कहो कौन्तेय-१५ (महाभारत पर आधारित उपन्यास)

विपिन किशोर सिन्हा

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“ये हैं मेरे मित्र अंगराज कर्ण।” दुर्योधन का अहंमन्य उत्तर सभामण्डप में गूंजा।

द्रौपदी ने त्रियक दृष्टि से श्रीकृष्ण की ओर दृष्टिपात किया। उन्होंने सहज स्मित बिखेरते हुए आंखों ही आंखों में द्रौपदी से ठीक वैसे ही बात की जैसे धनुष के समीप पहुंचकर, कर्ण ने दुर्योधन से की थी।

“रुक जाइए। इस स्वयंवर में भाग लेने के लिए उच्चकुल संभूत होना अत्यन्त आवश्यक है। मैं एक क्षत्रिय कन्या हूं। किसी सूत की भार्या या पुत्रवधू बनना मुझे स्वीकार्य नहीं।”

सबने विस्मय से देखा। यह दृढ़ स्वर स्वयंवरा याज्ञसेनी का था। सारा मण्डप थर्रा सा गया। कर्ण पर तो जैसे बिजली ही गिरी थी। वह मस्तक नत किए धीरे-धीरे अपने स्थान पर लौट आया। उसके पक्ष में किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। आशा के विपरीत दुर्योधन भी मौन था।

जगद्‌जननी सीता के स्वयंवर की कथा तो सुनी थी। आज प्रतीत हो रहा था, जैसे वह घटना प्रत्यक्ष हो। राजा जनक की भांति ही राजा द्रुपद भी स्वयं को संभाल नहीं पाए – कठोर शब्दों में अपनी निराशा प्रकट करने लगे। उनका प्रत्येक शब्द जलते हुए अंगारे जैसा था –

“आज मुझे भलीभांति विश्वास हो गया कि मेरी कन्या के पाणिग्रहण की पात्रता, किसी भी क्षत्रिय राजा में नहीं है। मण्डप की छत पर टंगे मत्स्य-यंत्र ने आज सभी नरेशों को पराजित कर दिया। मेरे समक्ष अब दो ही विकल्प शेष हैं – या तो कन्या को जीवनपर्यन्त अविवाहित रखूं या यज्ञ से प्राप्त इस याज्ञसेनी को पुनः यज्ञ की ज्वाला में ही समर्पित कर दूं। इस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं कि राष्ट्र का क्षात्रतेज आज नष्टप्राय हो गया है।”

“नहीं, यह वसुन्धरा अभी वीरविहीन नहीं हुई है। मुझे अवसर प्रदान किया जाय, मैं लक्ष्यभेद करूंगा।” मैंने भरी सभा से अनुमति मांगी।

सभा में कुछ उपहासपूर्ण स्वर गूंजे –

“जहां समरकुशल क्षत्रिय वीर हार मानकर नतमस्तक हो बैठे हैं, वहां एक भिक्षुक ब्राह्मण आस लगाए खड़ा है।”

“यह स्वयंवर क्षत्रियों के लिए है। इसमें कोई भिक्षुक ब्राह्मण भाग नहीं ले सकता। यह लक्ष्यभेद तो क्या, धनुष पर प्रत्यंचा भी नहीं चढ़ा सकता; यह बात दिवा-रात्रि की भांति सत्य है। फिर भी हम उसके भाग लेने का दृढ़ विरोध करते हैं।”

विवाद बढ़ता देख महाराज द्रुपद ने विद्वानों से मंत्रणा कर श्रीकृष्ण को अन्तिम व्यवस्था देने हेतु अधिकृत किया। निर्णय लेने में उन्होंने पल भर का समय लिया। अपने आसन से खड़े हुए। बांसुरी-सी सुरीली और गंभीर वाणी में सभा को संबोधित किया –

“क्षत्रियगण स्वाभाविक प्रवृति के अनुसार युद्ध-कौशल के निरन्तर अभ्यास से समरकुशल होते हैं। ब्राह्मण विरासत और तपस्या से प्राप्त गुण और प्रवृत्ति के कारण मन्त्रपाठ में अभ्यस्त होते हैं, शास्त्रज्ञ होते हैं। इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि अगर क्षत्रिय अभ्यास करे तो शुद्ध पाठ नहीं कर सकता, या ब्राह्मण अभ्यास के बल पर धनुर्विद्या का ज्ञाता नहीं हो सकता। यदि क्षत्रियकुल मे उत्पन्न विश्वमित्र ब्रह्मर्षि बन सकते हैं, ब्राह्मण परशुराम धरती के समस्त क्षत्रियों को परास्त कर सकते हैं, तो यह स्थूल कंध, दीर्घ बाहु, प्रशान्त बदन, सौन्दर्ययुक्त अंगसौष्ठव, उदित सूर्यसम उज्ज्वल, राजीव नयन की दीप्ति से युक्त, अत्यन्त उच्चाभिलाषी युवक प्रतियोगिता में भाग क्यों नहीं ले सकता? जन्म नहीं, कर्म और सधन अभ्यास ही मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्धारण करते हैं। यह युवक अत्यन्त पराक्रमी और सौन्दर्यवंत दिखाई दे रहा है। यह निर्विवाद, प्रतियोगिता में भाग ले सकता है।”

