कहो कौन्तेय-८०

विपिन किशोर सिन्हा

(कर्ण-वध)

भगवान शंकर का स्मरण कर मैंने पाशुपतास्त्र गाण्डीव पर चढ़ाया, मंत्र पढ़ा और कर्ण पर प्रक्षेपित करने का निर्णय लिया। लेकिन यह क्या? वह तूणीर और धनुष को संभालता हुआ रथ से कूद पड़ा। मैंने समझा, अपने रथ के स्थिर हो जाने के कारण वह दौड़कर भागना चाह रहा है। लेकिन नहीं, वह रथ के पहियों से झूझ रहा था। उसका सारथि मेरे बाणों के पिंजरे में बन्दी था। मेरा एक ही बाण उसकी जीवन-लीला समाप्त करने के लिए पर्याप्त था। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। जीवन में पहली बार याचना के स्वर में मुझसे बोला –

“कुन्तीनन्दन! तुम बहुत बड़े धनुर्धर ही नहीं, धर्म के ज्ञाता भी हो। संकट में पड़ने पर भी तुमने कभी धर्म का उल्लंघन नहीं किया है। मेरा रथ चक्र दलदल में बुरी तरह फंस गया है। क्षण भर के लिए ठहर जाओ, मैं पहिया निकाल लूं, सतर्क हो जाऊं, फिर प्रहार करना। तुम्हें कभी भी छोटे स्वार्थ के लिए नीच मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। तुम्हारे लिए श्रेष्ठ आचरण ही उचित है।

हे पार्थ! जिसके सिर के केश बिखर गए हों, जो पीठ दिखाकर भागा जाता हो, ब्राह्मण हो, हाथ जोड़ रहा हो, जिसने अपने अस्त्र-शस्त्र रख दिए हों, जिसका कवच कट गया हो, ऐसे योद्धा पर उत्तम आचरण करने वाले तुम जैसे शूरवीर कभी प्रहार नहीं करते।

तुमने उपनिषदों के गहन ज्ञान में डुबकी लगाई है। तुम दिव्यास्त्रों के ज्ञाता और उदार हृदय वाले हो। तुमने अपने पराक्रम से देवाधिदेव महादेव को भी संतुष्ट किया है। युद्ध में तुम कार्तवीर्य को भी परास्त करने की क्षमता रखते हो। तुम्हारी कीर्ति पताका अब तक निष्कलंक रहते हुए सारी पृथ्वी पर लहराती है। अतः हे महाबाहो! मेरी विवशता का लाभ उठाकर अपनी कीर्ति को कलंकित मत करो। जबतक मैं दलदल में फंसे हुए इस रथचक्र को ऊपर न उठा लूं, तब तक तुम रुक जाओ। तुम रथ पर हो, मैं धरती पर हूं। तुम्हारे बाणों ने मेरे मर्मस्थलों को बहुत चोट पहुंचाई है। इस समय मैं विचलित और घबराया हुआ हूं, अतः मेरे ऊपर प्रहार करना उचित नहीं है।”

मैंने पाशुपतास्त्र को तूणीर में रखा और गाण्डीव को विश्राम दिया। कर्ण कुछ भी अनुचित नहीं कह रहा था। मैंने उसपर प्रहार नहीं किया।

श्रीकृष्ण का मुखमण्डल अचानक तमतमा गया। क्रोध में भरकर उन्होंने मुझे देखा और आंख के इशारे से कर्ण को मारने का मुझे निर्देश दिया। मुझपर कोई प्रभाव न पड़ता देख ऊंचे स्वर में मुझे सुनाते हुए उन्होंने कर्ण को संबोधित किया –

“राधानन्दन! आश्चर्य है कि इस समय तुम्हें धर्म की याद आ रही है। तुमने कभी भी अपने कुकर्मों को याद किया है? यह समय उन्हें याद कर प्रायश्चित करने का है। इस समय तुम्हारी आंखों के सामने तुम्हारी मृत्यु नृत्य कर रही है, इसलिए प्राण रक्षा के लिए अर्जुन की सदाशयता और धर्मशीलता को स्मरण कर उसे धर्म और कर्त्तव्य का उपदेश दे रहे हो।

कर्ण! तुम्हारी ही नेक सलाह पर जब दुर्योधन ने भीमसेन को विष दिया और विषैले नागों से डंसवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहां था?

