कहो कौन्तेय-८१

विपिन किशोर सिन्हा

(शल्य और शकुनि-वध)

कुरुक्षेत्र की घटनाओं से अप्रभावित सूरज, युद्ध के अठारहवें दिन भी वृक्षों के शीर्ष से झांकता हुआ पूरब के क्षितिज पर उदित हुआ।

दुर्योधन ने सेनापति के रूप में हमारे मातुल शल्य का अभिषेक किया था। अपनी सेना के लिए सर्वतोभद्र नामक व्यूह की रचना के साथ वे अग्रिम स्थान पर विद्यमान थे। उनके दाएं-बाएं मद्रदेश की सेना से रक्षित कर्ण के तीन वीर पुत्र तथा त्रिगर्तों की सेना के साथ कृतवर्मा थे। मध्य भाग में दुर्योधन तथा पृष्ठ भाग में अश्वत्थामा ने मोर्चा संभाला था। दोनों पक्षों की नब्बे प्रतिशत सेनाओं का संहार हो चुका था। अतः हमने किसी विशेष व्यूह की रचना आवश्यक नहीं समझी। आज हमारे समस्त योद्धा जीत की मनःस्थिति में निर्णायक आक्रमण का संकल्प ले चुके थे। हमने अपनी सेना को तीन भागों में विभक्त किया – सात्यकि, धृष्टद्युम्न और शिखण्डी तीनों खण्डों का नेतृत्व कर रहे थे। हम पांचों भ्राता आवश्यक सहायता प्रदान करने हेतु द्वितीय पंक्ति में थे। परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार हम सभी अपना स्थान बदलने के लिए स्वतंत्र थे। लेकिन रहना हमें पास-पास ही था। हम और अधिक क्षति उठाने की स्थिति में नहीं थे।

नित्य की भांति श्रीकृष्ण ने अपने पांचजन्य के उद्‌घोष के साथ युद्ध आरंभ करने का संकेत दिया। हमारी समवेत शंखध्वनि के प्रत्युत्तर में शल्य ने भी भयंकर शंखनाद किया – संग्राम आरंभ हो गया। दोनों पक्षों के योद्धा अपने-अपने प्रतिद्वन्द्वियों पर टूट पड़े। मैंने आज कृतवर्मा का चुनाव किया, युधिष्ठिर ने शल्य का, भीमसेन ने कृपाचार्य का, सहदेव ने उलूक का और नकुल ने कर्ण-पुत्रों को चुना।

कृतवर्मा मेरे मातृपक्ष का योद्धा था। मैंने उसके वध का प्रयास नहीं किया लेकिन बाणों से पर्याप्त घायल किया और जी भर छकाया।

नकुल ने कर्ण-पुत्र चित्रसेन पर पूरे वेग से धावा बोला। दोनों बराबरी का युद्ध लड़ रहे थे कि अचानक चित्रसेन ने नकुल का धनुष काट दिया। असहाय नकुल ने ढाल पर बाणों का प्रहार झेला। लेकिन क्षण भर में अवसर निकाल नंगी तलवार ले चित्रसेन के रथ पर उछलकर पहुंच गए। संपूर्ण सेना के सामने उसने कुण्डल और मुकुट से युक्त चित्रसेन का मस्तक धड़ से अलग कर दिया।

कर्ण के बचे दो महारथी पुत्र सुषेण और सत्यसेन क्रोध में भरकर नकुल पर टूट पड़े। लेकिन आज का दिन नकुल का था। उसने अद्‌भुत पराक्रम दिखाते हुए दोनों कर्णपुत्रों को यमलोक का अतिथि बना दिया। कौरव सेना में भगदड़ मच गई।

भागती सेना में उत्साह का संचार करने के लिए दुर्योधन को आगे आना पड़ा। भीमसेन की बांछें खिल गईं। शिकार को सामने पा भीम ने गगनभेदी हुंकार भरी। दुर्योधन ने दूर से ही भीमसेन की ध्वजा काट डाली। हंसते हुए भीमसेन ने दुर्योधन पर एक अचूक शक्ति का प्रहार किया। वह मूर्च्छित हो रथ की बैठक में गिर पड़ा। भीम के बाणों से दुर्योधन का सारथि गतप्राण हुआ। अनियंत्रित अश्व रथ को इधर-उधर दौड़ाने लगे। सर्वत्र हाहाकार मच गया। कृतवर्मा, अश्वत्थामा और कृपाचार्य ने शीघ्र ही घेरा बनाकर दुर्योधन के रथ को अपने घेरे में ले लिया और सुरक्षित रणभूमि से निकाला।

सेनापति शल्य इन सारी घटनाओं से अनभिज्ञ थे। उन्हें महाराज युधिष्ठिर ने अपनी अबूझ बाण-वर्षा से सुरक्षात्मक होने पर वाध्य कर दिया था। अपने सारथि तथा पार्श्वरक्षक की युधिष्ठिर के हाथों मृत्यु के बाद शल्य ने अश्वत्थामा के रथ पर बैठ पलायन करना ही श्रेयस्कर समझा।

