कहो कौन्तेय-१३ (महाभारत पर आधारित उपन्यास)

विपिन किशोर सिन्हा

हम लाक्षागृह पहुंचे। नए राजभवन का नाम “शिवभवन” था। बाहर और अंदर से अत्यन्त भव्य इस महल का निरीक्षण हमने अत्यन्त सूक्ष्मता से किया। महात्मा विदुर द्वारा भेजे गए कुशल शिल्पियों के अनवरत श्रम द्वारा, गुप्त रूप से शिवभवन से गंगा किनारे तक धरती के भीतर एक सुरंग का निर्माण कराया गया। सारी तैयारी पूर्ण होने पर राजद्रोही पुरोचन को उसी के कक्ष में बंद करके हमने भवन को अग्नि देव को समर्पित कर दिया। गुप्त मार्ग द्वारा हम सभी सुरक्षित गंगातट पर पहुंचे। वहां महात्मा विदुर द्वारा भेजी गई एक नौका एवं विश्वस्त नाविकों की सहायता हमें प्राप्त हुई। गंगा पार करने के पश्चात् हमने वन में शरण ली।

वन का प्राकृतिक वातावरण कहीं से भी हमलोगों को कष्ट नहीं देता था। शैशव काल तो वन में ही व्यतीत हुआ था, वन-जीवन हमें स्वाभाविक लगता था। इस अवधि में राक्षस हिडिम्ब ने हमलोगों को कष्ट पहुंचाने का प्रयास किया लेकिन महाबली भीम ने उसे यमलोक पहुंचा दिया। उसकी भगिनी हिडिम्बा के प्रणय-निवेदन के बाद माता कुन्ती और अग्रज युधिष्ठिर की आज्ञा से वीर भीमसेन ने उनसे विवाह किया। वे मेरी पहली भाभी थीं। वन में ही उनसे अग्रज-पुत्र घटोत्कच की उत्पत्ति हुई जो कालान्तर में अत्यन्त बलशाली और तेजस्वी युवक बना।

वन में कुछ वर्ष व्यतीत करने के उपरान्त हम एकचक्रानगरी में एक ब्राह्मणश्रेष्ठ के अतिथि बने। वहां वीर भीमसेन ने बकासुर का वध कर ब्राह्मण-पुत्र की जीवन रक्षा की। उस ब्राह्मण देवता ने ही हमें पांचाल देश में संपन्न होने वाले द्रुपद-कन्या द्रौपदी के स्वयंवर की सूचना दी। माता की सहमति से हमने स्वयंवर आयोजन में भाग लेने का निर्णय लिया। अपने शरण देने वाले ब्राह्मण को हमने अपनी योजना से अवगत कराया। उन्होंने हमें न सिर्फ कांपिल्यनगर जाने की अनुमति दी, वरन् स्वयंवर में सफल होने का आशीर्वाद भी दिया।

एकचक्रानगरी को प्रस्थान करने से पूर्व अकस्मात् महर्षि वेदव्यास हमसे भेंट करने के निमित्त पधारे। हम पर उनका विशेष स्नेह था। जब भी हम संकट में होते, वे अचानक प्रकट हो जाया करते थे। इस बार भी उनके आने का एक विशेष प्रयोजन था। उन्होंने हमें द्रौपदी के स्वयंवर में भाग लेने और सफल होने का निर्देश दिया। अनिंद्य सुन्दरी, युवा एवं स्वस्थ द्रौपदी के पूर्व जन्म का वर्णन करते हुए वे बोले —

“द्रौपदी पूर्व जन्म में एक ऋषि-कन्या थी। रूपगर्विता द्रौपदी को सामान्य ऋषि कुमार विवाह के लिए उपयुक्त नहीं लगते थे। धीरे-धीरे विवाह योग्य आयु बीतने लगी लेकिन उसे कोई समकक्ष युवक वर के रूप में प्राप्त नहीं हुआ। अन्ततः पति प्राप्ति हेतु घोर वन में भगवान् शंकर की उग्र तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। भगवान् शंकर ने स्वयं प्रकट होकर उससे वर मांगने के लिए कहा —

“शुभे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम कोई वर मांगो। मैं तुम्हें वर देने आया हूँ।”

“प्रभो! मैं सर्वगुण संपन्न पति चाहती हूँ।” ऋषि-कन्या ने अपनी तपस्या का उद्देश्य बताते हुए कहा।

“सर्वगुण संपन्न व्यक्ति तो मिलना असंभव है। किन्तु दुर्लभ गुणों से युक्त तुम्हें कैसा पति चाहिए, यह बताओ।” भगवान शंकर ने स्पष्टीकरण मांगा।

जब साक्षात ईश्वर वर मांगने के लिए कह रहे हों, तो व्यग्रता स्वाभाविक है। ऋषि-कन्या ने बिना विचारे अविरल भाव से अनेक वर मांग डाले —

“मुझे धर्मराज की भांति धर्मरक्षक और न्यायप्रिय पति प्रदान करें।”

“तथास्तु!”