वारणावत नगर में, लाक्षागृह के अन्दर माता समेत सोए हुए पाण्डवों को जीवित जलाने के लिए जब तुमने प्रबंध किया, उस समय तुम्हारा धर्म कहां था?

भरी सभा के अन्दर, दुशासन के वश में पड़ी, रजस्वला द्रौपदी के चीरहरण का निर्देश देते हुए, जब तुमने वेश्या कहकर उसका उपहास किया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहां चला गया था?

सहायता के लिए चीत्कार करती हुई अर्द्धनग्न द्रौपदी को जब तुम वासना की लोलुप दृष्टि से घूर रहे थे, उस समय तुम्हारा धर्म कहां था?

सबकुछ सामान्य होने के बाद भी शकुनि और दुर्योधन के साथ कुमंत्रणा कर धर्मराज युधिष्ठिर को दुबारा जुए के लिए बुलवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहां था।

अपने वचनों को दृढ़ता से पालन करते हुए पाण्डवों ने वनवास के बारह वर्ष और अज्ञातवास का एक वर्ष सफलता पूर्वक व्यतीत करने के बाद जब आधा राज्य वापस मांगा, तो तुम्हीं सबसे बड़े बाधक बने। उस समय तुम्हारा धर्म कहां था?

शस्त्र-विहीन वीर बालक अभिमन्यु भी रथहीन था, धरती पर था, अकेला था। तुमने उसका धनुष काटा था, अनेक महारथियों के साथ उसे घेरकर उसका वध कराया था। बताओ कर्ण, उस समय तुम्हारा धर्म कहां चला गया था?”

श्रीकृष्ण के किसी भी प्रश्न का उत्तर कर्ण के पास नहीं था। अनुत्तरित कर्ण ने लज्जा से अपना सिर झुका लिया।

अब श्रीकृष्ण मेरी ओर मुड़े। मुझे मौन देख जोर से बोले –

“देख क्या रहे हो अर्जुन, चलाओ अर्द्धचन्द्राकार मंत्रपूरित आंजलिक बाण। कर दो इस दुष्टात्मा का मस्तक इसके धड़ से अलग। ले लो अपनी पांचाली के अपमान और अभिमन्यु की मृत्यु का प्रतिशोध। शीघ्रता करो वीर, समय और अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करते।”

“किन्तु वह निःशस्त्र है, रथहीन है, पदस्थ है………” मेरा वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि कर्ण के धनुष से प्रक्षेपित प्रज्जवलित अग्नि के समान एक भयंकर बाण मेरा वक्षस्थल विदीर्ण कर गया। गहरी चोट से मेरा सारा शरीर कांप उठा, हाथ ढीला पड़ गया, गाण्डीव खिसकने लगा। एक क्षण के लिए ऐसा लगा जैसे चेतना मेरा साथ छोड़ रही हो। दूसरे ही क्षण मैंने स्वयं को संभाला।

कुछ ही पल पूर्व धर्म की दुहाई देनेवाले कर्ण ने मुझे जरा सा असावधान देख प्राणघातक प्रहार कर दिया था। मुझे अपनी भूल की अनुभूति होने लगी। दुरात्मा मनुष्य और विषधारी नाग दया के पात्र नहीं होते। इन्हें घायल छोड़ देना प्राण्घाती होता है।

मैंने क्षण के दसांश में अपने गाण्डीव पर इन्द्र के वज्र और यमराज के दण्ड की सम्मिलित शक्ति से युक्त आंजलिक बाण चढ़ाया। वह बाण कालाग्नि के समान प्रचण्ड तथा सुदर्शन चक्र के समान भयंकर था। श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का ध्यान कर, कर्ण की ग्रीवा का लक्ष्य करते हुए उस प्रलयंकारी बाण को प्रक्षेपित कर ही दिया। गाण्डीव से सनसनाता हुआ निकला वह आंजलिक बाण लक्ष्य पर सटीक बैठा। कर्ण का मस्तक धरती पर लोट रहा था, ग्रीवा से रक्त के फव्वारे फूट रहे थे।

सबकुछ एक पल में घटित हो गया। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरा सबसे बड़ा शत्रु गतप्राण हो चुका है। श्रीकृष्ण भी ठगे से कभी मुझे और कभी कर्ण का शव देख रहे थे। प्रसन्नता के अतिरेक ने मेरी वाणी को मौन कर दिया था। दोनों सेनाओं को कर्ण की मृत्यु पर विश्वास तब हुआ, जब भीमसेन ने भयंकर सिंहनाद करके धरती और आकाश को कंपा दिया। दुर्योधन और बचे-खुचे धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय में भय की आंधी चलाते हुए युद्धभूमि में ही वे ताल ठोककर खूब कूदे, खूब नाचे।

