हमें गर्व है कि हम उस मक्खी-प्रधान देश के वासी हैं जिसे कि मक्खियों के
मामले में दुनिया में एक विकसित सुपरपावर देश का दर्जा हासिल है। मक्खी
हमारे दैनिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मक्खी के बिना हमारी ज़िंदगी
वैसी ही बेमतलब है जैसे गोरेपन की क्रीम के बिना रेशमी त्वचा। ये
मक्खियां ही तो हैं जो हमारी ज़िंदगी को सनसनाती ताजगी से भरपूर बनाती
हैं। मक्खियां हमारे रोबदार व्यक्तित्व का श्रृंगार हैं। हजार शेर मारने
के बाद भी किसी को वह सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती है जो सदियों से एक
तीसमारखां को हमारे देश में फटाक से मिल जाती है। इसीलिए हर
महत्वाकांक्षी हिंदुस्तानी की यही इकलौती अंतिम इच्छा रहती है कि जीते-जी
उसे भी एक अदद तीसमारखां का सर्वोच्च खिताब हासिल हो जाए। बड़ी उग्र
साधना और तपस्या के बाद ही चंद खुशनसीबों को हमारे देश में यह खिताब
हासिल हो पाता है। क्योंकि किसी भी सरकारी-गैर सरकारी संस्था द्वारा इस
का चुनाव नहीं किया जाता है। और न ही इसके जुगाड़ के लिए कहीं कोई
प्रायोजित सर्वे ही किये जाते हैं। इसे हासिल करने के लिए भैरंट
सर्वसम्मति और अटूट लोक-मान्यता के साथ ही मक्खियों के बिना शर्त बलिदानी
सहयोग की सख्त ज़रूरत होती है। सिर्फ यही देश का एक मात्र ऐसा अलंकरण
है,जो निर्विवाद है और जिसे मिल गया उसने कभी इसे लौटाया नहीं। तीस
मक्खियों का नृशंस वध करने की जिसमें दुर्दांत कुव्वत होती है सिर्फ वही
वीर मक्खी-मर्दक इस खिताब को हासिल कर पाता है। कहते हैं स्वर्ग में
मक्खियां नहीं होती हैं।यह देवताओं का मक्खीमोह ही है जो बार-बार उन्हें
भारत में जन्म लेने के लिए ललचाता है। उन देशों में क्या अवतार लेना जहां
मक्खी डायनासोर की तरह प्रलुप्त प्रजाति में दर्ज हो चुकी हो। और बेचारे
देवता फालतू समय में मक्खी मारने को भी तरस जाएँ। यह तो सरासर नाइंसाफी
होगी कि चार-चार हाथ और मारने को एक अदद मक्खी नसीब नहीं। हमारी सरकार भी
इसलिए मच्छर मारने के लिए भले ही कितने मलेरिया डिपार्टमेंट खोल ले मगर
मजाल है कि कभी मक्खी का बालबांका करने की उसने जुर्रत की हो। बिना
राजनैतिक भेदभाव के हमारे देश की नगरपालिकाएं तो पूरी निष्ठा के साथ
मक्खियों के पालन-पोषण के पुण्यकार्य में ही लगी रहती हैं। उनकी यह अखंड
मान्यता है कि स्वस्थ्य पर्यावरण के लिए मक्खी उतनी ही जरूरी है जितनी कि
मंत्री के लिए लालबत्ती की कार। पॉश कॉलोनियों और झुग्गी-बस्तियों से
लेकर हलवाई की दुकानों तक सफाई दस्तों द्वारा औचक निरीक्षण किये जाते हैं
यह देखने के लिए कि देश की इस अमूल्य राष्ट्र-धरोहर के साथ कहीं कोई
क्रूर छेड़-छाड़ तो नहीं की जा रही। बिना नहाए-धोए महीनों साधना में रत
ऋषि-मुनियों के मक्खी-मंडित दिव्य शरीरों को देखने स्वर्ग की अप्सराएं
उनके आश्रमों में पर्यटन के लिए खूब आया-जाया करती थीं। और दाढ़ी-मूंछों
पर लगे मक्खियों के छत्तों को देखकर खुशी से ऐसा भरतनाट्यम करने लगतीं कि
तप के ताप में तपीं मक्खियां इस कदर घबड़ा जातीं कि ऋषि-मुनियों की
तपस्या तक भंग हो जाती। कहते हैं कि जहां गुङ होगा वहां मक्खियां आएंगी
ही। गर्दिश में भले ही गुङ का गोबर हो जाए मगर मक्खियां अपना घर छोङकर
कभी नहीं जाती। लानत है उन पर जो चंद सिक्कों के लालच में अपना देश
छोङकर चले जाते हैं। इन्हें तो दूध में पङी मक्खी की तरह निकाल ही फेंकना
चाहिए। अपुन तो कई साल भरपेट परेशान रहे,लोगों के ताने भी सहे मगर अपनी
नाक पर कभी मक्खी नहीं बैठने दी। ये बात दीगर है कि सर्दियों के दिनों
में नाक के निचले पठार में प्रवासी साइबेरियन पक्षियों की तरह जरूर कुछ
पर्यटक मक्खियां पिकनिक मनाने चली आती हैं। इस मनोरम दृश्य को देखकर मन
कह उठता है-मक्खी है जहां..कामयाबी है वहां। कामयाबी की बात चली तो पाताल
लोक में अहिरावण के हाइसिक्योरिटी महल में खुद बजरंगबली मक्खी के रूप में
ही घुसने में कामयाब हो पाए थे। और चार्ली चैपलिन को सारी शोहरत और
कामयाबी उसकी मक्खी मूंछ की बदौलत ही मिली थी। आजकल अपनी कड़क ख्वाइश है
कि अपुन की जिंदगी में भी कोई मोटे बैंक-बैलेंसवाली मक्खी आ जाए तो बात
बन जाए। इसलिए मैं हरेक मक्खी को ऐसी हसरतभरी निगाहों से निहारता हूं
जैसे वर्डबैंक को पाकिस्तान। निहारूं भी क्यों नहीं एक अदद मक्खी ही तो
है जो बिन फेरे हम तेरे की तर्ज पर जन्म से मृत्यु तक
भिनभिनाती-गुनगुनाती हर पल हर क्षण दिल्ली पुलिस की तरह अपनी सेवा में
मुस्तैद रहती है।