सर्वोदयवादी और अन्त्योदयवादी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए था हमारा संघर्ष

राकेश कुमार आर्य

धर्म ही अटल है
चाणक्यनीति (5/10) में कहा गया है :-
‘चला लक्ष्मीश्चला: प्राणाश्चले जीवितयौवने।
चला चले च संसारे धर्म एकोहि निश्चल:।।’
अर्थात इस चराचर जगत में लक्ष्मी, प्राण, यौवन और जीवन सब कुछ नाशवान हैं, केवल एक धर्म की अटल है।
अटल धर्म के प्रति भारत के लोगों की आस्था भी अटल रही है। इसलिए महाभारत में भी कहा गया है कि यदि धर्म को नष्ट किया जाय तो वह मनुष्य का नाश कर देता है। इसमें संशय नही है।
मनुस्मृति (4/174) में कहा गया है-
‘अधर्मेणैधते तावत ततोभद्राणि पश्यति।
तत: सपत्नाञ्यपति समूलस्तु विनश्यति।।’
अर्थात ‘अधर्म से मनुष्य पहले तो एक बार बढ़ता है, फिर मौज शौक, आनंद भी करता है और अपने छोटे-मोटे शत्रुओं को धन के बल से विजित भी कर लेता है, किंतु अंत में वह देह धन और संतानादि सहित समूल नष्ट हो जाता है।’
धर्म आनंद का अनादि और अनंत स्रोत है
कहने का अभिप्राय यह है कि धर्म के अनादि और अनंत आनंदमयी स्रोत से भारत ने जिन मूल्यों का आविष्कार कर जीवन का श्रंगार किया उसी का नाम भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति का यह अनादि और अनंत आनंदमयी स्रोत ही था जो भयानक झंझावातों के मध्य भी भारत के प्राणों को ऊर्जान्वित कर रहा था। भारत की अंतश्चेतना को जाग्रत और सजग बनाये रखने का कार्य भी यही धर्म ही कर रहा था। इसीलिए भारतीयों की प्रशंसा करते हुए मि. वार्ड का कहना है-‘‘सामूहिक रूप से परस्पर संबोधन एवं व्यवहार के विषय में ंिहंदुओं की गणना विश्व के सर्वाधिक विनम्र राष्ट्रों में होनी चाहिए।’’
देवभाषा संस्कृत
संस्कृत को एक षडय़ंत्र के अंतर्गत विश्व की मृत भाषा बनाया गया और उर्दू को संसार की सर्वाधिक सभ्यता प्रदायक भाषा माना गया। जबकि सत्य इसके विपरीत है। जिन्हें हमारे कथन पर संदेह है वह महाभारत के पात्रों के संवाद सुन सकते हैं। ऐसे-ऐसे संवाद हैं कि आज का कोई नाटक कार उन जैसे संवादों की रचना की कल्पना तक नही कर सकता। इसके अतिरिक्त संस्कृत की समृद्घि का एक उत्कृष्ट उदाहरण यह भी देखिए कि पूरी संस्कृत शब्दावली में एक शब्द भी ऐसा नही मिलेगा जिसे प्रचलित अर्थों में गाली कहा जाता है। उर्दू वह भाषा है जिसने लोगों को गालियां सिखायी हैं। देवभाषा संस्कृत से हमारे भीतर जिन संस्कारों का निर्माण हुआ, उसी संस्कृत ने हमारे संबोधन एवं व्यवहार में विनम्रता उत्पन्न की।
साधु संतों के नैतिक नियम
मि. कोलमैन का कथन है-‘‘भारत के साधु-संतों एवं कवियों ने नैतिक नियमों की शिक्षा दी, और इतने सुंदर कवित्व का प्रदर्शन किया, जिसकी श्रेष्ठता स्वीकार करने में विश्व के किसी भी देश, प्राचीन अथवा अर्वाचीन को लेशमात्र भी झिझक न हो।’’
सोलोमन भी भारतीय ऋषियों के समक्ष कहीं नही टिकता