महाराज शल्य कभी युद्धभूमि से पलायन नहीं करते थे लेकिन आज दो बार उन्हें पीठ दिखानी पड़ी। दिन के प्रथम प्रहर ही वे भीम के गदा प्रहार के शिकार बने थे। पूरी शक्ति से प्रहार किए गए भीम की गदा का आघात सहने की क्षमता दुर्योधन के अतिरिक्त इस पृथ्वी पर किसके पास थी? अचेत शल्य की रक्षा कृपाचार्य ने की। मातुल का वध करने का भीम ने कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किया। उन्हें जाने दिया। बस, एक ऊंचे अट्टहास से उनका उपहास करना वे नहीं भूले। अपमानित होकर जीना शल्य के व्यक्तित्व का अंग नहीं था। वे शीघ्र ही दूसरे रथ पर बैठकर युधिष्ठिर का वध करने और दुर्योधन को प्रसन्न करने हेतु रणभूमि में उपस्थित हुए।

महाराज युधिष्ठिर ने सौ बाणों का एक साथ प्रहार कर उनका स्वागत किया। शल्य ने युधिष्ठिर का धनुष काट अचूक बाणों से उन्हें बींध दिया। धर्मराज की रक्षा में लगे भीमसेन ने पहले शल्य का धनुष काटा, फिर सारथि को यमलोक का अतिथि बनाया और रथ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। शल्य एकाएक विचलित हुए। उनके पास रथ से कूदने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं था। हाथ में ढाल-तलवार ले रथ से कूद पड़े और युधिष्ठिर पर धावा बोल दिया।

भीमसेन चुपचाप शल्य को युधिष्ठिर की ओर बढ़ते हुए कैसे देख सकते थे? तीक्ष्ण बाणों के प्रहार से शल्य की ढाल के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। एक भल्ल मारकर उनकी तकवार भी तोड़ डाली। शल्य हतप्रभ थे। वे चारों ओर से घिर चुके थे। धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सात्यकि, भीमसेन और द्रौपदी के पुत्र उनकी विवशता और दीनदशा पर अट्टहास कर रहे थे।

महाराज युधिष्ठिर ने सारे रिश्ते-नाते विस्मृत कर शल्य के वध का कठोर निर्णय लिया। एक दमकती हुई शक्ति अपने दाहिने हाथ में लेकर, मंत्रों से अभिमंत्रित करके पूरी शक्ति और वेग से शल्य पर छोड़ दी। मातुल शल्य का कवच फटा, वक्षस्थल विदीर्ण हुआ और वे सदा के लिए रणभूमि में सो गए।

सेनापति शल्य के वीरगति को प्राप्त होते ही कौरव सेना के पांव उखड़ गए। हमारे महारथी स्वछन्द विचरण कर इच्छानुसार शत्रु सेना का संहार कर रहे थे। दुर्योधन ऊंचे स्वर में अपने सैनिकों से युद्धभूमि में टिके रहने का आग्रह कर रहा था लेकिन उसका आह्वान निष्प्रभावी रहा। शकुनि दुर्योधन की यह दशा देख नहीं पाया। मन कड़ा करके अग्रिम मोर्चे पर आया। भीमसेन ने बाण-वर्षा कर उसे शस्त्रहीन और रथहीन किया, सहदेव ने कपट-पासे फेंकने वाले उसके दोनों हाथ काट डाले। कातर दृष्टि से उसने सहदेव को देखा। अट्टहास करते हुए सहदेव ने कहा –

“मूर्ख शकुनि! जिन हाथों से तुमने कपट पासे फेंककर इस महायुद्ध की नींव रखी थी, मैं उन्हें काट चुका हूं। जिस मुख से तूने हमारा उपहास किया था, जिन आंखों से तूने पांचाली पर कुदृष्टि डाली थी, जिस ग्रीवा को हिला-हिला कर तुम अपनी प्रसन्नता का प्रकटीकरण कर रहे थे, वह अब भी तुम्हारे कंधों पर टिकी है। तुम्हारे कुकृत्यों के कारण कुलांगार दुर्योधन और तेरे सिवा कोई जीवित नहीं बचा है। मैं तेरा मस्तक काट तुझे मृत्युदान दूंगा।”

सहदेव ने सावधानीपूर्वक अपना खड्‌ग उठाया और शकुनि की ग्रीवा को लक्ष्य कर शक्तिशाली प्रहार किया। रक्त के फव्वारे फूट पड़े। लक्ष-लक्ष प्राणों को बलि का अज बनाने वाला गांधार का नराधम रक्त-मांस की दलदल में गिर पड़ा। उसके कटे मस्तक को रौंदते हुए उसी के अश्व रणभूमि से भाग चले। एक कूटपर्व का अन्त हुआ।

कौरव पक्ष के सभी योद्धा दिन के तीसरे प्रहर तक अपने प्राणों की आहुति दे चुके थे। शत्रु पक्ष का मैदान बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा था। भीमसेन, सात्यकि और धृष्टद्युम्न के साथ स्वतंत्र विचरण करते हुए दुर्योधन को ढूंढ़ रहे थे।

भीमसेन विक्षिप्तों की भांति प्रलाप करते हुए उसे ढूंढ़ रहे थे। अचानक कुछ व्याधों ने सरोवर में दुर्योधन के छिपे होने की सूचना दी।

मनुष्य को प्राणों का मूल्य तब पता चलता है जब स्वयं उसके प्राणों पर बन आती है। हमारी सात और अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेना तथा अपने प्रियजनों का विध्वंश करने-कराने के बाद दुर्योधन को प्राणों का मूल्य समझ में आया। कायरों की भांति रणभूमि से पलायन कर सूर्यकुण्ड में छिपा था। अभी भगवान भास्कर अस्ताचलगामी नहीं हुए थे। युद्धविराम नहीं हुआ था लेकिन सदा बड़े बोल बोलने वाले दुर्योधन को जीवन का शाश्वत सत्य समझ में आ गया था।

क्रमशः

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