कहो कौन्तेय-२

विपिन किशोर सिन्हा

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नारी का अर्थ है – सृजन शक्ति का जागृत केन्द्र. परन्तु यह सृजन अगर विवाह-पूर्व हो जाए तो? सृजन बन जाता है पाप का प्रतिफल और नारी बन जाती है घृणा का स्थाई पात्र. तब समाज स्त्रित्व को नहीं मानता. मानता है सतीत्व को. निरन्तर अपमान की ज्वाला में जलने से यदि एक रहस्यात्मक मौन त्राण दे सकता है, तो उसे अपनाने में कैसा संकोच? फिर किशोरवयसा कुन्ती के पास बुद्धि थी ही कितनी? मैंने अविवाहित मातृत्व को गुप्त ही रखने का निर्णय लिया. किशोरावस्था में अज्ञानता और बालसुलभ जिज्ञासावश हुई एक भूल ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी. इस अपरिहार्य घटना का विद्रूप मूषक जीवन भर मेरे राजवस्त्र कुतरता रहा — खुली आँखों से मैं देखती रही — प्रतिकार नहीं कर पाई.

स्मृति की जिन घटाओं को मैंने अपने मन के आकाश में कभी स्वछन्द विचरण नहीं करने दिया, आज उन्हीं घटाओं से जलवर्षण होगा, मैं अपने पुत्रों, पुत्रवधुओं और कुलवधुओं के समक्ष भींगूंगी, भिगाऊंगी. संभव है इस बेमौसम बरसात की प्रचंड बून्दों के आघात से मेरा मन खण्ड-खण्ड हो जाय, शरीर छलनी हो जाय लेकि मैं रुकूंगी नहीं. कोई नहीं रोक सकता मुझे आज.

मेरा नाम कुन्ती है. लेकिन मैं पृथा भी हूं. महाराज कुन्तिभोज की दत्तक कन्या बनने के पूर्व मैं पृथा ही थी, मथुरा के यादवश्रेष्ठ शूरसेन की लाड़ली कन्या. श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव मेरे सहोदर भ्राता थे. हम दोनो भाई-बहन राज उद्यान में पुष्प चुनते, माला गूंथते और कुलदेवता को अर्पित कर देते. राजप्रासाद के विशाल प्रांगण में दोनों हाथ फैलाए गोल-गोल मोहक चक्कर लगाते और माँ की गोद में सुख की नींद सो जाते. न चिन्ता, न कोई भय. सर्वत्र सुख का साम्राज्य, आनन्द का सागर. परन्तु सदैव मुझपर वक्र दृष्टि रखनेवाली नियति को मेरा सुख, मेरा आनन्द क्योंकर सुहाता…………

मेरा शैशव पिताजी के वचन की भेंट चढ़ गया. भोजपुर के सन्तानहीन महाराज कुन्तिभोज को उन्होंने कभी अपनी प्रथम सन्तान देने का वचन दिया था. इसके लिए उन्होंने मेरी जननी की स्वीकृति भी नहीं ली थी. एक बार वचन दे दिया, तो दे दिया. राजा को किसी से पूछने की क्या आवश्यकता? पूर्व में वचनपालन और प्रतिज्ञाओं की पूर्ति हेतु कितने अनर्थ इस धरती ने सहे हैं, गणना करना असंभव है. क्षत्रिय राजाओं ने कभी भी इससे सीख नहीं ली. क्या भीष्म-प्रतिज्ञा, अभी-अभी संपन्न हुए महासमर का मूल कारण नहीं थी?

मथुरा के उद्यान, तितलियां, शुक, सारिका, यमुना की लहरें और लघु भ्राता वसुदेव से अलग कर मुझे भोजपुर भेज दिया गया. स्त्री और गाय की इच्छा भी कही पूछी जाती है? पिता और स्वामी ने जिस खूंटे से बांध दिया, उसमें बंध जाना ही दोनों की नियति है. महाराज कुन्तिभोज मुझे पाकर अत्यन्त प्रसन्न थे — अब उन्हें कोई सन्तानहीन नहीं कहेगा. मुझे नया नाम प्रदान किया गया — कुन्ती. लेकिन पृथा से मोह आजीवन बना रहा. हृदय के एक कोने में टीस आज भी उठती है — काश! मैं कुन्ती न बनी होती.

