कहो कौन्तेय-४१

विपिन किशोर सिन्हा

(महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)

(कर्ण का महादान)

कर्ण की इस उपलब्धि पर देवराज इन्द्र का चिन्तित होना स्वाभाविक था। पांच वर्षों तक स्वर्ग में हम दोनों साथ-साथ रहे थे। वे मेरे पिता थे। उनका वात्सल्य प्रबल से प्रबलतर होता जा रहा था। वे वन में भी आकर कभी-कभी हमलोगों की सुधि लेते रहते थे, हमारे मार्ग को निष्कंटक बनाने हेतु योजनाएं भी बनाते। इसी योजना के अन्तर्गत उन्होंने चित्रसेन गंधर्व को दुर्योधन को बन्दी बनाने हेतु द्वैतवन के सरोवर पर भेजा था। युधिष्ठिर के क्षमादान के कारण यह योजना सफल नहीं हो सकी। इस बार उन्होंने अत्यन्त गोपनीयता के साथ एक योजना बनाई – कर्ण के कवच कुण्डल को दान में प्राप्त करने की।

एक दानवीर के रूप में कर्ण का यश पृथ्वी के कोने-कोने तक फैला हुआ था। कोई भी याचक उसके द्वार से निराश नहीं लौटता था। वह नित्य मध्याह्न के समय गंगा में खड़ा हो, हाथ जोड़कर भगवान दिवाकर की स्तुति करता था। नेत्र खोलने पर उपस्थित याचक जो भी मांगता, कर्ण अविलंब वह सामग्री उसे अर्पित कर देता। देवराज इन्द्र कर्ण के इस संकल्प से भलीभांति अवगत थे। एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर मध्याह्न के समय कर्ण के सम्मुख उपस्थित हुए। भगवान भास्कर की स्तुति के बाद कर्ण ने जब नेत्र खोले तो एक ब्राह्मण याचक को दान प्राप्ति की कामना से सम्मुख पाया। मधुर स्वर में ब्राह्मण देवता का स्वागत करते हुए उसने कहा –

“विप्रवर! आप दान में जो भी मुझसे प्राप्त करना चाहते हैं, बताने का कष्ट करें। स्वर्ण, रजत, गौ, भूमि, जिसकी भी आप इच्छा करेंगे, मैं अर्पित कर आपको प्रसन्न करूंगा। कृपया अपने श्रीमुख से अपनी मनोकामना प्रकट करें।”

“वीरवर! मुझे स्वर्ण, रत्न या किसी प्रकार का धन नहीं चाहिए। अगर दे सकते हो तो अपना कवच-कुण्डल मुझे दान में दे दो। मुझे यही अभीष्ट है।” ब्राह्मण ने अपनी इच्छा व्यक्त की।

कर्ण हतप्रभ रह गया। एक क्षण के लिए सारा ब्रह्मांड उसे घूमता दिखाई दिया। जिस कवच-कुण्डल के बल पर वह अर्जुन को विजित करने का स्वप्न देखता था, वह दान में मांगा जा रहा था।

दान वस्तुतः मनुष्य की अतृप्त इच्छाओं का प्रकाशन है। दान कर स्वयं को दाता भाव में देखना सबको अच्छा लगता हैं। दान में वे ही वस्तुएं दी जाती हैं, जो भौतिक हों, न कि पुनर्प्राप्ति की संभावना हो। लेकिन यह दान तो अपने शरीर की शक्ति का दान था। अद्वितीय दानवीर के रूप में जो यश दिग्दिगन्त तक प्रसारित विस्तारित हुआ था, ‘ना’ कह देने से क्षण भर में रसातल को प्राप्त हो जाता। असमंजस की स्थिति में, किंकर्त्तव्यविमूढ़ बना, शान्त हो जल में खड़ा रहा कर्ण। उसने एक दृष्टि ब्राह्मण पर डाली। पहचानने में तनिक भी विलंब नहीं हुआ – ब्राह्मण वेश में साक्षात देवराज इन्द्र उपस्थित थे। गत रात्रि भगवान अंशुमालि ने स्वप्न में आकर, इन्द्र द्वारा दान में कवच कुण्डल मांगने की योजना की पूर्व सूचना कर्ण को दे दी थी। विनयपूर्वक कर्ण ने इन्द्र से निवेदन किया –

“देव देवेश्वर! कवच तो मेरे शरीर के साथ ही उत्पन्न हुआ है और दोनों कुण्डल अमृत से प्रकट हुए हैं। इन्हीं दोनों के कारण इस संसार में, मैं अवध्य बना हुआ हूं। मैं इनका त्याग कैसे कर सकता हूं? आप कृपा कर कोई दूसरा वर मांगें।”

इन्द्र भला दूसरा वर क्यों मांगते? उन्हें किस वस्तु की कमी थी? बोले –

“हे दानवीर कर्ण! आज तुम्हारी परीक्षा की घड़ी है। तुमने संकल्प ले रखा है कि किसी भी याचक को रिक्त हाथ अपने द्वार से लौटने नहीं दूंगा, चाहे याचक की इच्छा पूर्ण करने में प्राण ही क्यों न चले जाएं। आज ऐसा लग रहा है, तुम्हारा संकल्प क्षीण पड़ रहा है। मैं तुम्हारा अधिक समय न लेते हुए, अपने लोक को वापस लौटता हूं।”

