कहो कौन्तेय-१०

विपिन किशोर सिन्हा

द्रुपद को मैंने ससम्मान रथ से उतारा, गुरुवर के सम्मुख प्रस्तुत किया और विनम्र स्वर में निवेदन किया –

“गुरुदेव! अपनी गुरुदक्षिणा स्वीकार करें।”

मैं हर्षित हो उनके चरणों में गिर पड़ा। उन्होंने मुझे उठाकर वक्षस्थल से लगा लिया।

यज्ञसेन द्रुपद ने अतीत में कभी गुरु द्रोण की मित्रता का अपमान किया था। राजकीय वैभव ने छात्र-जीवन के सहज मैत्री भाव को तिरोहित कर दिया था। आज वह अभिमान धूल-धूसरित था, विदीर्ण हो चुका था। वैर और मैत्री दोनों का स्मरण कर आचार्य ने द्रुपद को संबोधित किया –

“यज्ञसेन! स्मरण है? तुमने अपनी भरी सभा में मेरा अपमान करते हुए कहा था कि मैत्री सदैव समान स्तर के व्यक्तियों में होती है। तब मैं एक निर्धन ब्राह्मण था और तुम पांचाल के महाराज। आज तुम मेरे बन्दी हो और मैं हूँ तुम्हारा स्वामी। अपने प्राणों पर संकट आया देख तुम भयभीत न हो। मैं क्षमाशील ब्राह्मण हूँ। तुम्हें अभयदान देता हूँ और तुम्हारे राज्य का दो भागों में विभाजन कर दक्षिणी भाग का राजा तुम्हें घोषित करता हूँ। काम्पिल्य नगर तुम्हारी राजधानी होगी। उत्तरी भाग पर मेरा अधिकार होगा। अब हम समान स्तर के राजा हैं, अतः स्वाभाविक रूप से तुमसे मित्रता की अपेक्षा है। इस पराजय को कभी विस्मृत मत करना। अब तुम मुक्त हो। अपनी राजधानी को जा सकते हो।”

“पराजय, कैसी पराजय? तुमने मुझे पराजित नहीं किया, मुझे तो पाण्डुपुत्र अर्जुन ने परास्त किया है। तुम बार-बार मुझसे पराजित होते रहे हो और जीवन भर यह ग्रन्थि तुम्हें पीड़ित करती रहेगी।” सहज भाव से द्रुपद ने अपने विचार प्रकट किए।

“पराजित और तुमसे? कब और कहाँ? आचार्य ने आश्चर्य व्यक्त किया।

“तुम बहुत शीघ्र भूलते हो द्रोण। तुम्हारा ब्राह्मणत्व पहली बार उस समय पराजित हुआ था, जब तुम मैत्री के बहाने धन की याचना करते हुए मेरी शरण में आए थे; दूसरी बार तुम तब पराजित हुए थे, जब सदियों पूर्व की स्थापित गुरुकुल परंपरा को तिलांजलि दे, मात्र पारिवारिक सुख-सुविधा के लोभ में तुमने अपनी विद्या हस्तिनापुर को गिरवी रख दी। तुम ऋषि भारद्वाज के पुत्र और आचार्य अग्निवेश के शिष्य अपने पूर्वजों की भांति एक आश्रम का संचालन कर सकते थे। लेकिन तुमने अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु मात्र एक परिवार के घेरे में अपने कर्त्तव्यों को बाँध दिया। तुम तीसरी बार तब पराजित हुए जब गुरुदक्षिणा के रूप में भील युवक एकलव्य का अंगूठा प्राप्त किया।”

महाराज द्रुपद बोलते ही जा रहे थे, बिना रुके। आचार्य द्रोण धीरे-धीरे असहज होते जा रहे थे। अभी कुछ क्षण पहले विजय की जो कान्ति उनके आनन पर छाई थी, विषाद की काली घटाओं में परिवर्तित होने लगी थी। शिष्यों के सामने द्रुपद कोई और रहस्योद्घाटन न कर दें, इसके पूर्व उन्होंने उन्हें बन्धनमुक्त किया और बोले

“मित्र द्रुपद! मैंने खोई हुई मित्रता प्राप्त करने के उद्देश्य से तुम्हें बन्दी बनया था। तुम्हारी दृष्टि में राजा की मित्रता राजा से ही हो सकती है, इसलिए मुझे यह कठोर कार्य करना पड़ा। अब तुम मेरे मित्र हो।”

इस बार द्रुपद बहुत व्यंग्यात्मक हंसी हंसे। सधे हुए बाणों की तरह शब्दों की वर्षा करते हुए बोले –

“कीचड़ की कोख से कमल उत्पन्न हो सकता है, लेकिन प्रतिशोध के गर्भ से मैत्री उत्पन्न हो, यह संभव नहीं। सबकुछ विस्मृत कर, बहुत यत्न करके, ऐसा भी हो सकता है कि हम मित्र बन जाएं, लेकिन यह मित्रता चिरस्थाई नहीं हो सकती। मैं बन्दी होकर भी बहुत दुखी नहीं था और मुक्त होकर भी बहुत प्रसन्न नहीं हूँ। बन्धन और मुक्ति, हार और जीत, जीवन और मृत्यु, क्षत्रिय जीवन की सामान्य प्रक्रियाएं है। मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है। मुझे आनेवाले भविष्य की चिन्ता है। अपने लोभ, प्रतिशोध, स्वार्थ और अहंकार में, जब आर्यावर्त्त का ब्राह्मण बन्दी हो जाएगा, तब भगवान भी उसका कल्याण नहीं कर पाएगा, मेरे पुराने मित्र और नवशत्रु द्रोण!”

