‘सर ‘ का डर …!!

जल्दी -जल्दी खाना खा… डर लगे तो गाना गा…। तब हनुमान चालिसा के बाद डर दूर करने का यही सबसे आसान तरीका माना जाता था।क्योंकि गांव – देहात की कौन कहे, शहरों में भी बिजली की सुविधा खुशनसीबों को ही हासिल थी। लिहाजा शाम ढलने के बाद शहर के शहर अंधेरे के आगोश में चले जाते थे। हर तरफ डिबरी या लालटेन की लौ टिमटिमाती नजर आती। ऐसे में यदि किसी को जरूरी काम से बाहर निकलना पड़ जाए तो उसकी घिग्गी बंध जाती थी। खैर बचपन के उस दौर में एक बात  ब्रह्म वाक्य की तरह अटल थी कि फिल्मी हीरो किसी से नहीं डरते। सात – सात को साथ मारते हैं। हम सीट पर बैठे सांस रोक कर देख रहे हैं कि पर्दे पर हीरो चारो ओर से घिर चुका है। लेकिन वह डरता नहीं, बल्कि घेरने वालों को ही घेर कर मार रहा है। 70 के दशक में महानायक ने तो हद ही कर दी। कुछ गुंडे – बदमाश हाथ धो कर उसके पीछे पड़े हैं। उसे इधर – उधऱ ढूंढ रहे हैं। हम कांप रहे हैं कि बेचारे का अब क्या होगा। लेकिन यह क्या वह तो ढूंढने वाले के डेरे पर ही बेफिक्री सेपांव पसार कर लेटा है और दरवाजे पर ताला लगा कर उन्हें चुनौती देता है। फिर एक – एक कर सभी की जम कर पिटाई और पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा है।किशोर होने तक हमारे भीतर यह धारणा बैठी रही कि फिल्मी पर्दे वाले सर किसी से डर नहीं सकते।हालांकि यदा – कदा यह सुनने को जरुर  मिलता कि फलां हीरो के यहां इन्कम टैक्स की रेड पड़ी है और बेचारा परेशान है। लेकिन हमें विश्वास नहीं होता था। हम सोचते थे कि हमारा हीरो रेड मारने वालों की ऐसी – तैसी करके रख देगा। कम से कम उन्हें खरी – खोटी तो जरूर सुनाता होगा। लेकिन जल्द ही यह मिथ टूटने लगा। तोप सौदे में नाम आने पर एक महानायक बुरी तरह से डर गए। वहीं मुंबई बम धमाके के बाद असलियत खुली कि फिल्मी दुनिया से जुड़े तमाम सर सबसे ज्यादा डरे रहते हैं। इतना ज्यादा कि कोई भी गुंडा – मवाली उन्हें धमका लेता है। उनके डर भी कई प्रकार के होते हैं। माफिया और गुंडे – बदमाश  तो अपनी जगह है ही इन्कम टैक्स और तमाम तरीके के कानूनी नोटिसों का खौफ उनकी नींद हराम किए रहता है। बेचारे चैन से सो भी नहीं पाते। वर्ना क्या वजह है कि माइक हाथ में आते ही ये तमाम सर डर का रोना लेकर बैठ जाते हैं। इतना भयाक्रांत तो गांव – कस्बे के घुरहू – कल्लू भी नजर नहीं आते। यह सिलसिला अब भी बदस्तूर जारी है। एक नायक न दम भरा कि इनटालरेंस भरे माहौल में अब उसे डर लगने लगा है। दूसर उससे भी आगे निकल गया। उसने यहां तक कह दिया कि डर के चलते उसकी पत्नी बाल – बच्चों समेत देश से निकल जाने की सोचती है। वैसे ही जैसे नाराज बीवी मायके जा बैठती है। बिल्कुल उसी तरह उनकी अर्धांगिनीविदेश निकलने की सोचती रहती है ।  फिल्मी पर्दे वाले तमाम सरों के डर से सहमित जताते हुए दूसरी दुनिया के दूसरे सर थोक के भाव में सरकार से मिले पुरस्कार वापस लौटाने लगे।बड़ी मुश्किल से यह बवाल थम पाया था लेकिन हाल में एक दूसरे सर बोल पड़े कि उन्हें हर समय कानूनी नोटिस का डर लगा रहता है। पता नहीं कब उनके यहां नोटिस पहुंच जाए। तमाम सरों के उचित – अनुचित डर से हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि बड़े नाम वाले तमाम सर बुरी तरह से डर के शिकार हैं। उनसे ज्यादा निडर तो गांव – शहरों में रहने वाले वे आम – आदमी हैं जिन्हें जिंदगी कदम – कदम पर डराती है, लेकिन वे निडर बने रह कर उनसे जूझते रहते हैं।

 

 

 

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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