बहुत कम लोग जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति अपने आपका निर्माण खुद ही करता है! हम प्रतिदिन अपने परिवार, समाज और अपने कार्यकलापों के दौरान बहुत सारी बातें और विचार सुनते, देखते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन जब हम उन बातों और विचारों में से कुछ (जिनमें हमारी अधिक रुचि होती है) को ध्यानपूर्वक सुनते, देखते, समझते और पढ़ते हैं तो ऐसे विचार या बातें हमारे मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेती हैं! जिन बातों और विचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क अधिक सजग, सकारात्मक और संवेदनशील होता। जिन बातों औरविचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क मोह या स्नेह या लगाव पैदा कर लेता है! उन सब बातों और विचारों को हमारा मस्तिष्क गहराई में हमरे अन्दर स्थापित कर देता है! उस गहरे स्थान को हम सरलता से समझने के लिये “अंतर्मन” या “अवचेतन मन” कह सकते हैं! जो भी बातें और जो भी विचार हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में सुस्थापित हो जाते हैं, वे हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में सुस्थापित होकर धीरे-धीरे हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर अपना गहरा तथा स्थायी प्रभाव छोड़ना शुरू कर देते हैं! जिससे हमारे जीवन का उसी दिशा में निर्माण होने लगता है!
यदि हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में स्थापित विचार नकारात्मक या विध्वंसात्मक हैं तो हमारा व्यक्तित्व और व्यक्तित्व नकारात्मक, विध्वंसात्मक और आपराधिक विचारों से संचालित होने लगता है! हम न चाहते हुए भी सही के स्थान पर गलत और सृजन के स्थान पर विसृजन, सहयोग के स्थान परअसहयोग, प्रेम के स्थान पर घृणा, विश्वासस के स्थान पर सन्देह को तरजीह देने लगते हैं।
परिणामस्वरूप हमारा हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व इसी प्रकार से गलतदिशा में निर्मित होने लगता है। जैसा नकारात्मक हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता है, दैनिक जीवन में उसी के मुताबिक हम परिवार में तथा बाहरी लोगों से दुर्व्यवहार करने लगते हैं। जिससे हमारी, हमारे अपने परिवार तथा आत्मीय लोगों बीच हमारी ऐसी कुण्ठायुक्त पहचान निर्मित होने लगती है। हमारे अन्तर्मन या अवचेतन मन में बैठकर हमें संचालित करने वाली धारणाओं से हमारा व्यवहार और सभी प्रकार के क्रियाकलाप निर्मित और प्रभावित होते हैं। हम जाने अनजाने और बिना अधिक सोचे-विचारें उन्हीं नकारात्मक तथा रुग्ण विचारों के अनुसार काम करने लगते हैं! हमारे कार्य हमारे अन्तर्मन में स्थापित होजाते हैं।
वर्तमान में अधिकतर लोगों के साथ ऐसा ही हो रहा है! अधिकतर लोगों के अन्तर्मन में प्यार, विश्वागस, स्नेह और सृजनात्मकता के बजाय सन्देह, अशांति, घृणा, वहम, वितृष्णा, क्रूरता और नकारात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई है। इन सब क्रूर और असंवेदनशील विचारों के कारण हमारा व्यक्तित्व नकारात्मक दिशा में स्वत: ही संचालित होता रहता है। हमारी रुचियां भी हमारे इसी नकारात्मक और रुग्ण व्यक्तित्व के अनुरूप बनने लगती हैं।
हम अपनी नकारात्मक और रुग्ण रुचियों के अनुरूप बातों और विचारों में से फिर से कुछ (जिनमें हमारी अधिक रुचि होती है) को ध्यानपूर्वक सुनने, देखने, समझने और पढ़ने लगते हैं और जो विचार या बातें हमारे मस्तिष्क तथा अन्तर्मन को फिर से प्रिय लगने लगती हैं। उन्हें हम फिर से अपने मस्तिष्क में ससम्मान स्थान देना शुरू कर देते हैं। बल्कि हम ऐसी बातों क