आम आदमी
राहु और केतु के पाश में
जकड़ा रहता है हमेशा
कभी नहीं मिल पाता
अपनी मंज़िल से
भीड़ में भी रहता है
नितांत अकेला
भूल से भी साहस नहीं कर पाता है
ख्वाब देखने की
संगीत की सुरीली लहरियां
लगती है उसे बेसूरी
हर रास्ते में ढूंढता है
अपने जीवन का फ़लसफ़ा
खड़ी फसल नहीं दिखा पाती है
उसे जीवन का सौंदर्य
वैराग्य में भी
ख़ोज़ लेता है
उज़ाला
लगता है
आम आदमी की नियति में बदा है
पानी में रहकर भी
प्यासे मर जाना।
तलाक
कोर्ट से तलाक लेकर
घर लौटने पर
घर तब्दील हो जाता है
एक बेतरतीब दुनिया में
कभी नींद नहीं खुली
तो बच्चे स्कूल नहीं जा सके
कभी खुली
तो कौन किससे पहले
तैयार होगा?
छोटी की टाई नहीं मिल रही है
बड़ी के शर्ट के बटन टूट गये हैं
नाश्ता तैयार नहीं हुआ है
बच्चों को स्कूल से कौन लाएगा?
हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा है
घर का प्रबंधन
पूरी तरह से
अस्त-व्यस्त हो चुका है
डायनिंग टेबल पर
कपड़े सूखने के लिए रखे हैं
पलंग पर होम थियेटर रखा है
घर के सारे दीवारों को
बच्चों ने
अपनी चित्रकारी से सज़ा रखा है
न डांट है, न नसीहत
न चिंता है न नाराज़गी
न हसीन लम्हे हैं, न कड़वे पल
बस पूरे घर में
पसरा है एक ऐसा सन्नाटा
जिसमें हलचल है
पर जीवन नहीं।
सतीश सिंह
श्री सतीश सिंह वर्तमान में स्टेट बैंक समूह में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में भी इनकी सक्रिय भागीदारी रही है। श्री सिंह दैनिक हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण इत्यादि अख़बारों के लिए काम कर चुके हैं।