सत्संग

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satsangसोहन ने कक्षा दस तक की पढ़ाई तो अपने गांव में ही की; पर फिर पढ़ने के लिए वह मेरठ आ गया। वहां उसने एक कमरा किराये पर ले लिया। श्याम भी उसकी कक्षा में ही पढ़ता था। अतः दोनों में मित्रता हो गयी। कुछ ही दिन में यह मित्रता इतनी बढ़ी कि दोनों ने मिलकर एक बड़ा कमरा ले लिया। अब वे साथ-साथ पढ़ते और खाते-पीते थे। पढ़ने में सोहन सामान्य था, जबकि श्याम प्रथम श्रेणी का विद्यार्थी था। साथ रहने में अधिक लाभ सोहन का ही था। चूंकि उसे कहीं कोई कठिनाई होती, तो श्याम उसकी सहायता कर देता था।

 

सोहन की पारिवारिक पृष्ठभूमि कुछ ऐसी थी कि वहां शराब और मांसाहार आम बात थी। घर में पैसे और नौकर-चाकरों की कोई कमी नहीं थी। 20 एकड़ खेती और दर्जनों दुधारू पशु थे। हर दिन सैकड़ों लीटर दूध सरकारी डेरी में जाता था। खेत के कुछ हिस्से में अपने खाने के लिए गेहूं, चावल और दाल आदि लगाकर बाकी में मुख्यतः गन्ने की ही पैदावार होती थी। गुड़ बनाने के लिए लगे कोल्हू से भी अच्छी आमदनी हो जाती थी।

 

सोहन के पिताजी ग्राम प्रधान थे। अतः घर पर लोगों की भीड़ लगी रहती थी। गांव में आवभगत का मुख्य साधन हुक्का ही है। उसे बार-बार ताजा करना पड़ता था। यों तो वहां कई सेवक थे; पर कभी-कभी सोहन भी ये काम कर देता था। हुक्का ताजा करने वाला शुरू में दो-चार दम लगा ही लेता है। इस चक्कर में सोहन को भी धूम्रपान की आदत लग गयी।

 

दूसरी ओर श्याम के पिताजी एक निजी विद्यालय में अध्यापक थे। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; पर घर का वातावरण बहुत धार्मिक और सामाजिक था। उसके पिताजी एक सत्संग से जुड़े थे। अतः श्याम भी बचपन से ही वहां जाने लगा था। मेरठ में उनके कमरे के पास ही उस सत्संग का एक केन्द्र था। अतः श्याम प्रतिदिन शाम को वहां जाने लगा। कुछ देर व्यायाम, फिर कुछ भजन, कथा आदि के बाद सत्संग समाप्त होता था।

 

सोहन को कुछ दिन तो खानपान सम्बन्धी परेशानी हुई; फिर दोनों ने एक समझौता कर लिया। इसके अनुसार सोहन ने शराब तो छोड़ दी; पर सिगरेट या मांसाहार के लिए वह बाजार चला जाता था। शाम के समय प्रायः छात्र कुछ खेलते ही हैं। अतः श्याम के साथ सोहन भी सत्संग में जाने लगा। क्रमशः सत्संग के कुछ कार्यकर्ता भी कमरे पर आने लगे। छुट्टियों में सत्संग के युवा शिविर लगते थे। श्याम तो कई बार उनमें जा चुका था, इस बार उसके आग्रह पर सोहन भी वहां गया। शिविर में उसे इतना मजा आया कि वह भी सत्संग के रंग में रंग गया।

 

इसका सुपरिणाम यह हुआ कि उसकी शराब, सिगरेट और मांसाहार जैसी आदतें छूटने लगीं। यद्यपि सत्संग में कभी इसकी चर्चा नहीं होती थी; पर वहां का वातावरण इतना सात्विक होता था कि लोग स्वतः इन्हें छोड़ देते थे; लेकिन घर जाने पर सोहन को सब कुछ खाना-पीना पड़ता था। चूंकि वहां का माहौल ही ऐसा था। पिता और पुत्र एक साथ बैठकर खाते और पीते थे। वहां यह पुश्तैनी सम्पन्नता और जातीय अभिमान के प्रतीक थे; पर मेरठ आकर अब वह इन चीजों को छूना भी पसंद नहीं करता था।

