व्यंग्य/ बस यार बस!!

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सुबह के साढ़े की दस बजे का टाइम हुआ होगा। मिसेज को दफ्तर रवाना करने के बाद लगे हाथ बरतन धो जरा धूप देखने के लिए दरवाजा खोल सीढ़ियों पर आराम फरमाने निकलने की सोच ही रहा था कि दरवाजे पर बेल हुई। कहीं श्रीमती दफ्तर से लौट तो नहीं आई! अरे अभी तो झाड़ू पोचा करना बाकी है। सोच रहा था जरा कमर सीधी कर लूं। फिर लगूंगा। किसी अज्ञात डर से भीतर तक कांप गया। अपने बड़े बुरे दिन चल रहे हैं आजकल भाई साहब! हाय रे स्वार्थी सात जन्म के रिश्ते!

डरते-डरते दरवाजा खोला तो सामने पत्नी के बदले रावण का रूप धारण किए हुए कोई बहुरूपिया सा। एक सिर के साथ दस सिर लगाए हुए। गत्ते के। गदा के बदले खिलौने जैसी बंदूक साथ ली हुई तो दूसरी तरकश की तरह पीठ के पीछे लटकाई हुई।

‘यार, तूने तो डरा ही दिया था।’ मैंने श्रीमती के डर से उग आए माथे के पसीने को पोंछते हुए कहा।’

‘हा हा हा…पहचान लिया मुझे क्या? गुडमार्निंग। हाउ आर यू डियर? मैं तो हूं ही ऐसा कि जिसने मुझे सपने में भी न देखा हो, वह भी मुझे देखते ही पहली नजर में पहचान जाए।’

‘आर यू रावण ही न?’ मैंने अपनी स्मरण शक्ति का भरपूर उपयोग करते हुए कहा,’ रावण को पहचानना कौन सा मुश्किल है। क्यों? पिछली बार रामलीला में देखा था गत्ते के सिर वाला।’

‘वैरी गुड यार! तुम्हारी याद्दाश्त तो सुबह शाम बरतन धोने के बाद भी ज्यों की त्यों बरकरार है। पर मैं सच्ची का रावण हूं फार यूअर काइंड इंफारमेशन।’

‘तो हम आज तक क्या जलाते रहे?’

‘घास फूस का रावण।’ कह उसने एक ठहाका और लगाया।

‘अच्छा आओ भीतर आओ। चाय पिलाता हूं। चैन से बातें करते हैं। यहां कोई मुझे तुम्हारे साथ देख लेगा तो….दोगले से हो गए आजकल लोग बाग।’ और मैं उसे भीतर ले आया। कुछ कुछ सादर। वह कुर्सी पर आराम से यों विराजा जैसे वह रामलीला के सिहांसन पर विराजा तो शक की कोई गुंजाइश न रही। मैंने उससे पूछा,’ असली होकर ये गत्ते के सिर???’

‘क्या करूं यार। हर चुंगी पर कोई न कोई मिलता रहा। कम्बख्त मुफ्त में कोई चुंगी पार करने की नहीं दे रहा था।’

‘तो??’

‘देने को भारतीय मुद्रा तो थी नहीं सो सबको चुंगी पार करवाने के एवज में एक एक सिर देता रहा। जब एक ही सिर बचा तो अगले चुंगी वाले को पता ही नहीं चला कि मैं कौन हूं। और मैं मजे से यहां आ गया।’

‘यहां क्या करने आए हो?’

‘देखने आया हूं कि तुम्हारे शहर में मेरे नाम पर लाखों का चंदा इकट्ठा कर अबके दशहरे में कितने इंच का रावण बन रहा है।’

‘पर ये गत्ते के सिर क्यों लगा लिए?’

‘न लगाता तो क्या तुम मुझे पहचान लेते? दूसरे आदत सी बन गई है परंपरा ढोने की। एक सिर के बिना अटपटा सा लगता है।’

‘तो अब क्या सीता चुराना बंद कर दिया है या….’ कह मैं उसकी आंखों में गंभीर हो ताकने लगा।

