व्यंग्य बाण : मेरी छतरी के नीचे आ जा..

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sonia and narendra modiइस सृष्टि में कई तरह के जीव विद्यमान हैं। सभी को स्नेह-प्रेम, हास-परिहास और मनोरंजन की आवश्यकता होती है। पशु-पक्षी भी मस्ती में खेलते, एक-दूसरे पर कूदते और लड़ते-झगड़ते हैं। यद्यपि कथा-सम्राट प्रेमचंद ने ‘दो बैलों की कथा’ में बैल के साथ ही एक अन्य प्राणी की चर्चा की है, जो कभी नहीं हंसता, और वह है गधा।

हमारे मित्र शर्मा जी यहां प्रेमचंद से असहमत हैं। उनका कहना है कि उन्होंने अपने गांव में एक बार गधे को भी हंसते देखा था। उन्होंने खोजबीन की, तो पता लगा कि गधे के मालिक ने अपनी पत्नी को पिछले साल एक चुटकुला सुनाया था। वह गधे को जब समझ में आया, वह तब ही हंसा। इसमें उस बेचारे का क्या दोष है ?

खैर, ये तो हंसी की बात हुई; पर जहां तक मानव की बात है, मनोरंजन न हो, तो उसका जीवन रसहीन होकर रह जाए। इसीलिए उसने गीत, संगीत, नृत्य, फिल्म, सरकस, नाटक आदि का आविष्कार किया। इनमें से कुछ के लिए जेब ढीली करनी पड़ती है, तो कुछ सड़क पर चलते-चलते निःशुल्क मिल जाता है। वन और पर्वतों के निवासी तो शाम ढलते ही लोकगीत और लोकनृत्य के सागर में डूब जाते हैं। यह उनका मनोरंजन भी है और संस्कृति भी।

इन दिनों मनोरंजन का एक प्रमुख माध्यम है फिल्म और उसके गीत। कभी-कभी कुछ फिल्में और उनके गीत बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं। पिछले दिनों ‘मुन्नी बदनाम हुई’ और ‘शीला की जवानी’ जैसे भौंडे गीत भी बहुत चले। कुछ लोगों ने इन्हें ‘इस’ या ‘उस’ से जोड़ने का भी प्रयास किया; पर उनकी चाल सफल नहीं हुई। ऐसे गीत धूमकेतु की तरह कुछ दिन तक अपनी चमक बिखेर कर फिर सदा के लिए ओझल हो जाते हैं।

पर कुछ गीत सार्वकालिक होते हैं। उन्हें चाहे जब सुनें, पर ऐसा लगता है मानो इन्हें आज ही लिखा गया है। लगभग 40-50 साल पहले एक हरियाणवी लोकगीत बहुत प्रचलित हुआ था, ‘‘मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यों भीगे कमला खड़ी-खड़ी।’’ गांव में जाने पर आज भी यह सदाबहार गीत कभी-कभी कान में पड़कर हृदय के तार झंकृत कर देता है। मुझे फिल्में देखने का कभी शौक नहीं रहा, इसलिए मैं कह नहीं सकता कि यह किस फिल्म का गीत है; पर जो भी हो, गीत अच्छा था।

जैसे हर मौसम के कुछ विशेष व्रत, पर्व, खानपान और व्यंजन होते हैं, वैसे ही भारतीय संगीत जगत में हर मौसम के राग और गीत भी हैं। जिस गीत में छतरी और भीगने की बात हो, उसे सुनकर स्वाभाविक रूप से बरसात के रिमझिम मौसम की याद आ जाती है।

पर इस गीत का महत्व केवल बरसात में ही नहीं, चुनावी मौसम में भी है। जब से लोकसभा चुनाव की आहटें आने लगी हैं, तब से जिसे देखो, अपनी छतरी को सजाने और संवारने में लगा है। न जाने कब कोई कमला, विमला या सरला भीगने से बचने के लिए उसके नीचे आ जाए।