औपचारिक शिष्टाचार के उपरान्त महाराज द्रुपद ने विदा ली। उनकी कटूक्तियों ने वातावरण को बोझिल बना दिया। उस दिन पहली बार मैंने आचार्य द्रोण को निरुत्तर होते हुए देखा।

 

महाराज द्रुपद को बन्दी बनाकर आचार्य द्रोण के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। उनसे आधा राज्य लेकर मित्रता स्थापित की गई, पश्चात पांचालराज को मुक्त किया गया, हस्तिनापुरवासियों के लिए यह समाचार उतना आश्चर्यचकित करने वाला नहीं था, जितना यह समाचार कि दुर्योधन कर्णादि वीर पूरी सेना के साथ जिस द्रुपद को रणभूमि में पीठ दिखाकर वापस आए थे, उसी राजा को भैया भीम, नकुल और सह्देव की सहायता से बिना किसी सेना के, मैंने न सिर्फ पराजित किया, बल्कि हाथ-पांव बांधकर बन्दी बना गुरुदक्षिणा के रूप में गुरु को समर्पित किया। रंगभूमि में कर्ण के प्रदर्शन के बाद हमारे कुछ विरोधियों ने कर्ण को मेरे समकक्ष आंकना आरंभ कर दिया था। उन्हें बड़ी निराशा हुई। कर्ण पर मेरी श्रेष्ठता सिद्ध हो चुकी थी। द्रुपद के मेरे हाथों पराभव से पितामह भीष्म अत्यन्त प्रसन्न थे। उन्होंने अपने कक्ष में मुझे बुलाकर युद्ध का संपूर्ण विवरण लिया। उनकी आंखों में विश्वास, वात्सल्य और स्नेह के आंसू छलक रहे थे। मेरा सिर उन्होंने बार-बार सूंघा, मुझे वक्षस्थल से लगाया और आशीर्वाद दिया –

“हे पार्थ! तुम अद्भुत तेजस्वी और पराक्रमी योद्धा हो। ईश्वर तुम्हें अजेय रखें। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हारे बाहुबल से रक्षित हस्तिनापुर सदा सुरक्षित रहेगा।”

एक ओर मेरे और वीर भीमसेन के शौर्य-प्रसंगों ने नगर-ग्राम के परिवारों में गाथा का रूप ले लिया था, तो दूसरी ओर अग्रज युधिष्ठिर की धृति, स्थिरता, सहिष्णुता, दयालुता, सरलता और न्यायप्रियता ने राजपरिवार और सामान्य जनों के हृदय जीत लिए थे। हमलोग युधिष्ठिर के नेतृत्व में महाराज पाण्डु के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में न सिर्फ उभर रहे थे, अपितु सबको स्वीकार्य भी हो रहे थे। हमलोगों की लोकप्रियता नित्यप्रति बढ़ती जा रही थी।

महाराज धृतराष्ट्र वृद्ध हो चले थे। उन्होंने हस्तिनापुर के युवराज के चयन हेतु मंत्रिपरिषद एवं अचार्यों की एक सभा आमंत्रित की और इस विषय पर परामर्श किया। सभी श्रेष्ठजनों ने एक स्वर में युधिष्ठिर की विद्या, बुद्धि, आचार तथा शील की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्हें युवराज पद पर अभिषिक्त करने का सुझाव दिया। युधिष्ठिर वय में भी दुर्योधन से बड़े थे। अतः महाराज धृतराष्ट्र को मन्त्रिपरिषद का परामर्श स्वीकार करना पड़ा।

अग्रज युधिष्ठिर के युवराज पद पर अभिषेक के लिए एक शुभ मुहूर्त्त नियत कर दिया गया। सभी पवित्र नदियों, सरोवरों, झरनों और सागरों के जल मंगाए गए। नियत तिथि पर समारोह के बीच उन्हें अवभृथ स्नान कराकर सिंहासन पर आसीन कराया गया। ब्राह्मणजनों के मन्त्रोच्चार से राजप्रासाद का कोना-कोना गुंजायमान हो उठा। महाराज धृतराष्ट्र ने परंपरानुसार स्वयं अपने हाथों से युधिष्ठिर के मस्तक पर छत्र लगाया, पितामह, कृपाचार्य और महात्मा विदुर ने खड़े होकर स्वस्तिवाचन किया। राज्य के युवजन हर्षातिरेक से भावविह्वाल थे। हम सभी से मित्रवत व्यवहार रखते थे, अतः सभी हमसे प्रसन्न थे। सब आश्वस्त हो रहे थे कि रिक्त राजसिंहासन, शीघ्र ही उसके उचित उत्तराधिकारी को प्राप्त होगा। पितामह भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण राजसिंहासन स्वीकार नहीं किया था। धृतराष्ट्र दृष्टिहीन होने के कारण कार्यवाहक महाराज का दायित्व निभा रहे थे। महाराज पाण्डु के वनगमन के पश्चात राजसिंहासन खाली ही था।

भैया युधिष्ठिर के युवराज पद पर अभिषेक के पश्चात उनकी अनुमति से मैंने और वीर भीमसेन ने हस्तिनापुर राज्य का विस्तार प्रारंभ किया। अल्प समय में ही हमने यवनराज सौवीर को पराजित किया। वह युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त हुआ। उसे परास्त करने में महाराज पाण्डु भी सफल नहीं हो सके थे। इसके अनन्तर हमने पूर्व और दक्षिण की ओर अपने विजय-अभियान को बढ़ाया। मेरी और भीम की सम्मिलित शक्ति ने बड़े-छोटे कुल मिलाकर दस सहस्त्र राजाओं को हस्तिनापुर की अधीनता स्वीकार कराई। अतुलित रत्न और धन से राजकोष की अपूर्व वृद्धि हुई।

क्रमशः

 

 

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