“नहीं देवेन्द्र! ऐसा अनर्थ न करें। इस कवच-कुण्डल को त्यागने के पश्चात मैं अवध्य नहीं रहूंगा, यह मुझे ज्ञात है, फिर भी मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूंगा। जब जन्म लिया है तो मृत्यु भी निश्चित है लेकिन अपयश और कीर्तिविहीन जीवन मुझे स्वीकार नहीं।” कर्ण ने गर्व से घोषणा की और खड्‌ग से काटकर रक्त से सने हुए अपने कवच और कुण्डल इन्द्र को अर्पित कर दिए।

देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की।

देवराज इन्द्र को भी आशा नहीं थी कि कर्ण इतनी सहजता से प्राणों से प्रिय कवच-कुण्डल दान में दे देगा। वे अभिभूत थे, बोले –

“हे यशस्वी दानवीर! तुमारी कृति युगों-युगों तक पृथ्वी पर फैलती रहेगी। इस दान के पश्चात तुम्हारा स्थान हरिश्चन्द्र के साथ सुरक्षित रहेगा। यह काया नश्वर है, इसे नष्ट होना ही है, लेकिन जब तक सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी और आकाश रहेंगे, तुम्हारे यश की किरणें विश्व को आलोकित करती रहेंगी। हे नरश्रेष्ठ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूं। तुम भी इच्छित वर मांगकर मुझे अनुगृहीत करो।”

देवेन्द्र के बार-बार अनुरोध करने पर कर्ण ने इन्द्र की अमोघ शक्ति की इच्छा प्रकट की। कवच-कुण्डल की तुलना में अमोघ शक्ति का क्या मूल्य? देवराज ने अविलंब अपनी अमोघ शक्ति कर्ण को प्रदान की, प्रयोग उपसंहार कि विधि समझाई और कृतार्थ स्वर में बोले –

“हे मृत्युंजय! तुम इस शक्ति से रणभूमि में गर्जना करने वाले किसी भी अत्यन्त बलशाली शत्रु का वध कर सकोगे। इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही किया जा सकता है। जब तक तुम्हारे पास दूसरे अस्त्र रहें और प्राण संकट में न पड़ जाएं, इसका प्रयोग निषिद्ध है। यदि प्रमादवश, यह अमोघशक्ति, यों ही किसी शत्रु पर छोड़ दोगे, तो यह उसे न मारकर, तुम्हारे उपर ही आ पड़ेगी।”

देव देवेश्वर, कर्ण को कवच-कुण्डल से वंचित कर, उसका सुयश दसों दिशाओं में फैलाकर हंसते हुए स्वर्गलोक को गए।

इस घटना के पूर्व कर्ण ने दान के रूप में, जो संपत्ति दोनों हाथों से लुटाई थी, वह हस्तिनापुर की थी। वह धन-संपत्ति हमने अर्जित की थी। लेकिन कवच-कुण्डल? ये तो त्वचा की भांति कर्ण के शरीर के अभिन्न अंग थे। इतना महान त्याग! यह कर्ण ही कर सकता था।

महात्मा विदुर के गुप्तचर ने पूरी घटना का वर्णन हम पांचो भ्राताओं की उपस्थिति में किया। युधिष्ठिर ने मुक्ति का श्वास लिया, भीम ने अट्टहास किया, मैं मौन रहा। देवराज इन्द्र के साथ-साथ, ऐसा लगा, अग्रज युधिष्ठिर और भीमसेन को भी कहीं न कहीं मेरी सामर्थ्य, मेरे पराक्रम, मेरे पुरुषार्थ पर अविश्वास था। उनके मन का कंटक निकल गया था। प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी। पर मैं कर्ण की दानवीरता के आगे नतमस्तक था।

यह सत्य था कि कर्ण और मुझमें शत्रुभाव था। रंगभूमि से लेकर द्यूतसभा तक ऐसे अनेक प्रसंग थे जो हमलोगों के बीच वैमनस्य की खाई को बढ़ाते जा रहे थे। फिर भी मैं कर्ण के प्रति एक विशेष आकर्षण की अनुभूति करता था। वह मुझसे घृणा करता था लेकिन मैं उससे युद्धभूमि में योद्धाजनोचित द्वन्द्व करना चाहता था। उसने इन्द्र को कवच-कुण्डल दान में दे दिए तो मुझे कही एक रिक्तता का अनुभव हुआ जैसे मेरे शरीर का ही एक अंश विच्छिन्न हो गया हो। मैं कवच-कुण्डल युक्त कर्ण को युद्ध में पराजित करने की आकांक्षा रखता था।

सोचता हूं घृणा भी प्रेम और लगाव का ही एक रूप है। प्रेम में, प्रेमास्पद नित्य मनःपटल पर रहता है। हम उसे प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। क्या ठीक उसी तरह घृणास्पद भी किसी न किसी रूप में हमारे मन के समीप नहीं रहता है? फिर चाहे हम उसे कष्टित करने के उपाय ही क्यों न सोचते रहें – रहता तो वह मन के निकट ही है। मैं था कर्ण के निकट ही। जीवन में पग-पग पर मिली पराजय ने उसे दुर्योधन का सहकर्मी बना दिया था किन्तु था तो वह महत्‌पुरुष ही जिसने इन्द्र को दानस्वरूप अपने जन्मजात कवच-कुण्डल दे दिए थे। उसके इस देवोचित गुण के प्रति नतमस्तक था मैं। मेरा मौन ही मेरी अभिव्यक्ति थी।

क्रमशः

 

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