“मेरा पति पवनदेव की तरह शक्तिशाली और सामर्थ्यशाली हो।”

“तथास्तु!”

“मेरा पति देवराज इन्द्र की भांति सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर और पराक्रमी हो।”

“तथास्तु।”

“मेरा पति गंधर्व कुमार जैसा सुदर्शन हो।”

“तथास्तु!”

“ज्योतिष विज्ञान का सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता मेरा पति हो।”

“तथास्तु! शुभे, तुम्हें पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे।”

ऋषि-कन्या जैसे अचानक दिवास्वप्न से जागी। यथार्थ का भान होते ही उसे देवाधिदेव शिव के वरदान की सत्यता का ज्ञान हुआ। विचलित हो उसने कहा –

“भगवन्! यह आपने क्या किया? मैं तो आपकी कृपा से एक ही पति प्राप्त करने को इच्छुक हूँ।”

“भद्रे! तुमने मुझसे पांच बार पति हेतु वर मांगे। प्रत्येक बार तथास्तु कह मैंने वर दिया। अगले जन्म में अद्वितीय रूप-गुण संपन्न युवती के रूप में यज्ञवेदी से तुम्हारा जन्म होगा। धर्म की पुनर्स्थापना और समाज के नवनिर्माण हेतु, तुम्हें अपने व्यक्तित्व का होम कर पांच पतियों को अपनाना होगा। तुम्हारा सतीत्व तब भी सुरक्षित रहेगा, यह मेरा आशीर्वाद है।” भगवान् शंकर इतना कहकर अन्तर्ध्यान हो गए।

उसी ऋषि-कन्या ने कालान्तर में अपने भ्राता धृष्टद्युम्न के साथ यज्ञवेदी से महाराज द्रुपद की पुत्री के रूप में जन्म लिया है, जिसका स्वयंवर पौष मास के शुक्लपक्ष शुभ एकादशी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में होना निश्चित किया गया है।”

“मुनिश्रेष्ठ! द्रौपदी की अद्भुत जीवन गाथा और उत्पत्ति आपके श्रीमुख से सुन हमारी जिज्ञासा बढ़ गई है। कृपया उसके इस जन्म के रूप-गुण का भी विस्तार से वर्णन करने क कष्ट करें।” युधिष्ठिर ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

“यज्ञ की ज्वाला से उत्पन्न द्रुपद की देवरूपिणी कन्या द्रौपदी श्यामवर्णा है। उसे याज्ञसेनी भी कहते हैं। इस पृथ्वी पर रूप और गुण में उसकी समानता करने वाली दूसरी युवती नहीं है। उसके नाभिस्थल में कमल की सुगन्धि का स्रोत है। उसके सौन्दर्य का वर्णन करना, उच्च कोटि के कवि के लिए भी संभव है – इसमें संदेह है। श्यामवर्णा द्रौपदी अलौकिक आभा से युक्त दीर्घ कमल नेत्रों एवं हंसग्रीवा की स्वामिनी है। सुगठित देहयष्टि एवं बौद्धिकता की कान्ति से युक्त उसका मुखमंडल अत्यन्त विचलित चित्त को भी स्थिर कर देने वाला है। वह पूर्ण यौवना एवं रतिरूपा है। वेद-वेदांगों, उपांगों, ब्राह्मण, उपनिषद, पुराणों के अध्ययन ने उसे बुद्धिमति एवं विवेकी स्त्री बनाया है। स्त्री का सौन्दर्य विद्या एवं ज्ञानार्जन के अभाव में उसे मात्र भोग्या का रूप प्रदान करता है। किन्तु स्त्री की सुशिक्षा, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए शुभ फलदाई होती है। द्रौपदी का व्यक्तित्व ऐसा ही है। मैं उसके स्वयंवर में तुमलोगों के जाने की अनुशंसा करता हूँ।”

मुनिश्रेष्ठ के वर्णन के बाद, अनायास ही याज्ञसेनी के प्रत्यक्ष दर्शन की अभिलाषा मन में तीव्र हो गई। इसके पूर्व ऐसी अभिलाषा का साक्षात् मैंने हृदय में नहीं किया था। स्त्री यदि सुन्दरी और बुद्धिमति-विदुषी हो, तो उसका सौन्दर्य शाश्वत हो जाता है — मैं भी सौन्दर्य के इस आगार के दर्शन को लालायित था या यूँ कहूं कि अदृष्ट ही मुझे उस ओर उन्मुख कर रहा था, जिसके साथ मेरे भविष्य की डोर बंधी हुई थी।