 

अगले दो वर्ष में सोहन और श्याम दोनों ने इंटर कर लिया। दोनों विज्ञान विषय के छात्र थे। श्याम की संगत का लाभ उठाकर सोहन ने भी प्रथम श्रेणी पा ली। घरेलू स्थिति के कारण श्याम पर दबाव था कि वह कुछ काम करे। उन्हीं दिनों नगरपालिका में कुछ कर्मचारियों की भर्ती होनी थी। अखबार में उसका विज्ञापन देखकर श्याम ने आवेदन कर दिया। पढ़ने में तेज होने के कारण उसका चयन भी हो गया। नौकरी करते हुए उसने प्राइवेट बी.ए. भी कर लिया। सुधा से विवाह के बाद उसने मेरठ में ही एक मकान बना लिया। इस प्रकार उसके जीवन की गाड़ी एक निर्धारित पटरी पर दौड़ने लगी। उसका वेतन बहुत साधारण था; पर जीवन में सादगी के कारण खर्चे अधिक नहीं थे। सुधा भी गरीबी में ही पली थी। अतः कम खर्च में ही वह घर को ठीक से चलाने लगी।

 

नौकरी और बाल-बच्चों के बाद भी वह सत्संग से जुड़ा रहा। अब उसे शाम को समय नहीं मिल पाता था। अतः वह सत्संग के प्रातःकालीन केन्द्र में जाने लगा। इससे सुबह की सैर और व्यायाम के साथ ही मानसिक संतोष भी खूब मिलता था। सत्संग में प्रायः शिक्षित और अच्छे स्वभाव के लोग ही आते थे। अतः उसने सुधा और बच्चों को भी सत्संग से जोड़ दिया।

 

उधर सोहन ने बी.एस-सी. और फिर एम.एस-सी. किया। श्याम के साथ रहने से उसकी बुरी आदतें तो छूटी हीं; उसे पढ़ने का चस्का भी लग गया था। अतः उसे दोनों में प्रथम श्रेणी मिली। इससे उसे बरेली के राजकीय इंटर कॉलिज में पढ़ाने का काम मिल गया। कॉलिज के अध्यापक-निवास में उसे एक मकान भी आवंटित हो गया। इस नौकरी से न केवल उसका, बल्कि उसके पिताजी का सम्मान भी गांव और बिरादरी में खूब बढ़ गया था। बरेली में भी वह वहां के सत्संग से जुड़ गया; लेकिन उसके घर से वह काफी दूर पड़ता था। अतः उसने घर के पास ही एक नया साप्ताहिक केन्द्र प्रारम्भ कर दिया। उसमें कई अध्यापक, कॉलिज के कर्मचारी और उनके बच्चे आने लगे। इससे कालोनी का वातावरण भी सुधर गया।

 

अब सोहन ने गांव में अपने घर का माहौल बदलने का प्रयास किया। उसके पिताजी जानते थे कि वह शराब आदि से दूर रहता है। अतः उसके आने पर इन चीजों का परहेज होने लगा। शुरू में चाचाजी ने कुछ आपत्ति की; पर फिर वे भी मान गये। वे चाहते थे कि उनके बच्चे भी सोहन जैसी ही उन्नति करें। अतः उन्होंने चुप रहना ही ठीक समझा।

 

