में वहां की जनता की सक्रिय भागीदारी से बौखलाए आतंकवादी अपनी गतिविधियों में तेजी लाते हुए वहां हिंसा का माहौल निर्मित कर रहे हंै, अहिंसा की एक बड़ी प्रयोग भूमि भारत में आज साम्प्रदायिक-आतंकवाद की यह आग- खून, आगजनी एवं लाशों की ऐसी कहानी गढ़ रही है, जिससे घना अंधकार छा रहा है। चहूँ ओर भय, अस्थिरता एवं अराजकता का माहौल बना हुआ है। भगवान महावीर हो या गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद हो या महात्मा गांधी- समय-समय पर ऐसे अनेक महापुरुषों ने अपने क्रांत चिंतन के द्वारा समाज का समुचित पथदर्शन किया। ऐसे समय में संवत्सरी महापर्व की प्रासंगिकता सहज ही बहुगुणित हो गयी है।
आज देश में गहरे हुए घावों को सहलाने के लिए, निस्तेज हुई मानवता को पुनर्जीवित करने एवं इंसानियत की ब्यार को प्रवहमान करने के लिए अहिंसक समाज रचना की अपेक्षा है जो मनुष्य जीवन के बेमानी होते अर्थों में नए जीवन का संचार कर सकें। अहिंसा विश्व भारती इसी उद्देश्य को साकार करने के लिये कृतसंकल्प है।
अहिंसा और मैत्री द्वारा ही शांति मिल सकती है। आज जो हिंसा, आतंक, आपसी-द्वेष, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए बल्कि दुनिया के लिए चिंता का बड़ा कारण बनी हुई हैं और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। उन लोगों के लिए संवत्सरी पर्व एक प्रेरणा है।
संवत्सरी महापर्व अहिंसा के मूल्यों को पल्लवित एवं पोषित करने का अवसर है। सारे मानवीय-मूल्य अहिंसा की आबोहवा में पल्लवित, विकसित होते हैं एवं जिन्दा रहते हैं। वस्तुतः अहिंसा मनुष्यता की प्राण-वायु (आॅक्सीजन) है। प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी, पानी और प्राणीमात्र की रक्षा करने वाली अहिंसा ही है। हम अहिंसा का मार्ग नहीं अपनाते हैं तब प्रकृति अपना काम करती है। इसलिए संवत्सरी एक ऐसा अवसर है जो हमें महाविनाश से महानिर्माण की ओर अग्रसर करके जीवन निर्माण की प्रेरणा देता है।

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