मेरा बचपन मुझसे बिछड़ चुका था. वह तो मथुरा में ही रह गया. भोजपुर में मेरे साथी थे, प्रौढ़ दास-दासियां और महाराज कुन्तिभोज. मैंने अपनी नई माँ को बहुत ढूंढ़ा. वे नहीं मिलीं. स्वर्गवासी माँ भला पृथ्वी पर कैसे आती? मेरे वय का शायद कोई पक्षी भी नहीं था उस राजप्रासाद में. शिशु पृथा अचानक वयस्क कुन्ती में परिवर्तित हो गई. मुझे पूजा-पाठ करने, प्रवचन सुनने और दीन-दुखियों की सेवा करने में आनन्द आने लगा. मैंने अपने जीवान को एक नई दिशा दे दी. दिन बीतने लगे. मैं भोजपुर में रमने लगी.

पिताजी की राजसभा में अचानक महर्षि दुर्वासा का आगमन किसी तूफान से कम नहीं था. पिताजी एक धर्मपारायण पुरुष थे. ऋषि-मुनियों और विद्वानों का अत्यन्त सम्मान करते थे लेकिन महर्षि दुर्वासा को देख वे भय से कांप उठे. महर्षि सामने वाले की भक्ति का आंकलन अपने प्रति श्रद्धा से नहीं बल्कि अपने कारण उत्पन्न भय से करते थे. पिताजी की भीति देख वे अत्यन्त प्रसन्न हुए. उन्हें विश्वास हो गया कि वे जो भी चाहेंगे, कुन्तिभोज वही करेंगे. ऋषि के चरणों में अपना प्रणाम निवेदित कर पिताजी ने उनके आगमन का प्रयोजन पूछा. महर्षि ने कड़कते स्वर में उत्तर दिया —

“राजन! मैं यहां वन-विहार या जल-क्रीड़ा करने नहीं आया हूं. मुझे एक महायज्ञ करना है — तुम्हारे ही महल में. मेरी अन्तरात्मा से मुझे ऐसा ही निर्देश मिला है. बोलो, समुचित व्यवस्था कर पाओगे?”

“अवश्य करूंगा ऋषिवर! आपका यज्ञ सफल होगा, मेरा जीवन सार्थक होगा,” पिताजी ने दोनों हाथ जोड़ पुनः अपना मस्तक ऋषि के चरणों में रख दिया.

“तुम्हारा कल्याण हो वत्स,” महर्षि ने कहा. वे संतुष्ट प्रतीत हो रहे थे.

राजप्रासाद के विशाल प्रांगण के बीचोबीच महर्षि के निर्देशानुसार पर्णकुटी का निर्माण किया गया. जगत के निर्माण के लिए उत्तरदाई पाँच मूल तत्वों को अपने चरणों का दास बनाने हेतु महर्षि दुर्वासा ने महायज्ञ आरम्भ किया. वे हिमालय में चालीस वर्षों की कठोर तपस्या के बाद लौटे थे. इस संसार को चलाने वाली समस्त शक्तियों पर नियन्त्रण पाना, यज्ञ का यही अभीष्ट था.

मेरे किशोर मन में बार-बार ये प्रश्न उठते — क्या करेंगे ऐसी शक्ति पाकर महर्षि? उन्हें इसकी आवश्यकता ही क्या है? क्या विधना संपूर्ण प्रकृति पर नियंत्रण रखने के लिए पर्याप्त नहीं है? ऐसी महत्वाकांक्षा क्या एक महर्षि को शोभा देती है? उनमें और एक चक्रवर्ती सम्राट में अंतर ही क्या है? मेरे मन के प्रश्न मन के भीतर ही दब कर रह गए. महर्षि की ओर देखने का तो साहस किसी में था नहीं, प्रश्न कौन पूछता?

