कहो कौन्तेय-६

विपिन किशोर सिन्हा

अग्रज युधिष्ठिर, दुर्योधन, भीम, मैं, कर्ण, नकुल, सहदेव, अश्वत्थामा और अन्य शिष्य धनुष-बाण लेकर गुरु के संकेत की प्र्तीक्षा में टकटकी लगाकर उनके मुखमंडल की ओर देखने लगे।

उन्होंने पहले युधिष्ठिर को आज्ञा दी और प्रश्न किया –

“युधिष्ठिर, क्या तुम वृक्ष के शीर्ष पर बैठे गृद्ध को देख रहे हो?”

“जी हाँ, गुरुवर! मैं देख रहा हूँ।” युधिष्ठिर ने उत्तर दिया।

“क्या तुम इस वृक्ष को, मुझे, अपने भ्राताओं और मेरे शिष्यों को भी देख रहे हो,” द्रोणाचार्य ने अगला प्रश्न पूछा।

“हाँ, गुरुवर! मैं इस पूरे वृक्ष को, कलकल- छलछल करती नदी को, आपके साथ खड़े आपके समस्त शिष्यों और अपने सभी भ्राताओं को भी देख रहा हूँ।”

द्रोणाचार्य के मुखमंडल पर खीझ के भाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होने लगे। उन्होंने युधिष्ठिर को झिड़कते हुए आदेश दिया-

“हट जाओ, तुम ये शरसंधान नहीं कर सकते।”

इसके पश्चात उन्होंने भीम, दुर्योधन, कर्ण, अश्वत्थामा आदि अपने समस्त शिष्यों को एक-एक करके वहाँ खड़ा कराया और सबसे यही प्रश्न किया। सबने भैया युधिष्ठिर से मिलता जुलता उत्तर दिया। आचार्य ने सबको झिड़क कर वहाँ से हटा दिया।

अन्तिम बारी मेरी थी। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा –

“अर्जुन लक्ष्य की ओर दृष्टि उठाओ – लक्ष्यवेध करने हेतु। धनुष चढ़ाकर मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा करो।”

क्षण भर ठहरकर आचार्य ने अगला प्रश्न किया –

“क्या तुम इस वृक्ष को, गृद्ध को और मुझे देख रहे हो?”

“भगवन! मुझे गृद्ध के अतिरिक्त कुछ भी दृष्टिगत नहीं हो रहा है।” मैं जो देख रहा था वही बोला।

आचार्य ने पुनः प्रश्न किया –

“अर्जुन, यह तो बताओ कि गृद्ध की आकृति कैसी है?”

“गुरुवर! अब तो मुझे गृद्ध की दाईं आँख की पुतली मात्र दिखाई दे रही है। इसके अतिरिक्त कुछ भी मेरी दृष्टि में नहीं है।”

“वत्स, शरसंधान करो।” आचार्य की गंभीर ध्वनि मेरे कानों में टकराई।

मैंने तत्क्षण प्रत्यंचा खींची और बाण प्रक्षेपित किया। टंकार के साथ बाण गृद्ध की दाईं आँख की पुतली में धंस गया। लक्ष्यवेध हो चुका था। आचार्य ने गद्गद होकर तत्काल अपने वक्षस्थल से मुझे लगा लिया। उस क्षण ही मुझे आशीर्वाद मिला –

“हे इस धरा के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर पार्थ! तुम परीक्षा में सर्वोत्तम आए। तुम्हारा यश, तुम्हारी कीर्ति, तुम्हारी शौर्यगाथा इस पृथ्वी पर सूर्य की किरणों की तरह फैलेगी। मैं तुम्हें सतत अजेय रहने का आशीर्वाद देता हूँ।”

मैंने आचार्य के श्रीचरणों में बार-बार अपना माथा नवाया और चरणधूलि को मस्तक पर धारण किया।

मेरे चारों भ्राताओं को अपनी असफलता पर रंचमात्र भी पश्चाताप नहीं था। उन्होंने मेरी सफलता में अपनी सफलता के दर्शन किए। सफलता का आनन्द सार्वजनिक होकर द्विगुणित हो जाता है। हम सभी अत्यन्त प्रसन्न थे।