पूरी सभा ने श्रीकृष्ण का अनुमोदन किया। मैंने अपने आत्मविश्वास को संजोया। अग्रज युधिष्ठिर ने मेरे सिर को सूंघा। स्नेहिल कर कमलों से मेरे केश सहलाए, वीर भीमसेन ने मेरी पीठ पर हल्की धौल जमाई और नकुल-सहदेव ने हाथ थाम शुभकामनाएं दीं। मैं धीरे-धीरे सरोवर की ओर अग्रसर हुआ। कपोत की तरह ग्रीवा घुमाकर मैंने समस्त आगन्तुकों को देखा। सबकी विस्मययुक्त दृष्टि मुझपर ही केन्द्रित थी। मैंने सर्वप्रथम पृथ्वी को स्पर्श कर वन्दना की, माँ कुन्ती को समरण कर उन्हें नमन किया और प्रत्यक्ष हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।

मैं वीरासन की प्रभावशाली मुद्रा में बैठा। ब्राह्मण वर्ग की करतल ध्वनि तेज होती जा रही थी। दाहिने हाथ से धनुष उठाया और बायें हाथ से प्रत्यंचा चढ़ाई। ग्रीवा उपर उठाकर मत्स्य-यंत्र को देखा, दूसरे ही पल सरोवर में पड़ते प्रतिबिंब पर ध्यान केन्द्रित किया। बरसों पूर्व शिक्षा समाप्ति के बाद, गुरु द्रोण द्वारा ली गई अन्तिम परीक्षा का दृश्य नेत्रों के समक्ष साकार हो उठा। मैंने गुरुवर को स्मरण कर नमन किया और पुनः जल में प्रतिबिंबित मत्स्यनेत्रों पर ध्यान केन्द्रित किया। एक सूची बाण लेकर शरसंधान किया। पहला ही बाण लक्ष्य को भेद गया। बिंधा हुआ लक्ष्य अब पृथ्वी पर था। मंगलाचरण और शहनाई की मधुर ध्वनि से संपूर्ण रंग-मण्डप गुंजायमान हो उठा।

स्वर्णमंच से द्रौपदी धीरे-धीरे उतर रही थी। मैं हर्ष को छिपाने का प्रयत्न करते हुए एकटक उसे निहार रहा था। अब वह मेरी स्वयंवरा थी। नतशीश सलज्ज भाव से मेरे समीप आ, पिता और भ्राता का निर्देश मिलते ही उसने स्वर्ण वरमाला मेरी ग्रीवा में डाल दी। उसकी सखी ने धवल कमलों की एक और वरमाला उसे दी। तत्क्षण उसे भी उसने मेरे गले में डाल दी। मेरे जीवन के सर्वाधिक मधुर क्षण थे वे!

स्वयंवर संपन्न हुआ। आमन्त्रित अतिथिगण अपना आसन छोड़ खड़े ही हुए थे कि किसी ने उच्च स्वर में घोषणा कि –

“हम क्षत्रियों के रहते, कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय-कन्या को परिणीता बनाकर ले जाए, इसे कदापि सहन नहीं किया जा सकता। हम स्वयंवर को अमान्य करते हैं। हम ब्राह्मण युवक का वध कर द्रौपदी का हरण करेंगे।” यह उत्तेजित स्वर शिशुपाल का था।

स्वयंवर में असफल, हताश और कुण्ठित राजाओं ने उसकी विस्फोटक गर्जना का एक स्वर से समर्थन किया। सभी ने अपने-अपने शस्त्र संभाल लिए। मैंने लक्ष्यभेद के लिए प्रयुक्त धनुष-बाण उठा लिया। महाराज द्रुपद, धृष्टद्युम्न और उनके शस्त्रसज्जित श्रेष्ठ सामन्त मेरे पीछे आ गए। वीरवर भीम भी उछलकर मेरे पीछे आ गए। अग्रज युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव को मैंने द्रौपदी की सुरक्षा का दायित्व सौंपा।

युद्ध आरंभ हुआ। हताश राजाओं ने चारो ओर से हम पर आक्रमण कर दिया। मैंने पलभर में असंख्य बाणों की वर्षा कर अपने चारो ओर एक सुरक्षित घेरा बना दिया। भीमसेन ने पलक झपकते एक विशाल वृक्ष उखाड़ लिया था। उनके प्रहार से युद्ध-पिपासु राजा, समूहों में गिरने लगे। पलायन करते नरेशों को कर्ण ने रोका। उसने अपने बाणों से मेरे बाणों के जाल को छिन्न-भिन्न कर दिया। भीषण बाण-वर्षा करते हुए वह शीघ्रता से मेरी ओर बढ़ा। भीम ने दुर्योधन को घायल कर मैदान छोड़ने पर विवश कर दिया। अब शल्य ने मोर्चा संभाला। भीम ने दोनों हाथों से उन्हें उपर उठाकर पृथ्वी पर दे मारा। वे अचेत हो गए। लेकिन भीम ने उनका वध नहीं किया। उन्हें वहीं छोड़ वे जरासंध और शिशुपाल से अकेले ही जा भिड़े।

क्रमशः

 

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