कहो कौन्तेय-४५ (महाभारत पर आधारित उपन्यास अंश)

(पाण्डवों का अज्ञातवास)

विपिन किशोर सिन्हा

कालचक्र अपनी पूरी गति से घूम रहा था – अनासक्त भाव से। समुद्र की लहरों की भांति वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। हमलोगों के जीवन में वनवास के बारह वर्ष पहाड़ की तरह थे। लेकिन काल चक्र के लिए यह अवधि एक तिनके से अधिक कुछ भी नहीं थी। अस्तु, हमने धर्मपूर्वक आचरण करते हुए, छिटपुट कष्टों और असंख्य उपलब्धियों को स्मृति पटल पर संजोए, वनवास पूरा कर ही लिया। अगला लक्ष्य था – एक वर्ष का अज्ञातवास सकुशल पूरा कर लेना। हमें छद्मवेश में पूरा एक साल व्यतीत करना था। पहचाने जाने पर पुनः बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास का सिलसिला आरंभ हो जाता। सोचकर ही मन सिहर जाता था।

अज्ञातवास के लिए हमने विभिन्न प्रदेशों का विचार किया। पांचाल, चेदि, मत्स्य, शूरसेन, पटच्चर, दशार्ण, नवराष्ट्र, मल्ल, शाल्व, युगन्धर, कुन्तिराष्ट्र, सुराष्ट्र और अवन्ती के नामों पर गहन मंत्रणा की गई। अन्त में मत्स्य देश की राजधानी विराट नगर के लिए सहमति बनी। राजा विराट अत्यन्त उदार और धर्मात्मा थे। वे पाण्डुवंश पर प्रेम भी रखते थे। उनके यहां हम सुरक्षित रह सकते थे।

हमने वहीं जाने का निर्णय लिया। वन से हमलोग छद्मवेश में विभिन्न मार्गों से बाहर निकले। कुछ योजन जाने के बाद हम पुनः मिले। विराटनगर के निकट पहुंच, हमने एक घने वन में शमी के एक विशालकाय वृक्ष के कोटर में अपने समस्त आयुध छिपाकर रख दिए। नगर में प्रवेश के पूर्व, हम सभी भ्राताओं ने द्रौपदी के साथ त्रिभुवनेश्वरी दुर्गा का स्तवन किया। देवी ने प्रकट होकर विजय तथा राज्यप्राप्ति का वरदान दिया; हमें आश्वस्त किया कि विराटनगर में हमें कोई पहचान नहीं पाएगा।

युधिष्ठिर ने सबसे पहले नगर में प्रवेश किया, राजा से मिलने की अनुमति ली। उनके सामने उपस्थित होकर मधुर वाणी में निवेदन किया –

“राजन! व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ मैं एक ब्राह्मण हूं। मेरा नाम है – कंक। पूर्व में मैं महाराज युधिष्ठिर के साथ मित्र के समान रहता था। मैं और वे, अवकाश के क्षणों में द्यूतक्रीड़ा का आनन्द लेते थे। पासा फेंकने की कला का मुझे विशेष ज्ञान है। उनके वन में चले जाने के पश्चात मैं अनाथ हो गया। उन्हें ढूंढ़ने की बहुत चेष्टा की लेकिन असफलता ही हाथ लगी। अब आपकी शरण में आया हूं। मुझे जीविका देकर एक ब्राह्मण की जीवन-रक्षा का पुण्य प्राप्त करें महाराज।” राजा विराट पर युधिष्ठिर की वाक्पटुता का सम्मोहक प्रभाव पड़ा। क्षण भर में ही निर्णय ले बोले –

“कंक! जिस प्रकार तुम महाराज युधिष्ठिर के मित्र थे, वैसे ही मेरे भी हो। आज से तुम्हें मैंने अपना मित्र स्वीकार किया। तुम्हारे भोजन, वस्त्र आवास और वेतन का दायित्व मेरे उपर होगा। मेरे राज्य, कोष और सेना के संचालन में तुम मेरे प्रमुख परामर्शदाता होगे। राजमहल का द्वार तुम्हारे लिए सदा खुला रहेगा।

तुमने जीविका की तलाश में वर्षों व्यतीत किए हैं। तुम्हें प्रत्यक्ष अनुभव है कि बिना जीविका के मनुष्य कितना कष्ट पाता है। अतः मैं तुम्हें अधिकार देता हूं कि अगर कोई भी योग्य पात्र, तुम्हारे पास आकर जीविका की याचना करता है तो उसकी प्रार्थना हर समय मुझे सुना सकते हो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि उन याचकों की सभी कामनाएं मैं पूर्ण करूंगा। तुम मुझसे कुछ भी कहते समय, भय या संकोच मत करना।”

राजा का विश्वास अर्जित कर वे बड़े सम्मान के साथ वहां रहने लगे। उनका रहस्य गोपन ही रहा, किसी पर प्रकट नहीं हुआ।

युधिष्ठिर की अनुशंसा पर चारो भ्राताओं और द्रौपदी को भी राजमहल में जीविका मिल गई – भीमसेन ‘बल्लव’ नामक प्रधान रसोइया बने, नकुल ‘ग्रन्थि’ नाम से अश्वपालक नियुक्त हुए, सहदेव ‘अरिष्टनेमी’ नाम से गौवों की देखरेख करने लगे। द्रौपदी ‘सैरन्ध्री’ परिचारिका के रूप में महारानी सुदेष्णा की सेवा में लग गई और मैं?

