सार्वभौमिक-समन्वित भारतीय हिन्दू संस्कृति


डा. राधेश्याम द्विवेदी
भारतीय हिन्दू संस्कृति विश्व के इतिहास में कई दृष्टियों से विशेष महत्त्व रखती है। यह संसार की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रमुख है। यह कर्म प्रधान संस्कृति है। मोहनजोदड़ो की खुदाई के बाद से यह मिस्र, मेसोपोटेमिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं के समकालीन समझी जाने लगी है। प्राचीनता के साथ इसकी दूसरी विशेषता अमरता है। चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी संस्कृतियाँ मेसोपोटेमिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन और खाल्दी प्रभृति तथा मिस्र ईरान, यूनान और रोम की संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं। कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं। भारतीय संस्कृति कई हजार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है। उसकी तीसरी विशेषता उसका जगद्गुरु होना है। उसे इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उसने ना केवल महाद्वीप सरीखे भारतवर्ष को सभ्यता का पाठ पढ़ाया, अपितु भारत के बाहर बड़े हिस्से की जंगली जातियों को सभ्य बनाया। उसने साइबेरिया के सिंहल (श्रीलंका) तक और मैडीगास्कर टापू, ईरान तथा अफगानिस्तान से प्रशांत महासागर के बोर्नियो, बाली के द्वीपों तक के विशाल भू-खण्डों पर अपनी अमिट प्रभाव छोड़ा है। भारतीय संस्कृति सर्वांगीणता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा अग्रणी स्थान रखती है।
भारतीय हिन्दू संस्कृति विश्व की प्रचीनतम संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखती है जिनका दर्शन हमारे धार्मिक एवं लौकिक साहित्यों तथा पुरातत्व के विपुल प्रमाणों में प्राप्त होता है। हमारे देश के विद्वान, चिन्तक एवं मनीषी ‘विश्वबंधुत्व ’ ए वं ‘बसुधौव कुटुम्बकम ’ की भावना से ओतप्रोत हो चिन्तन, तपश्चर्या तथा उचित पात्रों में प्रवचन एवं उपदेश देकर इस ज्ञान को अक्षुण्य बनाये रखे हैं। वे आत्मप्रचार तथा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं रखते थे और प्रायः अपने ज्ञान को दैवी शक्तियों से सम्बद्ध करते हुए जन साधारण में धार्मिक, सामाजिक एवं अध्यात्मिक संतुलन तथा सामंजस्य का प्रयास करते रहते थे। वे सभ्यता संस्कृति तथा इतिहास के पृथक पृथक ग्रंथों की रचना ही नहीं अपितु अपने साहित्यों एवं अभिरुचियों को समय समय पर उद्भासित करते रहे हैं।
भारत में धर्म और भारतीय धार्मिक समुदाय :- भारतीय धर्म विश्व के धर्मों में प्रमुख है, जिसमें हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म, आदि जैसे धर्म शामिल हैं आज, हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म क्रमशः दुनिया में तीसरे और चैथे सबसे बड़े धर्म हैं, जिनमें लगभग 1-4 अरब अनुयायी साथ हैं। अन्य सर्वेक्षणों के अनुसार बौद्ध धर्म दुनिया का दुसरा सबसे बडा धर्म है और बौद्ध अनुयायियों की संख्या 1-7 अरब से भी अधिक है। दुनिया में बौद्ध और हिन्दू अनुयायियों की संख्या करीब 2-7 अरब है जो दुनिया की आबादी का 38 प्रतिशत हिस्सा है। एशिया की आबादी में 45 प्रतिशत तथा दुनिया की आबादी में 25 प्रतिशत बौद्ध है। विश्व भर में भारत में धर्मों में विभिन्नता सबसे ज्यादा है, जिनमें कुछ सबसे कट्टर धार्मिक संस्थायें और संस्कृतियाँ शामिल हैं। आज भी धर्म यहाँ के ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच मुख्य और निश्चित भूमिका निभाता है। 80.4 प्रतिशत से ज्यादा लोगों का धर्म हिन्दू धर्म है। कुल भारतीय जनसँख्या का 13.4 प्रतिशत हिस्सा इस्लाम धर्म को मानता है। सिख, जैन और खासकर के बौद्ध धर्म का केवल भारत में नहीं बल्कि पूरे विश्व भर में प्रभाव है। ईसाई, पारसी, यहूदी और बहाई धर्म भी प्रभावशाली हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। भारतीय जीवन में धर्म की मजबूत भूमिका के बावजूद नास्तिकता और अज्ञेयवादियों का भी प्रभाव दिखाई देता है।