अच्छी नौकरी मिलने से अब सोहन के लिए रिश्तों की लाइन लग गयी। कई लड़की वाले शादी में अच्छा पैसा खर्च करने को तैयार थे। बारात के स्वागत-सत्कार की जो परम्परा वहां थी, वे उससे दोगुने सत्कार की बातें कह रहे थे। उनके यहां लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का रिवाज नहीं था। सोहन चाहता था कि लड़की कम से कम बी.ए. जरूर हो। इस तलाश में दो साल लग गये; पर सफलता नहीं मिली। अंततः परिवार की सहमति से सोहन ने एक जगह हां कर दी। वह लड़की दसवीं तक पढ़ी थी। उसका नाम सीता था। विवाह की तारीख तय होते ही दोनों ओर तैयारी होने लगी।

 

सभी मां-बाप चाहते हैं कि उनके बेटे की शादी यादगार हो। सोहन के घर में तो यह पहला विवाह था। अतः उसके पिताजी के भी ऐसे ही सपने थे; पर सोहन ने उन्हें साफ बता दिया कि विवाह में शराब, मांस आदि बिल्कुल नहीं चलेगा। पिताजी ने बहुत समझाया कि ये हमारी बिरादरी की परम्परा है। इससे ही बारात की खातिरदारी का स्तर नापा जाता है; पर सोहन अड़ गया। उसने धमकी दी कि यदि आपने जिद की, तो मैं विवाह ही नहीं करूंगा। मजबूरी में पिताजी को उसकी बात माननी पड़ी।

 

जब यह खबर ससुराल पक्ष में पहुंची, तो वे चौंक गये। सोहन के पिताजी की तो समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी ही; पर सोहन की अच्छी नौकरी के कारण वे लोग बारात के भव्य स्वागत की तैयारी कर रहे थे। उस बिरादरी में इतना पढ़ा-लिखा कोई था ही नहीं। लड़के प्रायः सातवीं-आठवीं तक पढ़कर खेती या किसी छोटे-मोटे काम में लग जाते थे। बारात का स्वागत वहां कई तरह की शराब, मांस और नाच पार्टी से होता था। लड़की वालों को लगा कि कहीं हमने गलत जगह तो रिश्ता नहीं कर दिया ? सीता को भी बड़ा अजीब सा लगा, क्योंकि वह इसी माहौल में बड़ी हुई थी; पर बड़ों के बीच में वह क्या बोलती ? चुपचाप विवाह और भावी जीवन की कल्पना में ही डोलती रही।

 

निर्धारित तिथि पर बहुत सादगी और गरिमापूर्ण तरीके से विवाह सम्पन्न हो गया। सोहन के आग्रह पर श्याम अपने पूरे परिवार के साथ आया था। विवाह विधि पूरी होने पर सोहन ने पत्नी सहित अपने माता-पिता और अन्य बुजुर्गों के साथ श्याम के भी पैर छुए। श्याम उससे थोड़ा ही बड़ा था। अतः वह संकोच में पड़ गया। वहां उपस्थित लोग हैरान रह गये। कहां राजकीय कॉलिज का अध्यापक और कहां नगरपालिका का क्लर्क ? पर सोहन के घर वाले जानते थे वह आज जो भी है, श्याम के ही कारण है।

 

विवाह के कुछ समय बाद सोहन और सीता बरेली आ गये। सीता को घरेलू काम की अच्छी आदत थी। अतः शीघ्र ही उसने घर को व्यवस्थित कर दिया। धीरे-धीरे आसपास के परिवारों से भी उसका अच्छा सम्पर्क हो गया। वे सब सोहन के सत्संग केन्द्र में जाते थे। सोहन के साथ सीता भी कभी-कभी वहां चली जाती थी। यद्यपि उसकी रुचि उसमें बिल्कुल नहीं थी।

 