भारतीयों की बुद्घि का लोहा मैक्समूलर ने भी माना। उसे इनकी न्यायप्रियता और ईमानदारी जैसे गुणों ने सर्वाधिक आकर्षित किया। उसने सोलोमन की बुद्घि को हिंदू की बुद्घि से निम्नस्तरीय घोषित किया। वह कहता है-
‘‘अब आप सोलोमन के न्याय का स्मरण कीजिये, जिसकी यहूदी लोगों के मध्य महान न्यायिक बुद्घि के रूप में प्रशंसा की जाती है। मैं यह स्वीकार करता हूं कि यद्यपि मेरे पास न्यायिक मस्तिष्क नही है, तो भी जब मैं इस कहानी को पढ़ता हूं तो कांप उठता हूं। इस कहानी में एक बच्चे को लेकर दो महिलाएं झगड़ रही थीं, एक कहती थी कि यह बच्चा मेरा है और दूसरी कहती थी कि बच्चा मेरा है। तब सोलोमन ने न्याय दिया कि-‘इस जीवित बच्चे को दो बराबर भागों में बांट दो और प्रत्येक स्त्री को एक भाग दे दो।’ अब मैं आपको इस कहानी को बौद्घ लोगों ने कैसे कहा है, यह बताता हूं। बौद्घों के पवित्र धर्मग्रंथ में ऐसे ही अनेक दृष्टांत एवं दंतकथायें हैं। ‘कंजूर’ में जो कि बौद्घों के धर्मग्रंथ ‘त्रिपिटक’ का तिब्बती अनुवाद है, हम दो स्त्रियों के विषय में पढ़ते हैं, जो दोनों एक ही बच्चे की मां होने का दावा करती हैं। राजा बहुत समय तक सुनने के पश्चात भी यह निश्चय नही कर पाया कि बच्चे की वास्तविक मां कौन सी महिला है? इस पर विशाख आगे आया और बोला कि इन दोनों स्त्रियों के कथन सुनने और इनसे प्रश्नोत्तर करने का लाभ नही है। इस बच्चे को दोनों को दे दो, और उन्हें स्वयं ही निर्णय करने दो कि बच्चा कौन सी का है? इस पर दोनों महिलायें बच्चे पर झपट पड़ीं और जब उनका झगड़ा हिंसक हो गया तो बच्चा उनकी छीना झपटी में रोने लगा। तब उनमें से एक ने स्वयं ही वह बच्चा दूसरी को दे दिया। उससे पूछा गया तो उसने कहा कि वह बच्चे का रोना सहन नही कर सकी। राजा को वास्तविक मां का ज्ञान हो गया और उसने बच्चा वास्तविक मां को दे दिया।
यह थी हमारी न्याय प्रणाली जिसने मैक्समूलर को सोचने के लिए विवश किया कि सोलोमन (जो कि पश्चिमी जगत में सर्वाधिक न्यायप्रिय शासक माना जाता है) से भी श्रेष्ठ न्याय भारत का है। सोलोमन की न्यायिक बुद्घि जिस बच्चे को मारने के विचार से भर उठी उसी बच्चे को भारतीय न्यायाधीश मुक्त कर देता है, हिंसा और अहिंसा का स्पष्ट अंतर दीख रहा है, जिससे न्यायाधीश के वैचारिक स्तर व बौद्घिक धरातल का बोध होता है।
हिंदू होते हैं धर्म परायण -अबुल फजल
मुस्लिम लेखक अबुल फजल का कहना है कि-‘‘हिंदू धर्मपरायण, मिलनसार, अतिथियों के प्रति शिष्ट, प्रसन्नचित ज्ञान के उपासक, न्यायप्रेमी, व्यापार कुशल, कृतज्ञ, सत्य के प्रशंसक और अपने प्रत्येक व्यवहार में अत्यंत निष्ठावान है।’’
ज्ञान के उपासक न्याय प्रेमी, सत्य के प्रशंसक शब्द यहां भी कोई संकेत दे रहे हैं। इनसे भी स्पष्ट होता है कि हिंदू को जिस प्रकार अज्ञानी, काफिर, चोर आदि बताया गया वह ईष्र्यावश ही बताया गया, वह अपने मौलिक स्वरूप में ऐसा नही रहा है। इसी बात को 1813 ई. में मि. मर्सर ने ब्रिटेन की संसद में स्पष्ट करते हुए कहा था-‘‘वे (अर्थात हिंदू) अपने स्वभाव में विनम्र, अपने सामान्य व्यवहार में शिष्ट तथा पारिवारिक संबंधों में अत्यंत दयालु तथा स्नेहशील हैं।’’