देवलोक की अप्सरा उर्वशी का शाप भुगतने के लिए, मैंने इसी अवसर को उपयुक्त माना। एक वर्ष के लिए नपुंसकत्व को प्राप्त हुआ। शाप भी वरदान बन जाएगा, कभी सोचा नहीं था। मेरा नया नाम था – बृहन्नला। कार्य था राजकुमारी उत्तरा को नृत्य एवं संगीत की शिक्षा देना। मैं स्त्रियों की तरह साड़ी बांध अपने कन्धे के शरचिह्न छिपा लेता, दीर्घ केशों की वेणी बांध, उनमें पुष्प लगा लेता, कान, नाक, हाथ, बाहु, कटि, पाद पर नाना अलंकार पहन लेता। होठों पर लाली, माथे पर कुंकुम बिन्दी और आंखों में काजल लगाकर, स्वयं को रमणी की भांति सुसज्जित कर लेता। एक बार सुभद्रा भी देखती तो पहचान नहीं पाती।

पुरुष मन बड़ा ही उच्छृंखल होता है। जहां सुन्दर नारी देखी, उसे अंकशायिनी बनाने का विचार आरंभ कर देता है। अगर सुन्दर नारी का कोई बलशाली रक्षक न हो तो पुरुष की बांछें खिल जाती हैं। सुसंस्कार और सुशिक्षा मनुष्य की इस आसुरी वृत्ति पर अंकुश लगाते हैं, लेकिन शक्तिमद में चूर महाराज विराट के साले, सेनापति कीचक को उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म का प्रश्न क्या व्यापता? महाराज विराट के वृद्ध और अशक्त होने के कारण राजमहल और बाहर तक उसी का साम्राज्य था। वह भीमसे की तरह बलशाली था। शक्ति के अहंकार ने उसे कुछ अधिक ही निरंकुश बना दिया था। महारानी सुदेष्णा उसकी सगी बहन थीं। इसका लाभ लेकर अन्तःपुर में वह स्वतंत्र विचरण किया करता था।

जैसे अहेरी वनों में आखेट की तलाश में विचरते रहते हैं, उसी तरह कीचक अन्तःपुर में सुन्दर रमणियों के संधान में विचरता रहता था। द्रौपदी ने महीनों स्वयं को उसकी कुदृष्टि से दूर रखा था, लेकिन एक दिन, विश्राम के क्षणों मे अचानक वह महारानी सुदेष्णा के कक्ष में प्रविष्ट हुआ। वहां महारानी की सेवा में रत द्रौपदी पर उसकी दृष्टि पड़ी। वह कृष्णा को देखते ही काम-बाण से पीड़ित हो गया। तरह-तरह से उसे रिझाने का प्रयत्न करने लगा। सती द्रौपदी ने प्रत्येक अवसर पर उसका अपमान किया, स्पष्ट उत्तर दिया कि वह उसकी कामना कर मृत्यु को आमंत्रित न करे। उसने यह भी बताया कि उसके पांच गंधर्व पति हैं, जो अदृश्य रहकर भी उसकी रक्षा करते हैं। अगर उसने दुस्साहस किया तो वह उसके लिए विषकन्या सिद्ध होगी।

लेकिन मूढ़मति कीचक ने इसे द्रौपदी की गीदड़ भभकी अथवा परिहास समझा। उसके सिर पर वासना का भूत सवार था। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। उसने पहले तो नाना प्रकार के उपायों से द्रौपदी को मोहित करने का प्रयास किया, असफल होने पर कुण्ठित हो कृष्णा के सार्वजनिक अपमान पर उतर आया। पांचाली ने नित्य के अपमानों से तंग आकर उससे छुटकारा पाने का निर्णय किया, वीर भीमसेन से मंत्रणा की और कीचक को रात्रि की नीरवता में नृत्यशाला में आमंत्रित किया।

कीचक इस सुअवसर को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसका अंग-अंग पुलकित हो रहा था। निर्धारित समय पर सुसज्जित हो नृत्यशाला में पहुंचा। उसे क्या पता था कि नृत्यशाला की शय्या पर चादर ओढ़कर महाबली भीम शयन कर रहे थे। उन्हें द्रौपदी समझ, भीमसेन को अत्यन्त प्रेम से जगाया। भीम तो जग गए लेकिन वह सदा के लिए सो गया। वीरवर भीमसेन ने उसे पृथ्वी पर पटककर, छाती को दोनों घुटनों से दबा, उसका गला घोंट दिया।

विराटनगर में इस अप्रिय घटना के अतिरिक्त और कोई दुर्घटना नहीं हुई। हमलोग सफलता पूर्वक अपने अज्ञातवास को पूर्ण करने की दिशा में अग्रसर थे। हम पांचो भ्राता और द्रौपदी, इस अवधि में किसी न किसी बहाने मिलते अवश्य थे। एक-दूसरे का कष्ट भी बांटते और भविष्य की योजनाएं भी बनाते। राजदरबार में युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा नित्य बढ़ती जा रही थी। उनसे मंत्रणा कर राजा विराट अत्यन्त प्रसन्न होते थे। उनके माध्यम से हमें हस्तिनापुर की गुप्त सूचनाएं भी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के प्राप्त हो जाती थीं।

क्रमशः

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here