व्यंग्य:अबके पूरे छह हजार!

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हालांकि उनके आजकल रमजान के रोजे चले हैं। बंदे हैं कि दिनभर पानी भी नहीं लेते तो नहीं लेते। अच्छी बात है, इसी बहाने हमारे मुहल्ले के नलकों का पानी भरी बरसात में तो बच रहा है! नहीं तो भर बरसात में नल के पास होने वाली लड़ार्इ में न चाहते हुए बाल्टी नचाते उन्हें भी शामिल होना पड़ता था। अबके अपने शहर में सब आए पर एक बैरी मानसून नहीं आया। पर प्रशासन है कि मानसून से पैदा हुर्इ हर तरह की संभावित आपदा से निपटने के लिए कागज की किषितयां ले कमर कसे बैठा है। खैर, खाने वालों के तो बारहों महीने बसंत रहता है। देश में सूखा पड़े या बरसात से तबाही हो । भगवान ने तो उनके हाथों में हर मौसम में बटोरने की हाथ से भी लंबी रेखा खींची होती है। भगवान उनके हाथों की लंबी रेखाएं बनाए रखे!

कर्इ बार जब इन्हें देखता हूं तो लगता है कि मेरा फास्ट तो इनसे हजारों दर्जे अच्छा है। मां के दिनों में मैं व्रत रखता था तो बहुत बुरा हाल हो जाता था। जबसे फास्ट रखने लगा हूं मजे में हूं। धर्म का काम भी मजे से हो जाता है और… पेट को भी मारना नहीं पड़ता। मन को तो खैर कभी मैंने भगवान की दया से मारा ही नहीं!

शाम को उनका रोजा तब खुलता है जब वे मुझे ठूंस ठूंस कर खिला नहीं लेते। अगर वे सुन रहे हों तो कृपया मुझे माफ करें। कल मैंने उनसे इस बारे कहा भी कि क्या मुझे काफिर बना छोड़ने का इरादा है? तो वे अपने हिस्से की आखिरी चपाती भी मेरी थाली में डालते बोले, काफिरपना रोटी से नहीं, रोटी के बाद से शुरू होता है, और िमयां अपनी तो पुष्तैनी दौड़ रोटी से आगे रही ही नहीं। रोटी से आगे हम जाना भी नहीं चाहते। रोटी के आगे से ही सारे नंबर दो के धंधे शुरू जो होते हैं। तब फिर सोचा कि उनसे साफ साफ कह दूं कि अगर मियां खिलाने का इतना ही षौक रखते हो तो ठूंस ठूंस कर ये रोटी शोटी नही, नोट शोट खिलाओ। रिटायर माल महकमे के बंदे हैं। खुदा कसम , जब तक हाथ में पावर थी बंदे तो एक किनारे, भगवान को भी नहीं बख्षते थे। उसे भी उसके मंदिर के कागजात लेकर ही देते थेे। नहीं तो लगाता रह प्यारे मेरे दफतर के चक्कर पे चक्कर! अपनी नजर में तो बंदा और भगवान दोनों बराबर हंै। बिना कुछ लिए तो अपने बाप का भी काम नहीं करते तो बस नहीं करते! कानून सबके लिए अपने महकमे में एक है। चाहे राजा हो चाहे गंगू तेली। बाद में ऊपर गए अपने विभाग के एक बंदे ने फोन पर बताया कि भगवान ऊपर अगर किसी से डरता है तो बस माल महकमे वालों से। उनके आगे तो उसकी घिग्घी बंधी रहती है। और दूसरी ओर तो, दूसरों कि तो वह सुनता तक नहीं।

कल वे दिन में ही लडडुओं का डिब्बा हाथ में आते दिखे तो मुंह में पानी वैसे ही भर आया जैसे कभी बरसात के दिनों में अपने गांव का तालाब लबा लब भरा जाया करता था। आते ही उन्होनें डिब्बा खोला और दो लडडू सीधे मेरे मुंह में ठोक बोले,’ बधार्इ यार!

‘ किस बात की? सरकार ने डीए की किश्त अनाउंस कर दी क्या? कह मैंने तीसरे लडडू के लिए मुंह खोला तो वे बोले,’ नहीं यार! तुम कहते थे कि अपने शहर का प्रशासन सोया रहता है पर उसने एक काम तो कर ही दिया, कह उन्होंने तीसरा लडडू मेरे मुंह में डाला तो मैंने पूछा,’ क्या सरकार ने महीने से जला अपने मुहल्ले का ट्रांसफार्मर ठीक करवा दिया?

‘नहीं!

‘ तो हर रोज अब हमारे मुहल्ले में पानी आया करेगा?

‘नहीं!

‘तो??? चौथा लडडू खाने की अब मेरी हिम्मत नहीं बची थी! हर लडडू पेट में जाने के बाद भी नीम कड़वा लग रहा था,’ यार! अपने शहर के प्रशासन ने अबके शहर के सारे कुत्ते गिन लिए!

‘कौन से, पालतेू या आवारा?

‘ कुत्ते कुत्ते होते हैं यार! वे चाहे पालते हों या आवारा!

‘ तो कितने निकले? मैंने डरते हुए पूछा तो वे शांत भाव से बोले,’ इतने छोटे से शहर में अबके छह हजार!

चलो , कम से कम एक पिक्चर तो साफ होने पर अब मुए भ्रम में जीने से तो मुकित मिली।

अशोक गौतम

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