जबकि कैप्टेन सिडेनहम का कहना है-‘‘हिंदू सामान्यत: विनम्र, आज्ञापालक, गंभीर, अनाक्रामक, अत्यधिक स्नेही, एवं स्वामिभक्त, किसी की बात को शीघ्रता से समझने वाला, बुद्घिमान, क्रियाशील, सामान्यत: ईमानदार दानशील, परोपकारी, संतान की भांति प्रेम करने वाले, विश्वास पात्र एवं नियम पालन करने वाले होते हैं। जितने भी राष्ट्रों से मैं परिचित हूं सच्चाई एवं नियमबद्घता की दृष्टि से ये उनसे तुलना करने योग्य है।’’
सर जॉन मालकम का कथन है-‘‘हिंदू एक उच्चजाति के मनुष्य हैं। इनके मानसिक गुणों की अपेक्षा इनका शारीरिक गठन सामान्य है। वह वीर, उदार, मानवतावादी हैं, तथा उनके सत्य एवं साहस के गुण अत्यंत सराहनीय हैं। इनमें मैंने उच्च पराकाष्ठा के ऐसे उदाहरण देखे हैं, जैसे कि इंगलेंड में नही मिलते हैं। जहां तक इनकी कत्र्तव्य परायणता का प्रश्न है मैं समझता हूं कि जहां तक मुझे ज्ञान है संसार में इनसे अधिक विश्वसनीय जाति कोई अन्य नही है।’’
1813 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट में बोलते हुए वारेन हेस्टिंग्स ने कहा था-‘‘हिंदू सौम्य, सुशील तथा परोपकारी है। उनका कोई उपकार करता है तो उसके लिए वे कृतज्ञता ज्ञापित करने को सदैव तत्पर रहते हैं। इसके विपरीत यदि कोई उनके प्रति बुराई करता है तो वे उससे बदला लेने के विषय में बहुत कम सोचते हैं। इस भूमंडल पर विद्यमान अन्य जातियों की अपेक्षा हिंदू लोग कहीं अधिक स्वामीभक्त प्रेम एवं सौहार्दपूर्ण तथा न्याय के आदर्शों एवं सिद्घांतों का पालन करने वाले हैं।’’
राष्ट्र का व्यक्तित्व
चरित्र के विभिन्न आयाम हैं विभिन्न पक्ष हैँ, विभिन्न स्तर हैं और विभिन्न परिभाषायें हैं। चरित्र व्यक्ति से लेकर समष्टि तक के एक व्यक्तित्व का भी निरूपण करता है। जैसे व्यक्ति का एक व्यक्तित्व होता है वैसे ही राष्ट्र का भी एक व्यक्तित्व होता है। व्यक्ति के विषय में अच्छी बुरी धारणायें हो सकती हैं, अच्छी बुरी मान्यतायें समाज में हो सकती हैं, अच्छे बुरे विचार लोगों के हो सकते हैं। उन अच्छी बुरी धारणाओं, मान्यताओं और विचारों में से जिस किसी की प्रबलता होती है, व्यक्ति का व्यक्तित्व वैसा ही निर्धारित हो जाता है। एक संत के भीतर गुणों की खान है, तो उसके गुणों के कारण उसका गुणी व्यक्तित्व सबके लिए प्रेरणादायी बन जाता है, जबकि एक चोर के भीतर चोरी का भारी अवगुण है जो उसके अन्य गुणों को प्रभावशून्य करने की क्षमता रखता है। इसलिए उस चोर का व्यक्तित्व चोरी का बन जाता है। समझो कि संत से व्यक्तित्व को संत का गुण इसलिए मिला कि वह संतत्व से ओतप्रोत है और चोर के व्यक्तित्व को चोर का नाम इसलिए मिला कि वह चोरी के गुणों से ओतप्रोत है। ज्ञात हुआ कि हमारे विषय में लोगों की सामान्य अवधारणा का नाम हमारा व्यक्तित्व है। यही स्थिति किसी समाज या किसी राष्ट्र की हुआ करती है। लोगों की सामान्य धारणा उसके विषय में जैसी होती है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है वैसा ही उसका चरित्र होता है। भारत के विषय में यदि विदेशियों की ऐसी धारणा है कि यह देश चरित्र और नैतिकता में बहुत ऊंचा था और शेष संसार के लोगों का मार्गदर्शक था तो समझिये कि ऐसा ही हमारा राष्ट्रीय व्यक्तित्व और राष्ट्रीय चरित्र था।