शान्त श्रीकृष्ण ने पांचजन्य का उद्घोष कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की। रक्त-मांस के कीचड़ में पड़े कर्ण के कवचहीन शरीर और बिना कुण्डल के दूर पड़े मस्तक को देखते हुए सत्रहवें दिन का सूरज अस्त हुआ। आज का युद्ध रुक गया।

नित्य सायंकाल विजय दुन्दुभि कभी कौरव पक्ष में बजा करती थी, कभी हमारे पक्ष में। सहस्रों योद्धाओं की मृत्यु तो नित्य ही हुआ करती थी, महाभारत के इस घोर समर में। सृष्टि का सबसे बड़ा सच, ‘मृत्यु’ एक पक्ष के लिए महाशोक का कारण थी, तो दूसरे पक्ष के लिए हर्ष का विषय। हमारे पक्ष के युद्ध संगीत के विशारद आज विशेष घोष बजा रहे थे। हमारे योद्धा तरह-तरह के उपक्रमों से अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे – उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हमने आज ही युद्ध जीत लिया हो। श्रीकृष्ण ने अपनी प्रसन्नता की अभिव्यक्ति मुझे अपने वक्षस्थल से लगाकर की। प्रफुल्लित हो बोले –

“पार्थ! आज तुमने देवदुर्लभ पराक्रम का प्रदर्शन किया। जिस तरह देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था, तुमने उसी तरह कर्ण को मार गिराया है। आज से लोग वृत्रासुर की तरह कर्ण-वध की कथा कहेंगे और सुनाएंगे। कर्ण-वध के बिना इस महासमर में तुमलोगों की विजय दिवास्वप्न के समान थी। लेकिन विजयश्री अब तुम्हारा द्वार खटखटा रही है। कर्ण के आतंक के कारण धर्मराज युधिष्ठिर गत तेरह वर्षों से चैन की नींद नहीं सो पाए हैं। हमें शीघ्र उनके शिविर में पहुंचकर इस शुभ समाचार से उन्हें अवगत कराना चाहिए।

हमारे आगे-आगे विजय दुन्दुभि बजाते हुए घोष प्रमुखों की एक टुकड़ी चल रही थी, पीछे-पीछे भीम, सात्यकि, नकुल, सहदेव और अन्य योद्धाओं की टोली थी। युधिष्ठिर पांचजन्य और देवदत्त का विजय घोष पहले ही सुन चुके थे। हमारी अगवानी के लिए शिविर से बाहर निकल आए। मुझे और श्रीकृष्ण को एक साथ छाती से लगाया। आनन्दातिरेक से उनके नेत्र अश्रुवर्षा करने लगे।

श्रीकृष्ण ने अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ हाथ जोड़कर उन्हें कर्ण-वध की अधिकृत सूचना दी –

“महाराज! यह अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि आप, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव युद्ध के सत्रहवें दिन की समाप्ति पर सकुशल हैं। आज दिन ढलने के कुछ क्षण पूर्व आपके यशस्वी अनुज और अद्वितीय धनुर्धर अर्जुन के हाथों आपका चिर शत्रु महारथी कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ। आपमें और निर्णायक विजय के बीच अब कुछ अंगुल की ही दूरी शेष है जो कल मिट जाएगी। उस महारथी के पूरे शरीर में अर्जुन के तीक्ष्ण बाण चुभे हुए है। वह अनाथ और असहाय की भांति भूतल पर पड़ा हुआ है। आप चलकर उसे देखिए और अपना चित्त हर्षित कीजिए। महाबाहो! अब शीघ्र ही पृथ्वी का अकंटक साम्राज्य आपके चरणों में होगा।”

स्थितप्रज्ञ युधिष्ठिर की प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी। श्रीकृष्ण के साथ उन्होंने कर्ण के वध-स्थल का निरीक्षण किया। श्रीकृष्ण को बार-बार सीने से लगाकर आभार प्रकट किया।

सचमुच कर्ण-वध के नायक तो श्रीकृष्ण ही थे। मैं तो निमित्त मात्र था।

क्रमशः

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