जहां तक भारत की बात है, इन दिनों सर्वत्र दो छतरियों की धूम है। एक ओर भाजपा है, तो दूसरी ओर कांग्रेस। एक छतरी को नरेन्द्र मोदी संभाले हैं, तो दूसरे को मैडम इटली। जैसे शौकीन लोग अपने तांगे या रिक्शे का नाम भी ‘झूमरीतलैया मेल’ रख लेते हैं, ऐसे ही इन दोनों छतरियों के नाम क्रमशः रा.ज.ग. और सं.प्र.ग. हैं; पर उसके नीचे लगा डंडा किसका है, यह सबको पता है।

आप चुनावों को भले ही विचारों का युद्ध कहें या संस्कारों का; पर शर्मा जी इसे स्पष्टतः ‘छतरी युद्ध’ बताते हैं। हल्ला भले ही नरेन्द्र मोदी का अधिक हो; पर कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को अपनी छतरी में लाकर मैडम इटली ने भी अपने हाथ मजबूत किये हैं। और अब तो झारखंड भी उनकी छतरी में आ गया है। इतना ही नहीं, तो बिहार को रा.ज.ग. की छतरी से निकाल लेना भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।

यह देखकर नमो-नमो का जाप करने वाले भी चिंतित हैं। यद्यपि ऊपर से वे सामान्य दिखने का प्रयास करे रहे हैं। वैसे कुछ लोगों का मत है कि झारखंड की छतरी का कपड़ा इतना कमजोर है कि दो-चार महीने में वह खुद ही फट जाएगा। बिहार में भी अंदर-अंदर खुदबुदाहट हो रही है। जहां तक उत्तराखंड की बात है, थोड़ा प्रयास करें, तो तीन नेताओं के आपसी झगड़े की आंधी में उलट गये छतरी के कपड़े को भी सीधा किया जा सकता है।

यह सब माहौल देखकर नरेन्द्र मोदी भी खूब कोशिश कर रहे हैं। कभी वे अपनी छतरी जयललिता की ओर बढ़ाते हैं, तो कभी ममता और मायावती की ओर; पर किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘‘बूढ़ी नारी और वो भी कुंवारी, समझो है तलवार दुधारी।’’ इसलिए ये तीनों अभी पत्ते खोलने को तैयार नहीं हैं कि वे कहां जाएंगी ? वैसे इनका इतिहास-भूगोल देखकर छतरी वाले भी सदा शंकित ही रहते हैं।

कुछ लोग एक तीसरी छतरी के जुगाड़ में हैं। पहले भी इसके लिए कई बार प्रयास हो चुके हैं। राष्ट्रपति चुनाव में भी छतरी बदल का खेल हुआ ही था। उस समय वामपंथी अपना डंडा लिये खड़े रहे; पर मुलायम सिंह काले कपड़े से मुंह ढांपकर पतली गली से निकल गये। इस पर ममता बनर्जी ने भी अपने तार समेट लिये।

लोकसभा चुनाव को देखते हुए एक बार फिर यह कवायद हो रही है; पर छतरी के लिए डंडा कौन लाएगा और कपड़ा या तीलियां कौन, इस पर ही लाठियां चलने को तैयार हैं। नीतीश कुमार से लेकर नवीन पटनायक तक, हर कोई खुद को तीसमार खां के असली बाप से कम नहीं समझता। छतरी बनने से पहले ये हाल है, तो बाद में क्या होगा, ईश्वर जाने ?

शर्मा जी का विचार है कि छाते की असली शक्ति तो उसके डंडे में है। मजबूत डंडे पर ही लोहे की तीलियां लगती हैं और फिर उसके ऊपर बरसाती कपड़ा। इसलिए दोनों बड़े दल अपने डंडे को तेल पिला रहे हैं। अब किसका छाता कितना बड़ा, आकर्षक और मजबूत है, यह तो 2014 में ही पता लगेगा; पर इस बार सवाल सिर्फ कमला, विमला या सरला का ही नहीं, देश की सवा अरब जनता का भी है।

इसलिए शर्मा जी की सलाह है कि दोनों बड़े दल अगले एक साल तक इस गीत को कुछ ऐसे गाएं, तो अच्छा होगा।

‘‘मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यों भीगे जनता खड़ी खड़ी।।’’

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