महर्षि दुर्वासा! उनके स्वभाव और व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगाना असंभव था. विक्षिप्तों सा आचरण करते थे वे. जिसने संपूर्ण विश्व की सृष्टि की थी, उसी पर विजय प्राप्त करना चाह रहे थे. कभी लगातार चिल्लाते, तो कभी लगातार दो दिनों तक मौन धारण किए रहते. ऐसे थे महर्षि दुर्वासा – महान ऋषि अत्रि और महासती अनुसूया के पुत्र. भरत भूमि के समस्त ऋषियों का कोप उनके कमंडलु में समाया हुआ था. राजप्रासाद का छोटा-बड़ा कोई भी कर्मचारी उनकी सेवा में अपने को प्रस्तुत करने को तैयार न था. पिताजी की चिन्ता बढ़ती जा रही थी. व्यवस्था में विलंब होने पर दुर्वासा के कोपभाजन होने का भय उनके मन की शान्ति का हरण किए जा रहा था.

मैं कबतक शान्त बैठती? कोई विकल्प शेष न देख मैंने स्वयं को महर्षि की सेवा-टहल के लिए प्रस्तुत कर दिया. पिताजी पहले तो तैयार नहीं हुए लेकिन मेरा दृढ़ निश्चय देख उन्होंने आज्ञा दे दी.

महर्षि दुर्वासा की सेवा किसी कठोर तपस्या से कम नहीं थी. यज्ञ करते-करते वे उत्तेजित हो जाते. मैं चुप रहती. धुले हुए पैर बार-बार धुलवाते. मैं यंत्रवत धोती रहती. दिन भर इतने विचित्र कार्य कराते कि रात आते-आते मैं थककर चूर हो जाती, फिर भी मुख पर आलस्य के भाव नहीं लाती.

दस दिनों तक अनवरत उनका अनुष्ठान चलता रहा. मेरी प्रसन्नता की सीमा नहीं रही जब उन्होंने अपने महायज्ञ की समाप्ति की घोषणा की. मैंने दोनों आंखें बंद कर परमपिता को धन्यवाद दिया. मुझपर वे अत्यन्त प्रसन्न थे. यज्ञ-वेदी के पास बिठाकर देवताओं को वश में करनेवाला वशीकरण मंत्र मुझे प्रदान किया. मेरे “हाँ” या “ना” की तो उन्होंने प्रतीक्षा ही नहीं की. जाते-जाते मुझे आशीर्वाद देते हुए बोले, “शुभे! इस मंत्र द्वारा तुम जिस भी देवता का आवाहन करोगी, उसी के अनुग्रह से तुम्हें उसी के गुणवाले पुत्र की प्राप्ति होगी.”

बालसुलभ मन के लिए प्रत्येक वस्तु कौतुहल का विषय होती है. बड़ों की बातों पर सहसा अविश्वास तो नहीं करता है लेकिन प्रमाण पाने के लिए जाने-अनजाने तरह-तरह के प्रयोग करता ही रहता है. बड़े बताते हैं कि आग के स्पर्श से जलने का खतरा होता है लेकिन ऐसा कौन बालक होगा जो आग से न जला हो. बचपन अभी गया नहीं था, यौवन आने के लिए अभी ताक-झांक कर रहा था. मन में हर वस्तु के लिए कौतुहल था, जिज्ञासा थी. दुर्वासा द्वारा दिए गए वर की परीक्षा के लिए मन बार-बार मचल जाता था. मन का एक पक्ष कहता था कि एक बार परीक्षा लेने में ही क्या बुराई है? वयःसन्धि पर खड़ी कुन्ती के मन में विश्वास और तर्क का द्वन्द्व चलता रहा. एक दिन जिज्ञासा और कौतुहल ने अनिष्ट के भय की आशंका पर विजय प्राप्त कर ली. कई दिनों के निरन्तर द्वन्द्व के बाद मन ने परीक्षा की ठान ही ली — दुर्वासा ऋषि सदैव साधना के गुणगान किया करते थे, उनकी साधना की शक्ति देखी तो जाय, देखा तो जाय — उनके मन्त्रों में शक्ति है भी या नहीं? (क्रमश:)

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