मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो

0
154

 जग मोहन ठाकन 

sonia-and-rahul-waveजब कृष्ण कन्हैया के मुख पर मक्खन लगा देख यशोदा पूछती है तो बाल गोपाल कहते हैं , ‘‘ मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो । ग्वाल बाल सब बैर पड़े हैं बरबस मुख लिपटायो ।’’  और मॉं यशोदा , यह मानकर कि चलो खाने पीने की चीज है , इधर उधर से लेकर भी खा ली तो कोई बात नहीं , नन्हे कन्हैया को माफ कर देती हैं ।मॉं का दिल विशाल समुद्र की तरह होता है । अभी अभी एक छोटे सरकार , जिसने एक सरकारी फैसले को गलत बताकर फैसला रद्द करने की जिद पकड़ ली थी तब छोटे सरकार की मॉं ने जिद के आगे झुक कर फैसला बदलवा दिया था और छोटे सरकार को माफ भी कर दिया था ।

हरियाणा में जब कोई व्यक्ति किसी समाज विसंगत कार्य को करने की जिद करता है तो उसे यही कहा जाता है कि ‘‘ क्या तेरी मॉं का राज है ?’’ यानि जिसकी मॉं का राज हो तो उसे गलत सलत सब करने का अधिकार स्वतः ही मिल जाता है । परन्तु जिनकी मॉं का राज ना हो उनकी कौन सुनेगा  इस कलयुग में ? खैर इस युग में तो वैसे भी यदि  कोई कृष्ण वंशी माखन तो क्या , बेचारा ‘चारा ‘ भी खा लेता है तो जाये जेल के अन्दर । अरे भले लोगो कुछ तो सोचो । एक तरफ तो फूड सिक्योरिटी बिल पास करवाया जा रहा है और दूसरी तरफ कुछ खाने  पीने वाले लोगों के मूंह पर ताला लगाया जा रहा है । ’चारा ’ तो होता ही खाने के लिए है । परन्तु लोग अपने तर्क गढ़ लेते हैं । कहते हैं कि ‘पशु चारा’  नहीं खाना चाहिए , पशु चारा खाना तो पशुओं के अधिकार पर डाका डालना है ।  लेकिन भारतीय संस्कृति में तो पशु और मनुष्य में कोई फर्क ही नहीं माना गया है । यहां तो गैया को मैया मानकर पूजा करने का इतिहास रहा है । फिर कहां फर्क है गैया और मैया चारे में । प्रकृति द्वारा प्रदत प्रत्येक वस्तु पर सभी का समान हक है , चाहे वो पशु हो चाहे मनुष्य । भारतीय चिकित्सा पद्धति में तो पशुओं का हरा चारा कहलाने वाले हरे गेहूं , जौ , पालक आदि पौधों का रस मनुष्य के लिए जीवनदायी बताया गया है ।आधुनिक आयुर्वेदाचार्य भी दिन रात इसी का प्रचार कर रहे हैं । फिर कहां फर्क रह गया है पशु चारे व मनुष्य चारे में ं।ये भेद मात्र मन द्वारा किया गया भेद है । जिसका मन माने वो खा ले , ना माने वो ना खाये । स्वर्गीय मोरारजी देसाई जी स्वमूत्र पान की ही वकालत करते थे । इसमे अनैतिक या गैर कानूनी तो कुछ भी  नहीं दिखता है । कुछ दूरबीन लगाये लोगों को न जाने क्यों इसमें खोट ही खोट नजर आता है । कहावत भी है ’’ गाहटे का बैल तो गाहटे में ही चरेगा ।

खाने पीने की चीजों पर इतना हो हल्ला नहीं होना चाहिए । ’’ खाया पीया डकार गये , करके कूल्ला बाहर गये ।‘‘ आदमी कमाता किस लिए है? सब कुछ, खाने पीने के जुगाड़ के लिए ही तो करता है इतनी मेहनत ।भला मेहनत का फल तो चखना ही चाहिए ना । अगर नेता लोग यों अन्दर होनें लगे तो कौन आयेगा इस धंधे में ? मिलिटरी में तो पहले ही नवयुवकों की रूचि घटती जा रही है । अगर नेतागिरी भी नीरस हो गई तो फिर जनता कहां से ‘‘सरकार ’’ लायेगी ? कहीं ‘सरकार ’ की अनुपलब्धता के कारण संवैधानिक संकट ही ना खड़ा हो जाये ?कहीं ऐसा संकट ना आ जाये कि हमें ‘सरकार ’ के ‘‘डम्मी ‘‘ बनाकर विदेशों में ‘‘प्रतिरूप प्रतिनिधि ’’ भेजने पड़ जायें । डर है कहीं ‘‘ रोबोट ‘‘ राज ना आ जाये । हे श्री कृष्ण ! अब तो तू ही अवतार ले ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here