सत्ता-हस्तान्तरण की त्रासदी बनाम आजादी

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सिंगापुर में  नेहरू की ब्रिटिश-भक्ति का परीक्षण और दिल्ली में सत्ता-हस्तान्तरण की त्रासदी बनाम आजादी
मनोज ज्वाला
१४ अगस्त १९४७ की आधी रात को ब्रिटेन की महारानी के परनाती ने जब
जवाहर लाल नेहरू के हाथों भारत की सत्ता हस्तान्तरित की थी , तब नेहरू न
तो कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष थे और न  ही देश की तत्कालीन अंतरीम
सरकार के निर्वाचित प्रधान । यह बात कमोबेस पूरा देश जानता है कि सन १९४६
में ही कांग्रेस के अध्यक्ष की बावत हुए चुनाव में सरदार पटेल प्रचण्ड
बहुमत से निर्वाचित किये जा चुके थे, किन्तु महात्मा गांधी ने अपने
प्रभाव का इस्तेमाल कर उन्हें अध्यक्ष बनवा दिया था । लेकिन यह बात बहुत
कम ही लोग जानते हैं कि तब कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के लिए नेहरू न केवल
अड गए थे , बल्कि जोर-जबर्दस्ती पर भी उतर गए थे । उससे पहले दो-दो बार
कांग्रेस का अध्यक्ष रह चुके नेहरू तीसरी बार अध्यक्ष बनने के लिए आखिर
जोर-जबर्दस्ती पर क्यों उतर आए थे और गांधी जी भी बहुमत की उपेक्षा कर
उन्हें ही अध्यक्ष बनाने के लिए क्यों अड गए थे ? जाहिर है , जो व्यक्ति
कांग्रेस का अध्यक्ष  होता, वही अंतरीम सरकार का भी प्रधान होता और
अंग्रेज उसी के हाथ में सत्ता सौंपते । जबकि , सत्ता हासिल करने के
निमित्त नेहरू उससे पहले ही ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा ली गई एक अत्यन्त
गुप्त परीक्षा में अपनी निस्संदेह ब्रिटिश-भक्ति का प्रदर्शन कर उत्तीर्ण
हो चुके थे और स्वतंत्र भारत की सत्ता का प्रधान होने का सुनिश्चित
आश्वासन भी प्राप्त कर चुके थे । ऐसे में कांग्रेस का अध्यक्ष बनना उनकी
उस राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए जीवन-मरण का सवाल बन गया था । गांधीजी
सत्ता-हस्तान्तरण के बावत ली गई उस परीक्षा का परिणाम ही नहीं , बल्कि
परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले को मिलने वाला इनाम भी जान चुके थे कि
अंग्रेज हुक्मरान जवाहर लाल को ही सौंपेंगे सत्ता की कमान ।
उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरन्त बाद ही
ब्रिटिश हुक्मरान भारत से ब्रिटेन को समेट लेने की तैयारी में लग गए थे,
क्योंकि एक ओर उस महायुद्ध में जीत के बावजूद उनकी कमर टूट चुकी थी, तो
दूसरी ओर सुभाष चन्द्र की आजाद हिन्द फौज पूर्वोत्तर भारत की सीमा पर चोट
कर और ब्रिटिश नौसेना के भारतीय सैनिकों में विद्रोह करा कर उनकी निन्द
हराम कर चुकी थी । फलतः वे अपने किसी ऐसे विश्वास-पात्र भारतीय नेता के
हाथों में सत्ता सौंप ब्रिटिश लाव-लश्कर की सही-सलामत बाइज्जत  घर-वापसी
चाहने लगे थे , जो ब्रिटेन के उस अंतिम हित-साधन में हर तरह से सहायक हो
। इस बावत उनने नेहरू का चयन कर उनकी ब्रिटिश भक्ति को अत्यन्त गोपणीय
तरीके से जांचा-परखा ।
मालूम हो कि ब्रिटेन को सैन्य-शक्ति के सहारे भारत से खदेड
भगाने के लिए आजाद हिन्द फौज कायम कर अपनी सरकार बना लेने के पश्चात
जर्मनी-जापान के सहयोग से भारत के पूर्वोत्तर सीमा-क्षेत्र में घुस