साल भर तो नवजीवन की उमंग में ही बीत गया। अगले साल गोद में बेटी आ गयी, तो सीता उसमें व्यस्त हो गयी; पर उसे ये बड़ा अजीब लगता था कि सोहन अपने घर-परिवार की परम्परा के अनुसार कभी कुछ खाता-पीता क्यों नहीं है ? रोज न खाये; पर आठ-दस दिन में एक बार शौक पूरा करना तो गलत नहीं है ? जब उसके मायके से कोई आता, तो वह आग्रह करती कि आज तो कुछ खास बना लें। घर बनाने में आपत्ति हो, तो बाजार से कुछ मंगा लें, या फिर बाजार चल कर ही कुछ खा-पी लें; पर सोहन कभी इसके लिए तैयार नहीं हुआ।

 

तीन साल बाद घर में एक बेटा और आ गया। इससे सीता की व्यस्तता और बढ़ गयी। श्याम और सुधा से उनकी बात होती ही रहती थी। जब गरमी की छुट्टियों में सोहन घर जाता था, तो एक-दो दिन श्याम के पास भी रुकता था। इससे सुधा और सीता की भी मित्रता हो गयी।

 

समय बीतते देर नहीं लगती। बच्चे स्कूल जाने लगे। सोहन की इच्छी थी कि सीता कुछ और पढ़े। उसके साथी अध्यापकों में से अधिकांश की पत्नियां बी.ए. या एम.ए. थीं। उनमंे से कई नौकरी भी करती थीं। सोहन ने सीता को उनसे प्रेरणा लेने को कहा; पर उसे न फुर्सत थी और न ही रुचि। सोहन एक बार नाराज भी हुआ; पर सीता आगे पढ़ने को तैयार नहीं हुई।

 

इससे घर में तनाव रहने लगा। एक बार तो झगड़ा होते-होते बचा। सोहन इससे बचने के लिए सत्संग में अधिक समय देने लगा। उसने दो-तीन नये केन्द्र खोल लिये और उनकी देखरेख के लिए कभी सुबह जल्दी निकल जाता, तो कभी शाम को देर से आता था। सत्संग के बारे में चर्चा करने कार्यकर्ता भी घर आने लगे। सीता को उनके लिए चाय आदि बनानी पड़ती थी। इससे उसके मन में सत्संग के प्रति कुछ दुराव सा पैदा हो गया।

 

पिछले साल की बात है, बरेली में सत्संग की ओर से एक युवा शिविर का आयोजन था। श्याम और सोहन दोनों को वहां व्यवस्था करने जाना था। सोहन के आग्रह पर श्याम अपनी पत्नी को भी बरेली ले आया। श्याम और सोहन तो शिविर में चले गये। बच्चों के स्कूल जाने के बाद सीता और सुधा फुर्सत में हो जाती थीं। एक बार बातचीत में सत्संग का संदर्भ आया, तो सीता का असंतोष प्रकट हो गया, ‘‘दीदी, इस सत्संग से मुझे बड़ी परेशानी है। इसके कारण आपके भैया कुछ खाते-पीते नहीं। रोज न खाएं; पर कभी-कभी शौक पूरा करने में क्या बुराई है ? हमारे खानदान में सब ऐसा करते हैं। मेरे मायके से कोई आता है, तब भी ये कुछ नहीं मंगाते। मुझे ये अच्छा नहीं लगता। फिर इनके सत्संग वाले भी आते रहते हैं। मुझे उनके लिए चाय बनानी पड़ती है।’’

 

सुधा ये सुनकर हंसी। फिर बोली, ‘‘अच्छा ये बताओ, तुम्हारे मायके में शराब पीकर मारपीट होती है ?

 

– हां दीदी।

 

– लोग शराब पीकर बाहर भी लड़ाई कर लेते होंगे; इसके कारण कुछ मुकदमेबाजी भी चलती रहती होगी ?

 

-हां दीदी।

 

– कभी-कभी जुआ भी खेल लेते होंगे ?

 

– हां-हां।

 

– तो तुम्हें ये सब अच्छा लगता है ?

 

– नहीं, बिल्कुल नहीं; पर आप ये सब क्यों पूछ रही हैं ?