लूट हमारा चरित्र नही था
हम पूर्व में भी प्रसंगवश यह स्पष्ट कर चुके हैं कि लूटमार करना या जंगली जीवन जीना हमारा चरित्र नही था। हम एक उच्च मानवीय सभ्यता और विश्व की एक मात्र श्रेष्ठतम संस्कृति के सृजनहार थे। जिसमें हर पग पर समतावाद था-विषमतावाद नही, समतामूलक समाज का वास्तविक स्वरूप कार्य कर रहा था, ऊंच नीच का कोई भेद नही था, निर्धन-धनी का कोई अंतर नही था। सर्वत्र समाजवाद था, पंूजीवाद का लोग नाम तक नही जानते थे। उस सर्वत्र सुखदायक परिवेश में भारत और शेष विश्व पूर्ण शांति का जीवन यापन कर रहे थे। विखण्डन और विघटन के लिए या मानव को मानव से दूर करने वाली दूषित मानसिकता के लिए समाज में कहीं कोई स्थान नही था।
इस्लाम के कारण पूंजीवाद बढ़ा
विश्व में पूंजीवादी सोच व्यक्ति की धन संग्रह की सोच के कारण विकसित हुआ करती है। यह व्यवस्था समाजवाद के और लोकतंत्र के सर्वथा विपरीत दिशा में प्रवाहमान रहती है। इसमें एक सबल व्यक्ति निर्बल पर शासन करने की भावना से ग्रसित रहता है। सबल निर्बल को, धनी-निर्धन को, शक्तिशाली अशक्त को और सामथ्र्यवान असमर्थ को अपने शासन में रखने की दुश्प्रवृत्ति से ग्रसित रहता है। इस प्रकार की भावना व्यक्ति के भीतर तानाशाही प्रवृत्ति को जन्म देती है और वह दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करने लगता है। धन की लालसा बढ जाती है और व्यक्ति सांसारिक संपदा को ही इहलोक और परलोक के लिए सहायक समझ बैठता है।
इस्लाम के आक्रमणों का उद्देश्य भारत के संदर्भ में ही नही अपितु विश्व के संदर्भ में भी पर संपदा को लूटना था। इस लूट में उन्हें जो मिलता था वह उनका हो जाता था। वस्तुत: वह जंगलराज था, जिसमें एक समुदाय आक्रामक और दूसरा आक्रांत हो गया था।
आक्रामक आक्रांत के धन को अपना मान रहा था, उसके लिए वह लूट कर रहा था, कोई सामाजिक बंधन नीति नियम या वैधानिक स्थिति उस समय ऐसी नही थी जो इस जंगलीराज को समाप्त करने हेतु आक्रामक जाति को बाध्य कर सके। अवैधानिक कार्यों के संपादन से आक्रामक लोग अराजकता फैला रहे थे और इतिहासकारों का न्याय देखिये कि उन अराजकतावादी आक्रामकों को ही संसार की श्रेष्ठ न्यायप्रिय और वीर जाति कहकर महिमामंडित कर दिया।
लूट के आज्ञापत्र वितरित कर दिये गये
सल्तनत काल में सबसे बड़ा लुटेरा सुल्तान या बादशाह होता था। इसके पश्चात वह अपने प्रति लोगों की निष्ठा को अटूट रखने तथा उन्हें सत्ता में भागीदार बनाने के लिए उपकृत किया करता था। जिससे वह विद्रोही ना हों और सत्ता प्रतिष्ठानों में अपना उचित अंश पाकर कृतार्थ रहें। यह अलग बात है कि समय आने पर इन भागीदारों की धन लिप्सा बढ़ी और वे ‘बड़ा लुटेरा’ बनने के लिए विद्रोह करने लगे। पर ध्यान देने की बात ये है कि इन विद्रोही मुस्लिम सामंतों का उद्देश्य अपने स्वामी के समान ‘लूट के माल’ का स्वामी बनना होता था, उनका पेट थोड़े से नही भर रहा था।