इम्फाल एवं कोहिमा पर कब्जा कर लेने वाले सुभाष चन्द्र बोस ने जुलाई १९४५
में बंगाल पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी और खुली धमकी दे रखी
थी । आजाद हिन्द फौज के समर्थन में ब्रिटिश नौसेना के भारतीय जवानों ने
भी राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत होकर बम्बई की सडंकों पर मार्च किया था ।
आजाद हिन्द फौज के समर्थन में  नौसेना  के  जवानों  की  बगावत से घबरायी
ब्रिटिश सरकार के भारत में पदस्थापित तत्कालीन वायसराय लार्ड बावेल इस
निष्कर्ष पर पहुंचा कि आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों  में  सद्भावना  पैदा
करने  के  निमित्त कांग्रेस के किसी बडे नेता को सिंगापुर भेजा जाये ।
कांग्रेस के लोग बोस की उस आक्रामक घोषणा और वायसराय की
उपरोक्त चिन्ता व इच्छा के बाद बंगाल में लगातार सभायें  करने लगे  थे,
ब्रिटिश सरकार  के  समर्थन  में  ।  हांलाकि सत्ता कांग्रेस को
हस्तान्तरित किया जाना तो  तय ही था , किन्तु सत्ता की कुंजी  किस
कांग्रेसी  को  हस्तगत  किया जाए ,  इस  बावत  एक तरफ ब्रिटेन की ओर से
तरह-तरह के परीक्षण किये जाने लगे , तो दूसरे तरफ कांग्रेसियों में भी
तत्सम्बन्धी पात्रता सिद्ध करने की स्पर्द्धा मच गई । दार्जलिंग में एक
जनसभा को संबोधित करते हुए नेहरू ने तो यहां तक कह दिया कि “सुभाष अगर
बंगाल में घुसेगा तो मैं अपने दोनो हाथों में तलवार लेकर उसे रोकूंगा ”।
अंततः ब्रिटिश भक्ति में सबसे मुखर नेहरू  को कांग्रेस की
ओर से सिंगापुर भेजे जाने का निर्णय लिया गया । प्रचारित यह किया गया कि
उन्हें कांग्रेस भेज रही है सिंगापुर , किन्तु पर्दे के पीछे उनकी वह
यात्रा आयोजित कर रही थी ब्रिटिश सरकार , जिसने उस बावत हेलिकोप्टर भी
मुहैय्या कराया हुआ था । इतिहासकार जगदीशचन्द्र मित्तल ने अपनी पुस्तक
में लिखा है कि उस यात्रा का घोषित उद्देश्य था- आजाद हिन्द फौज के
सिपाहियों में ब्रिटिश सरकार के प्रति  सद्भावना  पैदा  करना , किन्तु
वास्तविक उद्देश्य था- ब्रिटिश क्राऊन के खासम-खास अर्थात जार्ज षष्ठम के
रिश्तेदार भाई माऊण्ट बैटन से  नेहरू की  मुलाकात और  सत्ता-हस्तांतरण
के  लिए  ब्रिटिश हितों के अनुकूल नेता  में  ब्रिटिश-निष्ठा की अंतिम
जांच । नेहरू के सिंगापुर पहुंचने से दो दिन पहले ही ब्रिटिश सेना के
दक्षिण-पूर्व एशियाई कमान का कमाण्डर इन चीफ- माऊण्ट बैटन वहां पहुंच गया
था । स्थानीय  प्रशासन द्वारा नेहरू के स्वागत  के निमित्त  की गयी
सामान्य तैयारियों  पर  नाराजगी जताते हुए बैटन ने वहां के प्रशासकों को
यह बोध कराया कि  “ वह आदमी भारत का भावी प्रधानमंत्री है और इस कारण
उसका स्वागत एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में किया जाना चाहिए ”  । प्रशासन
ने उस रहस्यमय अतिथि के लिए कोई मोटर-कार की व्यवस्था नहीं की थी , तो
माऊण्ट बैटन ने उनके स्वागत सत्कार में अपनी ‘लिमोजिन’ मोटरकार लगा दी थी
। उनका भाषण सुनने के लिए  भीड जुटाने  हेतु  आस-पास के गांवों-देहातों
में  बसें  भी भेज  दी थी ।  इतना ही नहीं, वह  स्वयं  चल कर हवाई-अड्डा