प्राचीनता एवं विशालता :- हिन्दू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण सनातन धर्म भी कहा जाता है। ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी पैगम्बर या व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों, मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है। एक विकासशील धर्म होने के कारण विभिन्न कालों में इसमें नये-नये आयाम जुड़ते गये। वास्तव में हिन्दू धर्म इतने विशाल परिदृश्य वाला धर्म है कि उसमें आदिम ग्राम देवताओं, भूत-पिशाच, स्थानीय देवी-देवताओं, झाड़-फूँक, तंत्र-मत्र से लेकर त्रिदेव एवं अन्य देवताओं तथा निराकार ब्रह्म और अत्यंत गूढ़ दर्शन तक- सभी बिना किसी अन्तर्विरोध के समाहित हैं और स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार सभी की आराधना होती है। वास्तव में हिन्दू धर्म लघु एवं महान परम्पराओं का उत्तम समन्वय दर्शाता है। एक ओर इसमें वैदिक तथा पुराणकालीन देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती है, तो दूसरी ओर कापलिक और अवधूतों द्वारा भी अत्यंत भयावह कर्मकांडीय आराधना की जाती है। एक ओर भक्ति रस से सराबोर भक्त हैं, तो दूसरी ओर अनीश्वर-अनात्मवादी और यहाँ तक कि नास्तिक भी दिखाई पड़ जाते हैं। देखा जाय, तो हिन्दू धर्म सर्वथा विरोधी सिद्धान्तों का भी उत्तम एवं सहज समन्वय है। यह हिन्दू धर्मावलम्बियों की उदारता, सर्वधर्मसमभाव, समन्वयशीलता तथा धार्मिक सहिष्णुता की श्रेष्ठ भावना का ही परिणाम और परिचायक है।
हिन्दू धर्म का इतिहास :- हिन्दू धर्म भारत का प्रमुख धर्म है। हिन्दू या सनातन धर्म 4000 साल से भी पुराना माना जाता है। मान्यता है कि हिन्दू धर्म प्राचीन आर्य समाज के वेदों पर चलता हुआ विकसित हुआ है। इस धर्म को किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं बल्कि समय ने बनाया और फैलाया है। हिन्दू धर्म का उदय कब और कैसे हुआ इसकी सटीक जानकारी किसी को नहीं है। मान्यता है कि वेदों का अनुसरण करते हुए आर्यों ने ही हिन्दू धर्म को उसकी पहचान दिलाई। हिन्दू धर्म के पुरातन लेखों और तथ्यों से जाहिर होता है कि हिन्दू धर्म बेहद विकसित और समृद्ध था। सिंधु घाटी सभ्यता और अन्य कई पुरातन अध्ययनों से यह जाहिर हुआ है कि हिन्दू धर्म का उदय बेहद प्राचीन है। विश्व की प्रथम पुस्तक वेदों को माना गया है। वेदों के अस्तित्व को पूरे विश्व में मान्यता प्राप्त हैं। वेदों में सबसे प्राचीन ऋग्वेद को माना गया है। कई जानकार मानते हैं कि वेदों में लिखे नियमों और बातों का अनुसरण करके ही हिन्दू धर्म ने अपने नियम और मानदंड स्थापित किए हैं। व्यवहारिक रुप में इसमें समय समय पर संशोधन और परिमार्जन होता रहा है।