इस प्रकार सत्ता प्रतिष्ठानों में लूट के काल के भागीदार नीचे तक के मुकद्दम लोगों तक को बना दिया गया। ऐसी अमानवीय और असामाजिक परंपरा भी विकसित की गयी कि लोगों को एक क्षेत्र से एक निश्चित धनराशि (कर, जिसे वार्षिक कर के रूप में वसूला जाता था) के बदले में दे दिया जाता था कि तुम हमें एक वर्ष में इस क्षेत्र से इतना धन वसूल करके दोगे, इससे अधिक जो वसूलोगे वह तुम्हारा। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण शासक शोषक हो गये। क्योंकि ऐसी स्थिति में जनहित कहीं दूर हो गया और शोषण प्रधान व्यवस्था विकसित हो चली। उनका ध्यान धन वसूलने पर अधिक रहता था। राजधर्म शासक वर्ग की भावनाओं तक में नही रहा। यह सत्ता का दुरूपयोग था। बंदरबांट का यह काल जनहितकारी शासकीय नीतियों से सर्वथा शून्य था। प्रजा को सत्ताधीशों ने अपने लिए उत्पन्न हुआ मान लिया, यह भावना ही समाप्त हो गयी कि हम (अर्थात शासक वर्ग) जनता के लिए उत्पन्न हुए हैं।
इस अराजकतावादी बंदरबांट में कई ऐसे हिंदू शासक राय और मुकद्दम भी सम्मिलित थे जो किसी सुल्तान को जनता से धन वसूल कर उसे कर के रूप में दिया करते थे। इस प्रकार सत्ता सोपान धन चढ़ावे का केन्द्र बन गये और जनता के मध्य राय मुकद्दम नवाब और कई राजा भी धन वसूलने का माध्यम बन गये।
जनता इस स्थिति पूर्णत: असंतुष्ट थी
वस्तुत: यह स्थिति अराजकतावाद की थी, जिससे भारत की हिंदू जनता पूर्णत: असहमत और असंतुष्ट थी। उसने अब तक के इतिहास में शासक का ऐसा अराजक राजधर्म कभी नही देखा था जिसमें प्रजा शोषण ही शासक का मुख्य उद्देश्य हो। सल्तनत काल में भारत के लिए यह ‘अराजक राजधर्म’ पहला अनुभव था।
इस अराजक राजधर्म के विरूद्घ विद्रोही हो जाना हिंदू प्रजा के लिए आवश्यक था और यही वह प्रमुख राजनीतिक कारण था जिसने हिंदुओं को सुल्तानों के लंबे काल खण्ड में उनके विरूद्घ सदा विद्रोही बनाये रखा।
इस व्यवस्था से पनपी पूंजीवाद की व्यवस्था
यह एक सर्वसम्मत और सर्वमान्य सिद्घांत है कि जब एक व्यवस्था दुर्गधिंत हो जाती है तो उसके उस दुर्गंधित स्वरूप से दूसरी व्यवस्था का जन्म और विकास होता है। मुस्लिम शासक यदि भारत में किन्हीं क्षेत्रों में राज्य करने में सफल होते रहे तो इसका एक कारण हमारी राजनीतिक व्यवस्था में आये गंभीर दोष भी थे। हम आलसी, प्रमादी, दम्भी और कई ऐसे अकर्मण्य राजाओं को देखते हैं जिनके काल में या तो यथास्थितिवाद भारत में छाया रहा अथवा जनहित के कार्यों की गति नगण्य रही। उनके इस दोष के कारण देश में राजनीतिक स्तर पर राजाओं में परस्पर सहयोग की भावना प्रभावित हुई। जिसे शत्रु इतिहास लेखकों ने अतिरंजित शैली में वर्णित करते हुए हमारी पारस्परिक फूट का नाम दिया है। कुछ भी हो, परिस्थितियां ऐसी थीं कि विदेशी आक्रांता मुस्लिम शासकों को यहां राज्य करने का अवसर मिल गया।