लक्ष्यवेध के अगले दिन हम सभी शिष्यों को साथ ले, आचार्य गंगा-स्नान हेतु भागीरथी के तट पर गए। गंगा के पवित्र जल में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने मंत्रों द्वारा आराधना की, पश्चात जल में उतरकर जैसे ही गोता लगाया, जलजन्तु ग्राह ने उनकी पिण्डली पकड़ ली। गुरुवर बाहर निकलने का जितना ही प्रयास करते, उतने ही बल से ग्राह उनको गहरे जल में खींचता। दोनों में कुछ क्षणों तक द्वंद्व चलता रहा। अंत में ग्राह से स्वयं को छुड़ा पाने में असमर्थ आचार्य ने ऊँची ध्वनि में हम सबको संबोधित किया –

“इस ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है और मुझे मृत्यु के मुख में ले जाने को उद्यत है। इसका शीघ्र वध कर मुझे बचाओ।”

सभी शिष्य हतप्रभ थे। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने बिना विलंब किए तत्क्षण पांच अमोघ और तीखे बाणों का प्रहार ग्राह पर किया। ग्राह के टुकड़े-टुकड़े हो गए। आचार्य उसके बंधन से मुक्त हुए। वे मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हुए। इतना प्रसन्न वे कल लक्ष्यवेध के समय भी नहीं थे। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा, मेरे मस्तक को सूंघा और भर्राए स्वर में कहा –

“महाबाहो! आज तुम्हें मैं देवताओं के लिए भी दुर्लभ ब्रह्मशिर नामक अस्त्र, प्रयोग और उपसंहार के साथ बता रहा हूँ। यह सब अस्त्रों से बढ़कर है तथा इसे धारण करना भी कठिन है। तुम इसे ग्रहण करो। इसका प्रयोग गहन आपात स्थिति में ही करना चाहिए। यदि किसी अल्प तेज वाले योद्धा पर इसे चलाया गया तो यह उसके साथ समस्त संसार को भी भस्म कर देगा। यह अस्त्र तीनों लोकों में असाधारण बताया गया है। तुम मन और इन्द्रियों को संयमित रखने वाले असाधारण पुरुष हो, अतः इस अस्त्र को धारण करने के सर्वथा उपयुक्त पात्र हो।”

“जो आज्ञा गुरुदेव,” कहकर मैंने आचार्य के समक्ष प्रतिज्ञा की और विनम्रतापूर्वक उस उत्तम अस्त्र को ग्रहण किया। उस समय सभी शिष्यों के सम्मुख उन्होंने पुनः यह घोषणा की –

“इस संसार में दूसरा कोई पुरुष तुम्हारे समान धनुर्धर नहीं होगा।”

मैंने अपने सभी गुरुभाइयों की ओर दृष्टि दौड़ाई। सबकी आँखों में प्रशंसा के भाव थे। सिर्फ कर्ण और दुर्योधन अपने मनोभावों को छिपा नहीं पा रहे थे। उनके नेत्र ईर्ष्या की ज्वाला से दग्ध थे।

यह आश्रमिक जीवन की अवधि का अवसान था। हमारी शिक्षा पूरी हो चुकी थी। हमलोग राजभवन लौट आए। माता कुन्ती के श्रीचरणों में अपना प्रणाम निवेदित कर मैं सीधा पितामह के भवन में प्रविष्ट हुआ। चरणधूलि माथे से लगाई। उन्होंने मुझे वक्ष से लगाया और गुरुकुल में प्राप्त सारी विद्याओं का विस्तार से वर्णन करने का निर्देश दिया। वे स्वयं एक महान धनुर्धर थे। पितामह होने के नाते वे संतुष्ट होना चाहते थे कि उनके पौत्रों ने उचित शिक्षा प्राप्त कर ली है। वे यह भी जानना चाहते थे कि अचार्य ने हमें कौन-कौन से अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग व उपसंहार सिखाया तथा किन-किन विद्याओं में पारंगत किया। मैंने उनकी समस्त जिज्ञासाएं शान्त की। लक्ष्यवेध से लेकर ग्राह-वध की सारी घटनाएं विस्तार से बताई तथा विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन की विधि का मौखिक वर्णन किया। पितामह अत्यन्त प्रसन्न और संतुष्ट दिखे।

 

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