मुख्य बातें :- मान्यता है कि प्राचीन हिन्दू धर्म की मुख्य भाषा संस्कृत थी। प्राचीन हिन्दू समाज में राजा और प्रजा के रूप में विभाजित थी, जहां राजा प्रजा को संचालित करता था। वेदों की मान्यतानुसार सनातन धर्म के मुख्य देव इन्द्र, वरुण, अग्नि और वायु देव हैं। इसके बाद इनके अनुचर तथा दिक्पाल इनकी सत्ता को संचालित तथा नियंत्रित करने में सहयोग करते रहे। सनातन हिन्दू धर्म मुख्यत तीन संप्रदायों में बंटा था एक शैव जो शिव की पूजा करते थे। दूसरा वैष्णव जो विष्णुजी को अपना आराध्य मानते थे। और तीसरे शक्ति के उपासक थे। प्रत्येक सम्प्रदायों में अनेक सहयोगी तथा उत्तरवर्ती ऋषि मुनि भी इन्हीं से सम्बद्ध रहे। पूजा पद्धतियों में सुविधा व सुलभता को लेकर इन तीन संप्रदायों में अनेक उप संप्रदाय भी अपना सह अस्तित्व बना लिये थे। मान्यता है कि विभिन्न संप्रदायों में बंट जाने से जब सनातन धर्म कमजोर होने लगा तो आदि शंकराचार्य ने पूरे भारत का भ्रमण कर पुनरू धर्म की स्थापना कर लोगों को जोड़ने का काम किया। मान्यता है कि बौद्ध और जैन धर्म भी सनातन हिन्दू धर्म का ही एक अंग है।
हिन्दू संस्कृति विशाल समूह का नाम :- हिन्दू शव्द हमारे प्रचीन साहित्य में नहीं मिलता है। आठवीं तंत्रग्रंथ में इसे हिन्दू धर्मावलम्बी के रुप में न लिखकर एक जाति या समूह के रुप में पहली बार लिखा गया है। डा. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार भारत के बाहर इस शव्द का प्राचीनतम उल्लेख अवेस्ता और डेरियस के शिलालेखों में प्राप्त होता है। ‘‘हिन्दू शब्द विदेशी है तथा संस्कृत अथवा पालि में इसका कहीं भी प्रयोग नहीं मिलता है । यह धर्म का वाचक न होकर एक भूभाग के निवासी के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है। सातवीं सदी में चीनी यात्री इत्ंसग ने लिखा है कि मध्य एशिया के लोग आर्यावर्त या भारत को हिन्दू कहते हैं। इसलिए सिन्धु के इस पार के लोगों को सिन्धू के बजाय हिन्दू या हिन्दुस्तानी कहने लगे थे। 19वीं शताब्दी में अंग्रेज भी इस धर्म के लोगों के लिए ‘हिन्दूज्म’ कहना शुरु कर दिया था। हिन्दुत्व की जड़ें किसी एक पैगम्बर पर टिकी न होकर सत्य, अहिंसा सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य व करूणा पर टिकी हैं। हिन्दू की परिभाषा नकारात्मक है – जो ईसाई मुसलमान व यहूदी नहीं है वे सब हिन्दू है। इसमें आर्यसमाजी, सनातनी, जैन, सिख व बौद्ध इत्यादि सभी लोग आ जाते हैं। भारतीय मूल के सभी सम्प्रदाय पुर्नजन्म में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि व्यक्ति के कर्मों के आधार पर ही उसे अगला जन्म मिलता है। तुलसीदासजी ने लिखा है-
परहित सरिस धरम नहीं भाई । पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ।
अर्थात दूसरों को दुख देना सबसे बड़ा अधर्म है एवं दूसरों को सुख देना सबसे बड़ा धर्म है । यही हिन्दू की भी परिभाषा है। कोई व्यक्ति किसी भी भगवान को मानते हुए एवं न मानते हुए हिन्दू बना रह सकता है। हिन्दू की परिभाषा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि भारत में हिन्दू की परिभाषा में सिख, बौद्ध, जैन, आर्यसमाजी व सनातनी इत्यादि आते हैं। हिन्दू की संताने यदि इनमें से कोई भी अन्य पंथ अपना भी लेती हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं समझी जाती एवं इनमें रोटी बेटी का व्यवहार सामान्य माना जाता है। उनमें एक दूसरे के धार्मिक स्थलों को लेकर कोई झगड़ा अथवा द्वेष की भावना नहीं होती है। सभी पंथ एक दूसरे के पूजा स्थलों पर आदर के साथ आते-जाते हैं। स्वर्ण मंदिर में सामान्य हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाते हैं तो जैन मंदिरों में भी हिन्दुओं को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है। जब गुरू तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितो के बलात धर्म परिवर्तन के विरूद्ध अपना बलिदान दिया तो गुरू गोविन्द सिंह ने इसे ‘तिलक व जनेऊ के लिए उन्होंने बलिदान दिया’ इस प्रकार कहा था। इसी प्रकार हिन्दुओं ने भगवान बुद्ध को अपना नौवां अवतार मानकर अपना भगवान मान लिया है। भगवान बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को करने वाले अधिकतम लोग आज हिन्दू ही हैं एवं बुद्ध की शरण लेने के बाद भी अपने अपने घरों में आकर अपने हिन्दू रीति रिवाजों को मानते हैं। इस प्रकार भारत में फैले हुए पंथों को किसी भी प्रकार से विभक्त नहीं किया जा सकता एवं सभी मिलकर अहिंसा करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य की ही पुष्ट करते हैं। कोई व्यक्ति चाहे वह राम को माने या कृष्ण को बुद्ध को या महावीर को अथवा गोविन्द सिंह को परंतु यदि अहिंसा, करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य, पुर्नजन्म, आस्तेय, सत्य को मानता है तो वह हिन्दू ही है। इसी कारण जब पूरे विश्व में 13 देश हिन्दू देशों की श्रेणी में आएगें। इनमें वे सब देश है जहाँ बौद्ध पंथ है। भगवान बुद्ध द्वारा अन्य किसी पंथ को नहीं चलाया गया उनके द्वारा कहे गए समस्त साहित्य में कहीं भी बौद्ध शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। उन्होंने सदैव इसे धर्म ही कहा है। भगवान बुद्ध ने किसी भी नए सम्प्रदाय को नहीं चलाया उन्होनें केवल मनुष्य के अंदर श्रेष्ठ गुणों को लाने उन्हें पुष्ट करने के लिए ध्यान की पुरातन व सनातन विधि विपश्यना दी है। यह भारत की ध्यान विधियों में से एक है जो उनसे पहले सम्यक सम्बुद्ध भगवान दीपंकर ने भी हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दी थी। भगवान दीपंकर से भी पूर्व न जाने कितने सम्यंक सम्बुद्धों द्वारा यही ध्यान की विधि विपश्यना सारे संसार को समय-समय पर दी गयी है। एसा स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा कहा गया है। भगवान बुद्ध ने कोई नया पंथ नहीं चलाया वरन् उन्होंने मानवीय गुणों को अपने अंदर बढ़ाने के लिए अनार्य से आर्य बनने के लिए ध्यान की विधि विपश्यना दी जिससे करते हुए कोई भी अपने पुराने पंथ को मानते हुए रह सकता है। परंतु विधि के लुप्त होने के बाद विपश्यना करने वाले लोगों के वंशजो ने अपना नया पंथ बना लिया। यह बात विशेष है कि इस ध्यान की विधि के कारण ही भारतीय संस्कृति का फैलाव विश्व के 21 से भी अधिक देशों में हो गया एवं 11 देशों में बौद्धों की जनसंख्या अधिकता में हैं। विश्व की कुल जनसंख्या में भारतीय मूल के धर्मों की संख्या 20 प्रतिशत है जो मुस्लिम से केवल एक प्रतिशत कम हैं। हिन्दुओं की कुल जनसंख्या बौद्धों को जोड़कर 130 करोड़ है जो मुसलमानों से कुछ ही कम है। हिन्दुओं के 13 देश यथा- थाईलैण्ड, कम्बोडिया, म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, तिब्बत, लाओस, वियतनाम, जापान, मकाऊ, ताईवान, नेपाल व भारत हैं। इसी कारण जब लोग कहते हैं कि विश्व में केवल एक ही हिन्दू देश है तो यह पूरी तरह गलत है। यह बात केवल वे ही कह सकते हैं जो हिन्दू की परिभाषा नहीं जानते और विश्व को गुमराह करना चाहते हैं।