इस नई व्यवस्था का जन्म भारतीय शासकों की दुव्र्यवस्था पर हुआ था, इसलिए इसका पहला दोष तो यही था कि यह व्यवस्था दुर्गंधित दुव्र्यवस्था से जन्मी थी। फलस्वरूप इस व्यवस्था ने एक नई सामाजिक विसंगति को जन्म दिया। भारत का शासक बनने के लिए और उसके पश्चात यहां शोषण और दमन का चक्र चलाने के लिए शासकों में होड़ मच गयी। चारों ओर कलह और कटुता की भावना व्याप गयी। जनता उस समय अपना ऐसा शासन चाह रही थी जो लोकतांत्रिक हो, और जनहित जिसका उद्देश्य हो।
जनता चाहती थी लोकतंत्र
भारत के विषय में यह तथ्य शत्रु इतिहास लेखकों ने जानबूझकर उपेक्षित किया है कि भारत की जनता सल्तनत काल में लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रही थी। हमें तो यह अनुभव कराया जाता रहा है कि भारत को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक विचारधारा का प्रथम ज्ञान विदेशियों और विशेषत: ब्रिटिश लोगों के संपर्क में आने पर हुआ। इससे पूर्व यह देश और इस देश के निवासी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक विचारधारा के विषय में कुछ नही जानते थे। जबकि वास्तविकता ये है कि भारत को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था का दीर्घकालीन अनुभव रहा था। उसने राज्य और राजा की स्थापना की लोकतंत्र की रक्षा के लिए की थी। पर अब जिस स्थिति को भारत की जनता देख रही थी, वह अकल्पित और भारत के राजधर्म के सर्वथा विपरीत थी। इसलिए उसके विरूद्घ स्वतंत्रता संघर्ष करना जनता ने अपना धर्म बना लिया। इस प्रकार सल्तनत काल में जो स्वतंत्रता संघर्ष भारत की जनता की ओर से चलाया गया वह विकृत राजधर्म के विरूद्घ हिंदू का लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए किया गया संघर्ष था।
कभी भी ऐसा नही हो सकता है कि कोई समाज सदियों तक अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करे और उसके स्वतंत्रता संघर्ष का कोई उद्देश्य ना हो, कोई आदर्श ना हो और कोई मूल्य ना हो। हमने इस काल में हिंदुओं द्वारा किये गये दीर्घकालीन स्वतंत्रता संघर्ष को निरूद्देश्य माना है। इतिहास पढ़ते समय ऐसा लगता है कि जैसे हमारे पूर्वज पूर्णत: मूर्ख ही थे, जिन्हें सत्ता के साथ सामंजस्य बैठाकर रहना नही आता था। इस इतिहास ने हमें यह नही बताया कि शासक वर्ग हिंदू समाज के साथ सामंजस्य बैठाकर उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था नही देना चाहता था, और हिंदू समाज उस व्यवस्था को लेना चाहता था। वह अपने मौलिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा था। वह जीवन जीने का अधिकार ही नही चाहता था अपितु जीवन को सम्मानित ढंग से जीना चाहता था, और शासक की नीतियों को इतना उदार और लचीला बनाना चाहता था कि उसके रोम-रोम से सर्वोदयवाद और अन्त्योदयवाद झलकने लगे। इतने उच्च मानवीय समाज के संघर्ष को निरूददेश्य मानना आत्महत्या के समान है।