पहुंच गया था उन्हें लेने और अपनी कार में साथ बैठा कर ले गया था अपने
सरकारी बंगले में ।
नेहरू के उक्त पूर्व प्रचारित-निर्धारित
कार्यक्रमों में  ‘आजाद हिन्द फौज’  के  शहीद  सिपाहियों  के
स्मारक-स्थल  पर  पुष्पांजलि  अर्पित करना भी शामिल था । किन्तु , फूल
माला लिए हुए खडे स्थानीय लोगों के बीच स्मारक-स्थल  के पास पहुंचते ही
नेहरू ने भारत की आजादी के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के बिरुद्ध सैन्य
कार्रवाई करने वाली फौज के शहीद सिपाहियों  के सम्मान में पुष्पांजलि
अर्पित करने से साफ इंकार कर दिया और कार  से  नीचे  उतरे  तक  नहीं  ।
फिर ,  स्थानीय  प्रशासन  द्वारा प्रायोजित भीड को  सम्बोधित करने के लिए
उन्हें एक आलिशान भवन-परिसर में ले जाया गया , जहां  माऊण्ट बैटन  की
पत्नी एडविना एक दूसरी जांच के लिए पहले से ही मौजूद थी । लोगों की भीड
के साथ उस परिसर में नेहरू के घुसते ही वहां एक हादसा हो गया । हुआ यह
कि उस हौल में  नेहरू के घुसते ही  उनके  स्वागतार्थ  वहां  कतिपय लोगों
के  साथ  पहले से मौजूद  एड्विना  उनकी ओर लपकती हुई गिर कर लुढक पडी ।
उस अफरा-तफरी के बीच नेहरू ने तत्क्षण उसे ऐसे उठा लिया कि वह उनकी
बांहों में सिमट गई और उनके दिलो-दिमाग को सदा के लिए अपनी मुट्ठियों में
जकड ली । थोडी देर में स्थिति सामान्य हुई , तब उन्होंने अपना भाषण किया-
ब्रिटिश साम्राज्य की चाटुकारिता में कसीदे  गढे  और सुभाषचन्द्र बोस  के
विरूद्ध  जहर  उगले ।  भाषण के बाद वो उस दम्पत्ति पर लट्टू हो गए । वे
एडविना से देर रात तक  अंतरंग  बात-चीत करते रहे और फिर तीनों एक साथ
भोजन किये ।    तो  इस तरह से  ‘ब्रिटेन के प्रति वफादारी’ और  ‘स्त्री
देह के प्रति आकर्षण’  की  उस  ‘अंतिम परीक्षा’  में  नेहरू  पूरे-पूरे
अंकों के साथ सफल हो गए , क्योंकि उनमें वे दोनों ही तत्व आशा से अधिक
मात्रा में पाये गए । आगे १५ अगस्त १९४७ को वही हुआ जिसकी योजना ब्रिटिश
प्रधानमंत्री एटली और वहां के विपक्षी साम्राज्यवादी राजनेता चर्चिल ने
पहले ही बना रखी थी । साबरमति, गुजरात के एक बयोवृद्ध चिन्तक और
प्रयोगधर्मी शिक्षाविद उत्तमभाई जवानमल जी की मानें तो १५ अगस्त को हुआ
सत्ता-हस्तान्तरण तो वास्तव में आजादी का प्रहसन मात्र था , जिसके जरिये
अंग्रेजों ने देशवासियों को भ्रमित कर भारत पर अपने शासन की ‘दूसरी पारी’
का आरम्भ किया, जो एक त्रासदी से कम नहीं है ।
यह सत्य ही प्रतीत होता है, क्योंकि , आगामी फिल्म की पूरी
पटकथा लिखी जा चुकी थी । उसके अनुसार उसी माऊण्ट बैटन को
सत्ता-हस्तान्तरण के निमित्त वायसराय बना कर सपत्नीक दिल्ली भेज दिया
गया, जिसने भारत-विभाजन के साथ-साथ नेहरू से वह सब कुछ करा लिया जो
अंग्रेजी साम्राज्य के दूरगामी हितों की दृष्टि से आवश्यक था । उल्लेखनीय
है कि सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज ब्रिटिश साम्राज्य के
प्रमुख शत्रुओं में से एक थे, जिनसे निपटने के लिए नेहरू से ज्यादा
उपयुक्त कोई नहीं था, क्योकि सिंगापुर में जांच के दौरान उनकी
ब्रिटिश-भक्ति असंदिग्द्ध सिद्ध हो चुकी थी ।
•       मनोज ज्वाला

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