सार्वभौमिक संस्कृति :- हिन्दूओं की संस्कृति की पाचन शक्ति बहुत प्रचण्ड एवं लचीला रहा है। सभी आनेवाली नई संस्कृतियां इसी में खप गयीं। नीग्रो से लेकर हूणों तक की सभी जातियां इस लचीलेपन के कारण आर्य समाज के अंग बन गये। कुछ समय बाद इस सार्वभौमिक धर्म में कुछ सांस्कृतिक विद्रोह उठा जो बौद्ध एवं जैन धर्म के रुप में उभरा फिर इसी मूल धर्म में समा गया। भारत में आने वाला इस्लाम भी अपना अस्तित्व लेकर आया परन्तु यहां के गंगा यमुनी समन्वय की संस्कृति में वह भी कुछ परिवर्तित होकर भारतीय संस्कृति के अंग बन गये तथा कुछ अरब आदि देशों के सम्पर्क एवं प्रभाव में रहते हुए अपनी स्वतंत्र एवं कट्टरवादी सत्ता बनाये रखने में समर्थ भी रहे हैं। “बसुधैवकुटुम्बकम्” की क्षमता रखने वाली, आर्य सनातनी, अखिल ब्रहमाण्ड जैसी विशाल हृदय रखने वाली व्यापक संस्कृति के पुरोधाओं को हिन्दू धर्म एवं हिन्दू राष्ट्र का आवहान कर अपने अन्दर पहले से ही समाहित पृथक पृथक छोटे ग्रहों जैसी संस्कृति व उसके अनुयायियों को भयाक्रान्ता करने का प्रयास नहीं करना चाहिए और ना ही अपनी उपासना की पृथक पहचान रखनेवाले अन्तवर्ती किसी सहयोगी धर्म और संस्कृति के अनुनायियों को किसी प्रकार से स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने देना चाहिए। राजनीतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक किसी भी प्रकार के किसी भी व्यक्ति को भारतीय सनातनी एवं समन्वय की संस्कृति को महिमामण्डित करने की छूट नहीं देनी चाहिए और ना ही किसी को इससे किसी प्रकार से अपने को असुरक्षित समझने की मानसिकता ही रखनी चाहिए। भारतीय आर्य संस्कृति महासमुद्र के समान है जिसमें अनेक संस्कृतियां नदियों जैसी विलीन हो गयी हैं और जिनका पृथक एवं स्वतंत्र अस्तित्व खडा करना मुश्किल हो गया है। जिनका पृथक एवं स्वतंत्र अस्तित्व खडा करना मुश्किल हो गया है ।
विविधतापूर्ण महासमुद्रवत संस्कृति :- सनातन हिन्दू धर्म की संस्कृति कई चीजों को मिला-जुलाकर बनती है जिसमें भारत का लम्बा इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज, भाषाएँ, प्रथाएँ और परंपराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं। भारत कई धार्मिक प्रणालियों , जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जनक है। इस मिश्रण से भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग – अलग हिस्सों को भी काफी प्रभावित किया है। सनातनी एवं समन्वय की संस्कृति को महिमामण्डित करने की छूट नहीं देनी चाहिए औ ना ही किसी को इससे किसी प्रकार से अपने को असुरक्षित समझने की मानसिकता ही रखनी चाहिए। भारतीय आर्य संस्कृति महासमुद्र के समान है जिसमें अनेक संस्कृतियां नदियों जैसी विलीन हो गयी हैं और आज हमे अपने उसी प्रचीन परम्परा को अपनाकर सभी छोटी छोटी संस्कृतियों को अपने दिल तके जगह एवं पनाह देते हुए भारत जैसी विश्व प्रकृति की संस्कृति का निर्माण ’’ बसुधैव कुटुम्बकम् ’’ एवं ’’सर्वेभवन्तु सुखिनः ’’ की भावना से करना चाहिए । शरीर के अंगों की भांति इन संस्कृतियों के पालको को भी इस यथार्थ को आत्मसात कर एक अखण्ड विश्व की परिकल्पना को साकार करने का प्रयत्न करना चाहिए। इतना सब होने के बावजूद सभी पृथक पृथक धर्म एवं सम्प्रदाय अपनी पृथक पृथक एवं स्वतंत्र पूजा एवं उपासना पद्धति व परम्परा को सदाशयता के साथ अपनाते हुए सभी को सम्मान एवं आदन करना चाहिए।

3 COMMENTS

  1. (१)भारत इतना समन्वयवादी (था) है; कि वेदों के मन्त्रद्रष्टाओं ने वेदों में किसी और धर्मियों को जहन्नुम या हेल में नहीं भेजा। न उसकी कल्पना भी की।
    (२)”Call of the Vedas” नामक—भारतीय विद्या भवन की पुस्तक अवश्य पढें। कुछ अंश पढने पर ही किसी सामान्य बुद्धि मनुष्य को भी समझमें आ जाएगा।
    (३) वेदों में ढूँढकर दिखाओ, कि, कहीं संकीर्ण या संकुचित विचार रखा गया है। यह *परा-वाणी* या *परा-विद्या* का चमत्कार है।