हिंदुओं पर मिथ्या आरोप
भारतीय लोगों पर और विशेषत: हिंदुओं पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे मुस्लिम शासकों का इसलिए विरोध कर रहे थे कि वे मुस्लिम थे, यह आरोप भी मिथ्या है, क्योंकि मुस्लिम शासक हिंदुओं के इसलिए विरोधी थे कि वे हिंदू हैं। राजा का अनुकरण जनता किया करती है। राजा कभी प्रजा का अनुयायी नही होता है। इतिहास को स्वाभाविक और सहज रूप से अपनी दिशा निर्धारित करने देनी चाहिए। यदि इतिहास को सत्य बोलने दिया जाए तो सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध के हर अवसर से लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग के लिए उठते स्वरों को देखकर हर भारतीय को गर्व होगा कि हमारे पूर्वज सर्वोदयवादी और अन्त्योदयवादी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए उस समय कितना महत्वपूर्ण संघर्ष कर रहे थे, जिस समय शेष विश्व इनके विषय में कुछ भी नही जानता था।
इसलिए हम कहते हैं कि खोल दो इतिहास के बंधन। खोल दो इसकी हथकड़ी और तोड़ दो इसकी वह कारा जिसमें यह सदियों से दासत्व का जीवन यापन कर रहा है।
बहने दो वह समीर जो यहां सर्वोदयवाद और अंत्योदयवाद को स्थापित करे और बहने दो वह सरिता जो यहां सदियों से राजधर्म से हीन सत्ता प्रतिष्ठानों को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक विचारधारा का पवित्र पाठ पढ़ा सके।
हमारे इतिहास को यदि सही ढंग से लिखा जाए तो एक कटु सत्य यह भी स्थापित होगा कि शासन को लूटतंत्र में परिवर्तित करने में सल्तनत कालीन सुल्तानों की ‘लूट मचाओ नीति’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसका अंतिम परिणाम यह निकला कि भारत ही नही अपितु सारा विश्व ही पंूजीवादी व्यवस्था में जा फंसा। जहां पूंजी श्रम पर शासन करती है। यह एक सुखद आश्चर्य है कि सदियों के संघर्ष के पश्चात भी भारत का हिंदू समाज आज भी लोकतांत्रिक है और वह पूंजीवादी व्यवस्था से रूबरू होकर भी अपनी अपरिग्रहवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही जी रहा है। हिंदू का ऐसा होना इस बात का प्रमाण है कि उसके विषय में विश्व के विभिन्न विद्वानों का यह निष्कर्ष सत्य ही है कि हिंदू स्वभावत: विनम्र ईमानदार न्यायप्रिय, विद्याप्रेमी इत्यादि होते हैं। साथ ही यह भी कि यदि आज भी हिंदू अपरिग्रहवादी है तो वह अपने स्वतंत्रता के संघर्ष को इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखकर लड़ रहा था।
लोकतंत्र से लूटतंत्र और लूटतंत्र से पूंजीवाद के इस यात्रा वृतांत पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि इस वृतांत से हमारे हिंदू पूर्वजों के उच्च राजनीतिक, सामाजिक और बौद्घिक आदर्शों की जानकारी हमें होगी और हमें अपने सल्तनत कालीन स्वतंत्रता संघर्ष को सही अर्थों में समझने का अवसर मिलेगा।

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