एक शुभ मुहूर्त्त में माता के साथ हम पांचो भ्राताओं ने पांचाल की राजधानी कांपिल्यनगर के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में मुझे चित्रसेन गंधर्व के साथ युद्ध करना पड़ा। वह पराजित हुआ। हम दोनों ने अग्नि को साक्षी मान मित्रता भी कर ली। उसके परामर्श पर हम धौम्य ऋषि से मिले और उनसे पुरोहित बनने का आग्रह किया। उन्होंने हमें कृतार्थ करते हुए, हमारा पुरोहित बनना स्वीकार किया। मार्ग में चारों ओर शुभ शकुन हो रहे थे। हमें पूर्ण विश्वास हो गया कि स्वयंवर में द्रौपदी हमें ही प्राप्त होगी। अन्य ब्राह्मणों के साथ, हम भी ब्राह्मण वेश में कांपिल्यनगर पहुंचे। वहां राजमहल के समीप एक सद्वृत्त कुम्हार के अतिथि बने।

स्वयंवर की पूर्व रात्रि ! एक ही कक्ष में हम पांचो भ्राता, माँ के साथ भूमि पर शयन कर रहे थे। नेत्र बंद थे लेकिन आंखों में नींद कहां? मैंने देखा भीम को। वे तो रात्रि में लेटते ही घोर निद्रा में निमग्न हो जाते लेकिन आज वे करवट बदल रहे थे। सदा स्थितप्रज्ञ रहने वाले युधिष्ठिर भी व्यग्र थे। उन्होंने चुपके से उठकर जल पान किया। मैंने देखकर भी अनदेखी की। नकुल किसी मधुर गीत की धुन पर लेटा हुआ पद संचालन कर रहा था। एक बार उसके पैए मुझसे उलझे भी। मुस्कुराकर उसने करवट बदल ली। सबको निद्रा में मान, सहदेव गवाक्ष के समीप कुछ देर तक खड़ा अनन्त आकाश को निहार रहा था। उंगली पर कुछ गणना कर शान्त चित्त से आकर लेट गया। रात्रि ढल रही थी। हमारी आकांक्षाओं की भोर होने ही वाली थी। कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था, सभी निद्रामग्नता का अभिनय कर रहे थे। सबके नेत्र-सरोवर में याज्ञसेनी की अनदेखी छवि ही प्रतिभासित हो रही थी। मेरे मर्म-स्थल पर कामदेव ने प्रथम बार शर-संधान किया था। रात्रि की नीरवता को भंग करके आते झींगुरों के स्वर में मुझे पांचाली की स्वरलहरी सुनाई पड़ रही थी, वातायन से झांकते चन्द्रमा की शीतल छवि में कृष्णा दृष्टिगत हो रही थी। मंद-मंद बहता पवन याज्ञसेनी के पद्मगंध की अनुभूति करा रहा था। क्या हो गया था मेरे मन को – पंखविहीन उड़ता ही जा रहा था, कल्पना-आकाश में। सोने का जितना ही प्रयत्न करता, निद्रादेवी उतनी ही दूर भागतीं। मैंने देखा, गवाक्ष के समीप मयूर ने पंख फड़फड़ाए। हम पांचो चिहुँक कर बैठ गए। माता भी जग गईं। मुझे ऐसा आभास होता है, वे भी सो नहीं पाई थीं। वे सूक्ष्मता से हमारा अवलोकन कर रही थीं, तभी तो साथ ही उठ बैठीं। बारी-बारी से हमारे सिर सहलाए और अत्यन्त मृदु तथा स्नेहसिक्त स्वर में आदेश दिया —

” अभी अर्द्धरात्रि ही बीती है। चिन्तामुक्त होकर शयन करो। कल स्वयंवर में याज्ञसेनी तुम्हें ही प्राप्त होगी।”

मैं लज्जा से गड़ गया। समझ में नहीं आ रहा था कि माँ ने हमारी मनोभावना कैसे भांप ली। भांपती कैसे नहीं? हमलोगों की एक-एक श्वास, एक-एक धड़कन और जीवन के एक-एक क्षण से वह भलीभांति परिचित थी। वह हमारी जननी थी।

क्रमशः

1 COMMENT

  1. लाख महल , एक वैज्ञानिक अविष्कार जिसे लोगो ने गौर नहीं किया है, उस समय लाख से इतना भव्य महल बनाया गया , मतलब लाख का उत्पादन भी बहुत रहा होगा …
    ये है भारत के कण कण में वैज्ञानिकता ….

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