    (४) जब व्यक्ति आत्मा से भी ऊपर उठ जाता है। व्यक्तिगत प्रतीति समाप्त हो जाती है। यह अनुभव कर सकते हो, कहने की बात नहीं। कभी ध्यान कर के देखो। –अपना नाम याद नहीं आएगा। स्वयं भारतीय-अमरिकन-युरोपियन या कोई भी हो,भूल जाओगे।भूल जाओगे कि आप पुरुष या स्त्री हो। अपनी संकुचित पहचान के ऊपर उठ जाओगे। अपना-पराया का कोई भेद ही नहीं कर पाओगे।

    (५)ये अन्य मत प्रणालियाँ अपनी पहचान से, मनुष्य के अपने-पराए-भेद से भी ऊपर उठी ही नहीं है। तभी अन्यों को हेल में, जहन्नुम में, भेजती है।
    (६) मनुष्य बन कर आए हो; समय नष्ट ना करो। मनुष्य यह ज्ञान ध्यान कर के प्राप्त कर सकता है। शीघ्रता से करो। उठो, जागो, ध्येय प्राप्त करो। अज्ञान में रहना बंद करो।
    *आत्मवत सर्व भूतेषू*

  2. विद्वान लेखक के अनुसार हिन्दू शब्द हमारे प्राचीन ग्रंथों में नहीं है,अतः यह बाद में अपनाया गया है.हमलोग आज भले ही इसको सनातन धर्म का पर्यायवाची स्वीकार कर लें,पर इतिहास इसको वही कहेगा,जिसके लिए इसका प्रयोग हुआ था,इसीलिये अगर आप इस शब्द को गूगल पर ढूंढेंगे तो वही अर्थ मिलेगा,जिसके लिए इसका प्रयोग हुआ था.
    अब बात आती है,महात्मा बुद्ध को अवतार मानने की,तो क्या बौद्ध धर्मावलंबी भी महात्मा बुद्ध को भगवान का अवतार या नौवां अवतार मानते हैं या पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं?
    दूसरा प्रश्न इसी के साथ आ जाता है.जब महात्मा बुद्ध कलयुग में पैदा हुए थे, , तो उनको सनातनियों ने कल्कि अवतार क्यों नहीं माना? वे लोग क्यों आज भीं कल्कि अवतार की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
    तीसरा प्रश्न ,क्या आर्य समाज इन अवतारों वाली कहानी पर विश्वास करता है?
    क्या बौद्ध,जैन या सिख अपने को हिन्दू मानते हैं?
    तुलसी दास ने लिखा है,”परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ” ,क्या विद्वान लेखक बताएँगे कि किस धर्म ,मजहब या रिलिजन ने इसके विपरीत व्यवहार करने को कहा है?
    विद्वान लेखक के अनुसार भारत की सभ्यता और संस्कृति में विकसित सभी हिन्दू हैं.इतिहासकारों के अनुसार भी एक सीमित क्षेत्र यानी सिंधु घाटी में निवास करने वालों को हिन्दू कहा जाने लगा था.अगर इसका थोड़ा विस्तार किया जाये,तो भारत के सभी वाशिन्दों को हिन्दू कहा जा सकता है.भारत के एक नाम हिंदुस्तान में यह समावेत भी है.ऐसे भी इतिहास के अनुसार अन्य धर्मावलंबी भी भारत में बाहर से नहीं आये हैं.यही के लोगों का परिस्थियों बस धर्मातरण हुआ है,तो केवल सनातनी,आर्यसमाजी,सिक्ख,जैनी और ,बौद्ध हीं क्यों हिन्दू कहे जाएंगे,हिंदुस्तान के सभी वाशिंदें क्यों नहीं?

    • बौधों द्वारा पुनर्जन्म को न केवल स्वीकार किया जाता है बल्कि उच्च लामाओं के सम्बन्ध में उनके उत्तराधिकारियों के पुनर्जन्म के बाद विद्वान लामाओं का एक दाल कुछ पूर्व निर्धारित लक्षणों के आधार पर उसकी पहचान भी करते हैं! बाइबिल में लिखा है की ईसा मसीह को सबसे पहले “पूरब” के तीन विद्वानों ने पहचाना था!इसी आधार पर जर्मनी के एक विद्वान होल्गेर कर्स्टन ने अपनी पुस्तक “जीसस लिव्ड इन इंडिया,बिफोर एंड आफ्टर क्रुसिफिक्सन” में यह मत व्यक्त किया है कि वास्तव में ईसा मसीह एक उच्च कोटि के बौद्ध लामा के पुनरावतार थे! और उनकी मृत्यु वृद्धावस्था में कश्मीर (श्रीनगर) में हुई थी जहाँ हज़रतबल दरगाह के पास आजतक उनकी मज़ार बनी है!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here