‘बुरा मत मानना यार! कड़वा लगेगा। अब कहां हम लोग, कहां तुम लोग। कहां वो पंचवटी! अब जहां देखो कंकरीट ही कंकरीट के जंगल। अब तुम्हारे समाज में राम भी कहां हैं और सीताएं भी कहां? लक्ष्मण भरत तो दूर की बात रही। कहां वो राजा,कहां वो प्रजा! अब तो किसीकी पत्नी का अपहरण करने के लिए किसी रावण की भी आवश्यकता नहीं, भाई ही भाई की पत्नी का अपहरण कर ले जाता है। तब राम को बनवास के वक्त भरत ने राम की खड़ाऊं लेकर ही चौदह बरस जन सेवा की थी और आज प्रधानमंत्री बेचारे डर के मारे अपना इलाज करवाने भी नहीं जाते कि वापिस आएंगे तो कार्यकारी ही कुर्सी पर कब्जा न किए बैठा हो। राम की पत्नी सीता को तो मैंने मोक्षवश अपहरा था, लंका में तब भी सीता मेरे यहां सेफ थी पर अब तो अपने पति के संरक्षण में भी पत्नी सेफ नहीं। सीता का अपहरण होने पर तब राम ने रो रो कर सारा वन सिर पर उठा लिया था और आज का पति पत्नी के अपहरण की खुशी में पुलिस स्टेशन तक लड्डू बांटता फिरता है। अपने जमाने में जरूरमंद को घर नहीं दिल में रहने को जगह दी जाती थी और आज मकान तो मकान, कोख भी किराए पर दी जाने लगी है। अब तो यहां संबंध ही पहचानने मुश्किल हो गए दिखते हैं मुझे तो। हूं तो रावण पर ये सब देख अब मुझे भी यहां से ग्लानि होने लगी है। यार, अब कहां हैं वैसे पति कि जो पत्नी के पीछे किसी रावण से पंगा ले लें। सच कहूं, मन खट्टा हो गया यहां आकर।’ ‘कह वह उदास सा हो गया। उसने अपने सिर में आहत हो हाथ दिया तो एक बार फिर विश्वास होने के बाद नहीं लगा कि ये सच्ची का रावण हो। सो शंका का मारा पुन: पूछ बैठा,’यार! तुम सच्ची के रावण हो??’

‘कोई शक? राम पर तो तुमने हर वक्त ही शक किया कम से कम रावण पर तो शक न करो। वह तो यत्र तत्र सर्वत्र है। क्षण क्षण में।’ उसने कहा तो मैं झेंप गया।

‘मेरे घर का नाम पंचवटी है।’

‘हां पढ़ लिया था। तभी रूका था यहां कुछ देर के लिए।’ उसने कहा तो किसी अज्ञात खुशी की खुशी में मेरे मन में लड्डू फूटने लगे।

‘तो पंचवटी देख मन में सोए भाव नहीं जागे?’

‘कहना क्या चाहते हो? सीधी बात करो प्रभु चावला की तरह।’

‘चाहता हूं मेरी पत्नी का हरण कर दो। मैं तुम्हें दिली आमंत्रण देता हूं। बहुत तंग आ गया हूं उससे। बहुत खर्चीली हो गई है।’ मैं लोक लाज छोड़ अपनी पर आया तो वह हंसा। हंसता ही रहा। कुछ देर बाद अपनी हंसी रोक बोला,’ क्यों? कलयुग में भी बदनाम करवाना चाहते हो? हद है यार! मर्द हो पत्नी द्वारा लगाई पत्नी रेखा में रह क्या यही चाहते हो कि अगले युग में भी जलता रहूं। कुत्ते का कुत्ता बैरी तो सुना था यार पर अब तो इस समाज में मर्द का बैरी मर्द ही हो गया। एक और नया मुहावरा! ‘

‘क्या है न कि प्रभु मैं अपनी पत्नी से सच्ची को बहुत तंग आ गया हूं।’ कह मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए या कि वे खुद ही जुड़ गए, राम जाने।

‘सच कहूं! अब इस युग के सामने तो मैं भी जैसे आउट डेटिड हो गया हूं यार! इस सबंधों के संक्रमण के दौर में मैं मंदोदरी को ही नहीं संभाल पा रहा और तुम कहते हो कि…..’और वह बिन चाय पीए ही मेरे घर से चला गया।

हाय रे मरे भाग!!

-डॉ. अशोक गौतम

2 COMMENTS

  1. Dear Gautam,
    Kya sab vyangya ityaadi apni dharmik kathaon per hi likhe jayenge. M.F.Hussain, jaise bahut se log yahi ker rahein hain.
    Dekhein Ek MBA ki book mein ganit ka sawal kaise banaya’. Jara us ki bhasha dekhiye pratishat ke sawalon mein.

    (Jab Ram Lanka jeet ker aaye to vahan se laaye gaye dhan Aur Sampatti ka bantwara Nimn prakar se kiya:)

    Please avoid this type of efforts. Many other topic or story can be created to raise the intended point.

    Satish

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