 

– तो क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारे घर में भी ऐसा ही हो। शराबी कभी सप्ताह या महीने के नियम से नहीं पीता। यदि उसे लत लग जाए, तो वो हर दिन पीता है। जहां तक मैं जानती हूं, आज तक सोहन भैया ने तुम पर हाथ नहीं उठाया। क्या तुम भी पिटना चाहती हो ? इस मारपीट का बच्चों पर क्या असर पड़ेगा, तुमने कभी ये सोचा है ?

 

सीता कुछ देर चुप रही, फिर बोली, ‘‘पर सत्संग के चक्कर में हर दिन दो-चार घंटे घर से बाहर रहना ठीक नहीं है।

 

– सुनो सीता बहिन; दिन भर काम के बाद पक्षी भी अपने पेड़ पर लौट आते हैं। तब वे कितने खुश होते हैं। पूरा जंगल उनकी आवाज से गूंज जाता है। ऐसा ही मनुष्य के साथ भी है। यदि सोहन भैया को घर में खुशी नहीं मिलती, तो इसका कारण तुम अपने स्वभाव में ढूंढो और उस कमी को दूर करो।

 

– लेकिन उनके साथियों के लिए चाय बनाना मुझे पसंद नहीं है। इस पर हर महीने सौ-दो सौ रुपये भी तो खर्च हो जाते हैं।

 

– अच्छा ये बताओ, यदि सोहन भैया शराबी होते और उनके चार लफंगे दोस्त घर आकर शराब पीते, तो तुम्हें उनके लिए पकौड़े बनाने पड़ते या नहीं ? नशे में वे दोस्त तुमसे दुर्व्यवहार भी कर सकते थे; पर अब जो उनके मित्र आते हैं, उनका व्यवहार कैसा रहता है ?

 

– वे सब तो अच्छे लोग हैं। हमेशा भाभी-भाभी कहकर बड़े सम्मान से बोलते हैं।

 

– और वे सुख-दुख में काम आते हैं या नहीं ?

 

– काम तो खूब आते हैं। पिछले साल मुन्नू अचानक बीमार हो गया था। तब ये परीक्षा लेने बाहर गये हुए थे। ऐसे में सत्संगी भाइयों ने ही मुन्नू को अस्पताल पहुंचाया।

 

– तो ये अच्छी बात है या खराब ?

 

– ये तो बहुत अच्छी बात है।

 

– और सोहन भैया को लोग किस निगाह से देखते हैं ?

 

– सो तो इनका बहुत सम्मान है। सड़क चलते लोग इनके पैर छूने लगते हैं। कई लोग तो मेरे पैर भी छू लेते हैं। मुझे तो बहुत संकोच होता है।

 

– उनके कारण तुम्हें सम्मान मिल रहा है, ये तुम्हारे लिए गर्व की बात है। जहां तक चार-छह कप चाय की बात है, तुम्हारे घर में चाय क्या बाजार से आयेगी ? महिलाओं को तो रसोई में काम करने में आनंद आता है। रसोई तो उसके साम्राज्य की राजधानी है। हो सकता है चाय पर महीने में सौ-दो रु. खर्च हो जाते हों; पर शराब में तो रोज इतना खर्चा है। फिर घर में कलह, बीमारी, बच्चों में कुसंस्कार और समाज में फजीहत अलग से। इन दोनों की तुलना करके देखोेे, किसमें लाभ है और किसमें हानि ?

 

सीता चुप रही। सुधा ने जिस तरह बात समझाई थी, उस तरह उसने कभी सोचा ही नहीं था।

 

शिविर के बाद श्याम और सोहन लौट आये। अगले दिन सोमवार था। अतः श्याम ने रात की ही बस पकड़ ली।

 

कुछ दिन बाद सुधा को एक पत्र मिला। उसमें लिखा था –

आदरणीय दीदी,

अब मैंने भी नियमित रूप से सत्संग में जाना शुरू कर दिया है।

आपकी छोटी बहिन – सीता।

 

– विजय कुमार,

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